अध्याय दूसरा - श्लोक १ से २०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


इसके अनंतर स्वप्न आदिकी विधिको कहते है, गणेश लोकपाल विशेषकर पृथ्वी और ग्रह इनका कलशके उपर मंत्रशास्त्रके अनुसार पूजन करके ॥१॥

सामर्थ्यके अनुसार सामग्नियोंका संचय करके शुध्द देशमें कुशासनपर बैठे और भूमिमें शुध्द वस्त्रके ऊपर शिरके स्थानमें लक्ष्मीका पूजन भली प्रकार करै ॥२॥

पद्मा भद्रकाली इनको बलि देकर और सब बीज सर्व रत्न्र और सर्वोषाधियोंसे युक्त ऎसे घटोंको ॥३॥

अपने दोनों तटोमें रक्खे जो रमणीक नवे और शुध्द जलसे युक्त हों और पुष्पोंका संचय करके स्वतिवाचनको करके ॥४॥

सावधान हो शुध्द और सूक्ष्म रेशमके वस्त्रोंको धारणकिये जितेद्रिय हुआ पुरुष पूर्वाभिमुख होकर ‘ रुद्र रुद्र ’ इस प्रकार कहक्र ह्दयमें रुद्र्विधिको जपे ॥५॥

और छ: ऋचा हैं जिसमें ऎसे रुद्रजपको सावधान होकर करावे ॥६॥

दूसरा यह है कि, दूकूल मोती इनको धारण करके मंत्री ज्योतिषी पुरोहित सहित राजा अपने देवताके मन्दिरमें प्रवेश करके वहां दिशाओंके ईश्वरोंकी पूजाका स्थापन करे ॥७॥

और पुरोहित मन्त्रोंसे उस पूजाको करके उस संस्कृत भूमिमें कुशाओंके मध्यमें कियेहुए अक्षत और सफ़ेद सरसोंको बखेरे ॥८॥

ब्राम्ही दूब नागयूथी इनको भी बख्ररे फ़िर राजा तकिया लगाकर पुष्प फ़लोंसहित पूर्ण घटोंको क्रमसे चारों दिशाओंको रखकर शयन करै ॥९॥

और ‘ यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवम ’ इत्यादि मंत्रोंको सावधानीसे पढताहुआ और एकबार लघु भोजन करता और दक्षिणपार्श्वसे सोताहुआ राजा गुरुकी आज्ञाके अनसार स्वप्नकी परीक्षा करे ॥१०॥ हे शंभो त्रिनेत्र रुद्र ! सोतेहुए मुझ सदैव वांछित फ़लको कहो ॥१२॥

एक वस्त्र धारणकिये कुशाके आसनपर सावधान मनसे सोताहुआ राजा रात्रिके अन्तमें शुभ वा अशुभ स्वप्नको देखता है ॥१३॥

चौकार समान शुध्द भूमिको यत्न्रसे इकसार करके उसमें वृत्तके मध्यकी दिशामें दिशाका साधन करै ॥१४॥

पूर्वकी तरफ़ भुमिको निचान होय तो लक्ष्मी, अग्निकोणमें होय तो शोक, दक्षिणदिशामें होय तो मरण, नैऋत दिशामें होय तो महाभय ॥१५॥

पश्चिममें होय तो कलह, वायव्य दिशामें होय तो मृत्युको, उत्तरको होय तो वंशकी वृध्दि, ईशानमें होय तो रत्न्नोंके संचयको कहे ॥१६॥

जिस भूमिकी निचाई दिड.मूढ हो अर्थात किसी दिशाको न होय तो कुलका नाश और जो टेढी होय तो दरिद्रताको कहै ॥

अब समयकी शुध्दिका वर्णन करते हैं- जो मनुष्य चैत्रमें नवीन गृहको बनवाता है वह व्याधिको प्राप्त होता है, वैशाखमें धन और रत्न्नोंको ज्येष्ठमें मृत्युको प्राप्त होता है ॥१७॥

आषाढमें भृत्य और रत्न्नोंको और पशुओंके नाशको प्राप्त होता है, श्रावणमें मित्रके लाभको और भाद्रपदमें हानिको प्राप्त होता है ॥१८॥

आश्विनमासमें युध्दको, कार्तिकमें धन धान्यको, मार्गशिरमें धनकी वृध्दि, पौषमें चोरसे भयको प्राप्त होता है ॥१९॥

माघमासमें अग्निका भय, फ़ाल्गुनमें लक्ष्मी और वंशकी वृध्दिको प्राप्त होता है, मेषके सूर्यमें गृहका स्थापन होय तो शुभदायी होता है ॥२०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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