रंतिदेव (सांकृत्य) n. (सो. पूरू.) सुविख्यात भरतवंशीय सम्राट, जिसका निर्देश महाभारत में प्राप्त सोलह श्रेष्ठ राजाओ की नामावली में प्राप्त है । एक श्रेष्ठ दानी राजा के नाते इसका निर्देश महाभारत में पुन: पुन: प्राप्त है
[म. शां. २९. ११३-१२१] । मत्स्य, भागवत एवं विष्णु में इसे संकृति राजा का पुत्र कहा गया है, जिस कारण इसे ‘सांकृत्य’ पैतृक नाम प्राप्त हुआ था
[म. अनु. १३७.६] । वायु के अनुसार इसे त्रिवेद नामान्तर प्राप्त था । इसकी माता का नाम सत्कृति था । सुविख्यात पौरव राजा रंतिनार (मतिनार, रंतिभार) से यह काफी उत्तरकालीन था । भरत से लेकर रंतिदेव तक का वंशक्रम इस प्रकार है
रंतिदेव (सांकृत्य) n. इसका राज्य चर्मण्वती (आधुनिक चंबल) नदी के किनारे था, एवं इसकी राजधानी दशपुर नगरी में थी
[मेघ. ४६-४८] । महाभारत मे इसकी दानशूरता का, एवं इसके द्रारा किये गये यज्ञयागों का सविस्तर वर्णन प्राप्त है । अतिथियों की व्यवस्था के लिए अपने राजगृह में इसने दो लाख पाकशास्त्रियों की नियुक्ति की थी । इसके यज्ञ में बलिप्राणि बन स्वर्ग प्राप्ति हों, इस उद्देश्य से यज्ञीय पशु स्वयं ही इसके यज्ञ में प्रवेश करते थे । एक बार एक गोयज्ञ करने के लिए इसके राज्य की गायों ने इसे विवश किया, किन्तु इनमें से एक गाय आहुति देने के लिए नाराज दिखाई देने पर इसने अपना गोयज्ञ उसी क्षण बन्द कर दिया । यज्ञ में पशुओं की आहुति देने के बाद, उनकी बची हुयी चमडी यह नजीक ही स्थित नदी में फेंक देता था, जिस कारण उस नदी लो चर्मण्वती (चमडी को धारण करनेबाली) नाम प्राप्त हुआ था
[म. अनु. १२३.१३] ।
रंतिदेव (सांकृत्य) n. इसने अपनी सारी संपत्ति दान में दी थी
[म. द्रो. परि. १. क्र. ८. पंक्त्त. ६९५] । इसका नियम था कि, इसके यहाँ आया हुआ अतिथि विन्मुख न लौटे । इसके इस नियम के कारण, इसके परिवार को काफी कष्ट सहने पडते थे । एक बार तो ४८ दिनों तक इसके परिवार के सदस्यों को भूखा रहना पडा । अगले दिन यह अन्नग्रहण करनेवाला ही था कि, शूद्र एवं चाण्डाल अतिथि इसके यहाँ आ पहूँचे । फिर उस दिन भी भूखा रह कर इसने अपना सारा अन्न उन्हें दे दिया
[भा. ९.२१] । अपने गुरु वसिष्ठ को विधिवत् अर्ध्यदान करने के कारण इसे स्वर्गप्राप्ति हो गयी
[म. शां. २६.१७] ;
[अनु. २००६] ।
रंतिदेव (सांकृत्य) n. रंतिदेव राजा के एवं इसके भाई गुरुधि के वंशज जन्म से क्षत्रिय हो कर भी ब्राह्मण बन गयें । इस कारण वे ‘सांकृत्य ब्राह्मण’ कहलाते थें । कलोपरान्त ये आंगिरस कुल में शामिल हो गये, जिसके एक गोत्रकार के नाते उनका निर्देश पाप्त है
[वायु. ९९.१६०] ।