उपरिचर (वसु) n. (सो. ऋक्ष.) यह कुरुवंश के सुधन्वा की शाखा के कृतयज्ञ या कृति का पुत्र है (सुधन्वन् देखिये) । इसने यादवों से चेदि देश जीत लिया तथा चैद्योपरिचर अर्थात् चैद्यों का जेता यह नाम स्वयं लिया
[वायु. ९४] ;
[ब्रह्मांड. ३.६.८] ;
[ह. वं.१.३० ब्रह्म.१२] ;
[म.आ.५७] । उपरिचर इसकी पदवी है तथा वसु इसका नाम है । उपरिचर शद्ब की भांति ही अंतरिक्षग, आकाशस्थ, ऊर्ध्वचारी आदि शब्द इसके लिये प्रयुक्त है । यह सदा विमान में बैठ कर आकाश में विचरण करता था, ऐसा इसके बारे में वर्णित है । इसके गले में इंद्रमाला के कारण इसे इंद्रमाली कहते थे । इसकी स्त्री गिरिका । इसने तप कर इंद्र को संतुष्ट किया । इंद्र ने इसे स्फटिकमय दिव्य विमान दिया तथा जिसके कमल कभी नहीं मुरझायेंगे ऐसी इंद्रमाला नामक वैजयंती अर्पण की और कहा कि, तुम्हे पृथ्वी पर धर्माचरण करने के बाद पुण्यलोक प्राप्त होगे; इस लिये तू चेदि देश में वास्तव्य कर । वैजयंती के प्रभाव से युद्धभूमि में शस्त्रों के व्रण होने का डर नहीं था । इंद्र ने तत्पश्चात् साधुओं के प्रतिपालनार्थ बॉंस की छडी दी । संवत्सर की समाप्ति के दिन राजा ने उसका थोडा हिस्सा जमीन में गाड दिया, तभी से यह रीति राजाओं में अभी भी रुढ है । वर्षप्रतिपदा के दिन इसे छडी को वस्त्रभूषणों से सुशोभित कर, तथा गंधपुष्पों से अलंकृत कर उच्चस्थान पर आरोहित करते हैं । राजा वसु के प्रीत्यर्थ हंस रुप धारण किये ईश्वर की इस यष्टि द्वारा राजा लोग बडे आदर से विधिपूर्वक पूजा करते है । इस उत्सव की प्रभा राजा ने फैलाई, यह देख इंद्र ने ऐसा वर दिया जो राजा चेदिराजा की तरह मेरा उत्सव करेगा, उसके राज्य में अखंड लक्ष्मी का वास होगा तथा जन संतुष्ट रहेंगे । नगर के पास से बहनेवाली शुक्रिमती नदी को कोलाहल नामक पर्वत रोक रहा है, यह देख राजा ने पर्वतपर एक पदप्रहार किया तथा उसमें एक विवर निर्माण कर, नदी के लिये मार्ग बना दिया । पर्वत की उतनी संगति के कारण नदी को एक जुडवा (एक पुत्र एवं एक पुत्री) हुआ । नदी ने कृतज्ञ हो, पुत्र तथा पुत्री राजा को अर्पण की । राजा ने पुत्र को अपना सेनापति बनाया तथा उस पुत्री के साथ पाणिग्रहण किया । यही गिरिका थी । वह शीघ्र ही नवयुवती हुई परंतु ऋतुदान के दिन राजा को पितरों ने मृगया हेतु वन में जाने की आज्ञा दी । आज्ञानुसार राजा मृगया हेतु गया । परंतु अत्यंत कामोत्सुकता के कारण उसका रेत स्खलित हुआ, जिसे उसने एक दोनें में रखा तथा एक श्येन पक्षी को अपनी भार्या के पास ले जाने को कहा । वह पक्षी ले कर जा रहा था कि, राह में एक दूसरे बुभुक्षु श्येन पक्षी ने उस पर हमला कर दिया । इस संघर्ष में वह दोन यमुना नदी में गिर पडा तथा अद्रिका नामक मत्स्यी को मिला । यह मत्स्यी एक शापभ्रष्ट अप्सरा थी । दस महीने के बाद एक धीवर के द्वारा पकडी गयी । उसे काटते ही पेट से एक लडका एवं एक लडकी निकली । तब धीवर उन्हें राजा के पास ले गया तथा सारी कथा कह सुनाई । राजा ने लडके का नाम मत्स्य रख, उसे अपने आप रखा तथा लडकी एक धीवर को दे कर उसका लालनपालन करने की आज्ञा दी । यही सत्यवती (मत्स्य.गंधा) है । उपरिचर वसु के पांच पुत्र थे । बृहद्रथ, प्रत्यग्रह, कुशांब, मणिवाहन (मावेल्ल) तथा यदु । इसने अपने पुत्रों को अलग अलग राज्य दिये
[म.आ.५७.२८-२९] । इसके पुत्रों में मत्स्य तथा काली नाम हैं । बृहद्रथ ने मगध में बार्हद्रथ कुल की स्थापना की । कुशांब को (मणिवाहन) कौशांबी, प्रत्यग्रह को चेदि, यदु को करुष तथा पांचवे मावेल्ल को मत्स्य देश मिला
[म. द्रो. ९१] । यह पूर्व जन्म में अमावसु पितर था । एक समय इंद्र तथा महर्षियों का यज्ञ में, पशुहिंसा विहित या अविहित है इस पर विवाद हुआ । इतने में वहां उपरिचर वसु का आगमन हुआ । सत्यवक्ता होने के कारण इस से विवाद का निर्णय पूछा गया । इसने इंद्र का पक्ष ले कर पशुवध के अनुकूल मत दिया । तब ऋषियों ने शाप दिया कि, तुम्हारा अधोलोक में पतन होगा । शाप मिलते ही यह रसातल में पतित हुआ
[मत्स्य.१४२] । महाभारत में यह वाद, अजवध करना चाहिये या बीज उपयोग में लाना चाहिये, ऐसा था । उस समय उपरिचर वसु अंतरिक्ष में मार्गक्रमण कर रहा था । तब ऋषियों ने निर्णयार्थ इसे बुलाया । दोनों पक्षों की बात समझ लेने पर, वसु ने देवताओं का पक्ष लिया तब ऋषियों ने शाप दिया कि, चूँकि देवताओं का पक्ष ले कर्म तुमने अनृत भाषण किया है, इसलिये तुम्हें पृथ्वी के गर्भ में प्रवेश करना पडेगा । तदनुसार यह राजा अधोमुख हो पृथ्वी के विवर में घुसा। परंतु नरनारायण की कृपा से नारायण का मंत्र जप कर, तहा पंचमहायज्ञ कर इसने नारायण को संतुष्ट किया । अंत में विष्णु की आज्ञानुसार गरुड ने आ कर इसे शापमुक्त किया तथा पहले की तरह इसे अंतरिक्ष में मार्गक्रमण करने के लिये समर्थ बनाया । यह बृहस्पति का पट्ट शिष्य हुआ । उसके पास से इसने चित्राशिखंडी संज्ञक सप्तर्षियों द्वारा रचित शास्त्र का अध्ययन किया । इसने अश्वमेध यज्ञ किया, जिसमें बृहस्पति ने होतृत्व स्वीकार किया था । इसमें पशु वध नहीं हुआ । इसे यज्ञ में इसे नारायण ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया । इस निष्ठावान राजा को महीतल छोडने पर तत्काल परमपद प्राप्त हुआ
[म.शां. ३२२-३२४] । अरिका नामक अप्सरा के साथ एक बार यह विमान पर से जा रहा था । सोमपट्ट में रहने वाले पितरों की मानसकन्या अच्छोदा ने, इसे देख कर इसे अपना पिता माना, तथा इसने भी उसे कन्या रुप में स्वीकार किया । यह देख कर उसके पीता ने इसे शाप दिया कि तुम इस अप्सरा सहित पृथ्वी पर जाओगें तथा तुम्हें यह कन्या होगी । यह सुनते ही वसु ने उसके चरण पकड लिये । तब उन्होंने कहा कि, तुम पृथ्वी पर कृतयज्ञ का पुत्र हो कर भगवानाराघना कर वैकुंठ पद प्राप्त करोगें तथा अच्छोदा, अद्रिका के उद्नर से काली नाम से जन्म लेगी । यही सत्यवती है
[स्कंद २.९.४-७] ;
[मत्स्य. ५०] ।