उत्तंक n. यह बैद का शिष्य । यह अत्यंत मनोनिग्रही था । एकवार वैद ऋषि यजमानकृत्य के लिये बाहर गये हुए थे, तब आश्रम पर देखरेख रखने का काम उन्होंने उत्तके पर सौंपा । वैद के पीछे उसकी पत्नी ऋतुमती हुई । तब उत्तंक की परीक्षा देखने के हेतु उसने आश्रम की स्त्रियों के द्वारा संदेशा भिजवाया, कि गुरुपत्नी का ऋतु व्यर्थ न हो ऐसा काम तुम करो । परंतु उनका निषेध कर उत्तंक ने उस प्रसंग का निवारण किया । वैद ऋषि के घर लौटने के बाद उसे यह सब मालूम हुआ । तब किसी भी प्रकार के मोह से उत्तंक वश नही होता यह देख कर संतुष्ट हो कर उसे वरदान दिया । उत्तंक अच्छी तरह पढा कर बैदने उसे घर जाने के लिये कहा । उस समय“आपको मैं क्या गुरुदक्षिणा दूँ?" ऐसा प्रश्न उत्तंक ने उनसे पूछा । बैदने दक्षिणा लेना अमान्य कर दिया । परंतु उत्तंक का अत्यधिक आग्रह देख कर कहा कि, तुम्हारी गुरुपत्नी को जो चीज चाहिये हो, वह ला कर दो । गुरुपत्नी के पास जा कर उत्तंक ने पूछा कि तुम्हें क्या चाहिये? तब उसने कहा कि मुझे पौष्य राजा कीं पत्नी के कुंडल चाहिये । उसने पौष्य राजा की पत्नी के पास से वे कुंडल मांग लाये । उन कुंडलों पर तक्षक की नजर है यह पौष्य की पत्नी को मालूम था, अतएव कुंडला को ठीक से सम्हालने की सूचना उसने उत्तंक को दी । उत्तंक जब कुंडल ले कर जा रहा था तब तक्षक उसके पीछे बौद्ध भिक्षु के रुप में जाने लगा । जब उत्तंक ने वे कुंडल नीचे रखे तब तक्षक उन्हें पाताल में ले गया । तब उत्तंक पाताल जाने का मार्ग ढूंढने लगा । उस समय इसकी गुरुभक्ति से संतुष्ट हो कर इंन्द्र ब्राह्मणरुप में इसे सहायता करने आया । उसने वज्र की सहायता से इसे मार्ग बना दिया । उत्तंग ने पातल से कुंडल लाये तथा वे वैद भार्या को दिये कुंडलों के वापस मिलने पर भी उत्तंक का तक्षक के प्रति क्रोध कम नही हुआ । उसका बदला लेने के लिये इसने जनमेजय को सर्प सत्र के लिये प्रेरित किया
[म.आ.३] ; इन्द्र देखिये । यही कथा केवल नामों के भेद से अन्य स्थानों पर भी आई है । यह एक भार्गव था । यह मुनिश्रेष्ठ गौतम का शिष्य । विद्याभ्यास समाप्त होने पर गुरु को गुरुदक्षिणा के रुप में क्या दूँ, ऐसा पूछने पर इसकी गुरुपत्नी ने सौदास राजाकी पत्नी के स्वर्णकुंडल लाने के लिये कहा । सौदास अत्यंत भयंकर तथा मनुष्यभक्षक था । परंतु बिना डरे उत्तंक उसके पास गया था कुंडल मांगने लगा । कुंडल उसके पास न हो कर उसकी पत्नी के पास थे । इससे उत्तंक सौदास की पत्नी के पास गया तथा उससे कुंडल मॉंग कर अपनी गुरुपत्नी को दिये । बाद में उत्तंक निर्जल मारवाड देश में तपश्चर्या करने चला गया । एक बार श्रीकृष्ण से इसका मिलन हुआ । कौरवपांडवो का भारतीय युद्ध में नाश हो गया, यह सुनते ही यह कृष्ण को शाप देने लगा । तब तत्त्वकथन करते हुए कृष्ण ने इसे विश्वरुप दर्शाया । मरुभूमी में जहॉं इच्छा हो वहॉं पानी प्राप्त करने का वरदान इसने मॉंगा । कृष्ण ने कहा कि, मेरा स्मरण करते ही तुम्हें जल प्राप्त हो जावेगा । एक बार जब इसने स्मरण किया, तब इन्द्र चांडाल के रुपमें इसे पानी देने आया । परंतु अपवित्र मान कर इसने उसका स्वीकार नहीं किया । वास्तव में इन्द्र अमृत देने के लिये आया था । जिस जिस समय तुम्हें पानी की आवश्यकता होगी उसी समय इस मरुभूमि में सजल मेघ आवेंगे ऐसा कृष्ण ने इसे पुनः वर दिया
[म.आश्व. ५२.५४] । इसने धुंधु दैत्य का वध करने के लिये, कुवलाश्व नामक राजा को सहायता दी
[म.व.१९२.८] (२ जनमेजय परिक्षित देखिये) ।