अध्याय बारहवाँ - श्लोक ६१ से ७९

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।

 


हे नन्दे ! तू आनन्द कर ! हे वासिष्ठे ! हे प्रजाके हितकारिणी ! इस गृहके मध्यभागमें तू टिक और सब कालमें सुखकी दाता हो ॥६१॥

हे भद्रे ! तू पुरुषोंको भद्र ( कल्याण ) की दाता है हे काश्यपनंदिनि ! तू अतुल आयु आरोग्यको कर और सम्पूर्ण शल्योंका निवारण कर ॥६२॥

हे जये ! तू भार्गवकी पुत्री है इससे प्रजाओंके हितको कर । हे देवी ! आपका यहां स्थापन करता हूं तू संपूर्ण शल्योंका निवारण कर ॥६३॥

हे रिक्ते ! तू रिक्त दोषको नाशकरनेवाली है. हे सिध्दिकी दाता और सुखदाता हे शुभे हे सबकालमें सब दोषोंकी नाशक हे अत्रिकी नन्दिनी ( पुत्री ) ! इस गृहमें तू टिक ॥६४॥

हे अव्यंगे अर्थात नाशरहिते हे अक्षते हे पूर्णे हे अंगिरामुनिकी पुत्री हे इष्टके ! तू इष्टको दे और गृहस्थियोंके शुभको कर ॥६५॥

तांबेके कुम्भको गर्तमें डारे और शिला दीपको भी उसीमें गेरकर गीत और वादित्रके शब्दको करके उस गर्तको मिट्टीसे पूर्ण कर दे ॥६६॥

शिलाके कुम्भका ह्रदयपर स्पर्श करके इन मन्त्रोंको उच्चारण करे- हे वास्तुपुरुष हे भूमिशय्यामें रमणके कर्ता हे प्रभो ! आपको नमस्कार है ॥६७॥

मेरे घरको धन और धान्य आदिसे समृध्द ( पूर्ण ) सब कालमें करो. हे नागनाथ हे शल्यके उध्दार करनेमें समर्थ ! आपको नमस्कार है ॥६८॥

तू वास्तुपुरुष है और विश्वका धारण कर्ता है इससे प्रजाओंका हित कर. हे पृथिवी ! तू लोकोंको धारण करती है हे देवी ! तुझे विष्णुने धारण किया है. देवी ! तू मुझे धारण कर और आसनको भी पवित्र कर ॥६९॥

गणपति आदि लोकपाल और देवता दिक्पाल ये सब आयुध ( शस्त्र ) और गणों सहित होकर मेरे घरको शुध्दकरो ॥७०॥

इन मन्त्रोंको पढकर फ़िर बलि दे वह बलि राक्षस पिशाच गुह्यक उरग पक्षी इनको दे ॥७१॥

भूतोंको और यक्षोंके गणोंको, ग्रामके वासी देवताओंको विधिका ज्ञाता आचार्य पूर्वोक्त आगमके मन्त्रोंसे उक्त बलिको दे ॥७२॥

यह कहै कि, सम्पूर्ण देवता बलिको ग्रहण करे और तृप्त होकर मेरे शल्यको हरो. आठ कुंभोके जलसे उस गृहोंको सींचे ॥७३॥

तीन प्रकारके भेद, उत्पात और दारुण ( भयानक ) ग्रहके उत्पात ये सब उस घरमें नष्ट हो जाते हैं शल्यका उध्दार किया हो ॥७४॥

आचार्यको गौ दे, ऋत्विजोंको दक्षिणा दे, दान और मानसे ज्योतिषी और रथपतिको संतुष्ट करके ॥७५॥

अन्योंको भी अपनी शक्तिके अनुसार दक्षिणासे विधिपूर्वक पूजन कर दीन अंधे कृपण और विशेषकर लिंगी अर्थात ब्रम्हचारी वा संन्यासी ॥७६॥

गायक और अन्य नट आदिकोंको दक्षिणा दे अपनी शक्तिके अनुसार अपने घरमें ब्राम्हणोंको भोजन करावे ॥७७॥

फ़िर बन्धुओंके संग भोजन करे उस मन्दिरमें सुखसे विहार करे, हे ब्राम्हणो ! इस प्रकार जो मनुष्य़ अपने घरमें शल्योध्दार करता है ॥७८॥

वह सुखका भागी और दीर्घजीवी होता है पुत्र और पौत्रोंको प्राप्त होता है ॥७९॥

इति पंडितमिहिरचन्द्रकृतभाषाविवृतिसहिते वास्तुशास्त्रे शल्योद्वारनिर्णयो नाम द्वादशोऽध्याय: ॥१२॥

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Last Updated : January 20, 2012

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