मध्यकोष्ठके विषे जो प्रश्न होय तो वक्ष: ( छाती ) के नीचेके प्रमाणसे केश कपाल मनुष्यके अस्थि लोहा ये जानने. ये मृत्युके कर्ता होते है ॥२१॥
मन्त्र यह है कि- " ॐ ह्रीं कूष्मांडि कौमारि मम ह्रदये कथय कथय ह्रीं स्वाहा " इक्कीसवार इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित ( पढना ) करके प्रश्नको लावे और इसमें दिशा सूर्योदयसे गिननी, जलके अन्ततक वा प्रस्तरके अन्तपर्यंत वा पुरुषके अन्ततक ॥२२॥
क्षेत्रको भलीप्रकार शोधकर शल्यका उध्दार करके स्थानका प्रारंभ करे. धातु काष्ठ अस्थि इनसे पैदा हुए शल्य अनेक प्रकारके कहे है ॥२३॥
हे द्विजोंमें उत्तम ! परीक्षा करके घरका प्रारंभ करना. जब घरके प्रारंभ कर्ममें शल्य न जानाजाय ॥२४॥
तो फ़लके पाक होनेपर अर्थात कष्ट आदिके होनेपर कर्मके ज्ञाता शल्यको जानलें कि, शल्यसहित वास्तुके स्थानमें पहिले दुष्ट स्वप्न दीखता है ॥२५॥
हानि वा अत्यंत रोग और धनका नाश उस दु:स्वप्नसे होता है. अन्य भी वास्तुके शल्योंको संक्षेपसे कहताहूं ॥२६॥
जिस घरमें सात दिनतक रात्रिके समयमें गौ शब्द करे वा गोष्ठमें बन्धकी शब्द करे और जिसमें हाथी अश्व शब्द करे वा घरके ऊपर श्वान शब्द करें ॥२७॥
अथवा जिस घरमें वनका मृग निडर होकर प्रविष्ट होजाय वा श्येन कपोत व्याघ्र वा गीदड प्रविष्ट हो जायँ ॥२८॥
गीध वा कालसर्प वा शुक ( तोता ) जो जंगलका हो वह मनुष्यके अस्थि लेकर किसी हेतुसे प्रविष्ट हो जाय ॥२९॥
जो घर वज्रसे दूषित हो, जो पवन और अग्निसे दूषित हो, यक्ष वा राक्षस वा पिशाच प्रविष्ट होजायँ ॥३०॥
वा रात्रिके समयमें काक वा भूतको ताडना दीजाय जिस घरमें रात्रि दिन कलह हो वा युध्द हो ॥३१॥
उस पूर्वोक्त दु:शकुनवाले घरमें भी शल्य जाने, जो अन्य घरके दोष हैं उनमें और काष्ठके दीखनेमें भी और काष्ठोंके व्यत्ययमें भी शल्यको जाने ॥३२॥
गौका शल्य वा अन्य कोई शल्य जिस स्थानमें हो वहां शल्यके उध्दारको करे वंशआदिका जो शल्य हो और द्वारमार्गका जो शल्य हो ॥३३॥
बाह्य जो वेधका शल्य हो उसको भी शल्योध्दार नष्ट करता है जिससे अनेक प्रकारके शल्योंका ज्ञान मनुष्योंको नहीं होसकता तिससे ॥३४॥
हितके अभिलाषी मनुष्य शल्योध्दारको अवश्य करे, पहिले दिन विधिसे वास्तुपूजा करे ॥३५॥
सुन्दर दिनमें शुभ नक्षत्रमें और चन्द्र्ताराके बलसे युक्त शुध्द कालमें द्विजोंमें उत्तम शल्योध्दारको करे ॥३६॥
समान चिकनी हाथभरकी दृढ स्थानके शुभ चौकोर स्थानके त्रिभागमें वर्तमान पट्टिकाओंसे बनाई हो ऐसी शिलाको बनवावे ॥३७॥
उतने ही प्रमाणकी आधारशिलाको विधानका ज्ञाता बनवाकर उसके मस्तकको नन्दामें कहा है, और भद्रा नामकी शिलामें दक्षिण हाथ कहा है ॥३८॥
उसके वाम करमें रिक्ता कही है जयामें उसके चरण कहे हैं नाभिदेशमें पूर्णा जाननी, उसका सम्पूर्ण अंग वास्तुपुरुषरुप है ॥३९॥
संपूर्ण देवस्वरुप वास्तुपुरुष सबको शुभकारी होता है बुध्दिमान मनुष्य मध्यप्रदेशमें तिस एक शिलाका स्थापन करवावे ॥४०॥