वह सर्वत्र विजय प्राप्त करता है , वीर मार्गगामियों का प्रिय पात्र होता है । किं बहुना , सभी देवता उसके वश में हो जाते हैं और समस्त मानव तो उसके वश में रहते ही हैं । ब्रह्माण्ड में रहने वाले सभी उससे संतुष्ट रहते हैं , इसमें संशय नहीं । किं बहुना , इस भूलोक में जो देवता के तुल्य पराक्रम वाले हैं , वे सभी उसके भृत्य के समान हो जाते हैं । हे कुलेश्वर ! यह सत्य है यह सत्य
है । कुमारी के होम से यज्ञ करने से साधक को अनायास सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥१५१ - १५३॥
कुमारी मन्त्र के जप से और कुमारी कवचादि तथा कुमारी स्तोत्रादि के पाठ मात्र से बिना यज्ञ के , बिना दान के तथा बिना जप के साधक को समस्त फल प्राप्त हो जाते हैं । जो कोई कुमारी के अष्टोत्तर सहत्र संख्यक नाम स्तोत्र का पाठ करता है , उसे बड़ी शीघ्रता से शान्ति प्राप्त हो जाती है । इसलिए इस कन्या ( के सहस्त्रनाम ) स्तोत्र का अवश्य पाठ करना चाहिए ॥१५४ - १५५॥
इस स्तोत्र के तीन बार पाठ करने से राजा भी वश में हो जाते हैं । मन्त्रवेत्ता साधक इसके एक बार भी पाठ करने से धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष का अधिकारी हो जाता है । विद्वान् पुरुष को यदि पुत्र की इच्छा हो तो प्रतिदिन तीन बार के क्रम से अथवा प्रतिदिन एक बार के क्रम से इसका पाठ करना चाहिए ॥१५६ - १५७॥
मन्त्रवेत्ता साधक आधे वर्ष पर्यन्त पाठ करने से धन रत्नों का अधिपत्य तथा समस्त प्रकार के वित्तों का स्वामित्व प्राप्त कर लेता है । किं बहुना , वह सारे त्रिलोकी को भी मोहित कर लेता है । जो साधक भक्तिभावपूर्वक एक संवत्सर पर्यन्त कुमारी सहस्त्रनाम का पाठ करता है , वह चिरञ्जीवि तथा आकाशगामी बन कर योगी बन जाता है ॥१५८ - १५९॥
उसका मन स्थिर हो जाता है और उसे दूर स्थित वस्तु का मानस साक्षात्कार होने लगता है । जो बुद्धिमान् साधक स्त्री मण्डल के मध्य में स्थित हो कर शक्ति से युक्त हो इसका पाठ करता है , वह श्रेष्ठ साधक बन जाता है । वह दुग्ध से सम्पन्न तथा कल्पवृक्ष के समान हो जाता है । हे नाथ ! जो कुमारी भाव से संयुक्त शरीर होकर सदैव इसका पाठ करता है , वह साधक अपने दर्शन मात्र से सबको स्तम्भित कर सकता है । वह जलादि का भी स्तम्भन करने में समर्थ हो जाता है । किं बहुना , अग्नि आदि को भी स्तम्भित करने की शक्ति उसमें आ जाती है ॥१६० - १६२॥
कुमारी सहस्त्रनामस्तोत्र का पाठ करने वाला वायु के समान वेगवान् हो जाता है । वह निश्चय ही महावाग्मी तथा वेदज्ञ हो जाता है , कविकुलशिरोमणि , महाविद्वान् तथा दूसरे के वेग को रोकने वाला और पण्डित हो जाता है । वह सारे देशों का अधिपत्य प्राप्त कर स्वयं देवीपुत्र ( महाभैरव के समान ) बन जाता है तथा कान्ति , यश , श्री सहित वृद्धि प्राप्त करता है । वह बलसम्पन्न तथा सबको नियन्त्रित करने वाला हो जाता है ॥१६३ - १६४॥
हे नाथ ! जो अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए इसका पाठ करता है वह अष्टसिद्धियों से युक्त हो जाता है । उज्जट ( कुटीर ) ! अरण्य के मध्य में , पर्वत में , घोर वन में , साधारण वन में , प्रेतभूति ( श्मशान ) में , शव के ऊपर बैठकर , महारण्य मे , ग्राम में , उजाड़ घर में , शून्य घर में , नदी तट पर , गङ्का के बीच किसी सिद्ध शाक्तपीठ में , योनि पीठ पर , गुरु - गृह में , धान्य से परिपूर्ण क्षेत्र में , देवालय में , कन्यागार में , कुलालय ( शाक्त स्थान ) में , प्रान्तर ( एकान्त ) में , गोशाला में , राजादि के भय से मुक्त स्थान में निर्भय स्थान में , स्वदेश में , शिवलिङ्कालय में , भूतगर्त्त ( गुफा ) में , एकलिङ्र में , शून्य स्थान में , बाधारहित कुल में , अश्वत्थमूल , बिल्ववृक्ष के नीचे , कुल ( शाक्त ) वृक्ष में , तथा अन्य सिद्धिप्रदेश में , साधक अथवा शाक्तजन दिव्य अथवा वीरभाव में रह कर कुमारी मत्र से कुलाकुल परम्परानुसार अनेक प्रकार के कुलद्रव्यों तथा सिद्धद्रव्यों से , मांस से , आसव से अथवा मुक्तक के रस से हवन करें । फिर हुतशेष , कुलद्रव्यों को कुमारियों को नैवेद्य रूप में प्रदान करें । तदनन्तर उनके नैवेद्योच्छिष्ट द्रव्य को लाकर लालवर्ण के कमल में हवन कर दें । फिर स्थिर चित्त हो घृणा और लज्जा का परित्याग कर उस मांस रस को स्वयं पी जएं । ऐसा करने से मन्त्रज्ञ साधक सदैव आनन्दित रहता है और महा बलवान् हो जाता है ॥१६५ - १७३॥
उन्हें महामांसाष्टक तथा मदिरा से परिपूर्ण घट तार ( ॐ ) माया ( ह्रीं ) रमा ( श्रीं ) वहिनजाया ( स्वाहा ) मन्त्र पढ़कर निवेदित करे ॥१७४॥
फलश्रुति - इस प्रकार की विधि से नैवेद्य समर्पण कर कुमारी के स्तोत्र मङ्रल का पाठ कर स्वयं प्रसाद का भक्षण करें । ऐसा करने से साधक सभी महाविद्याओं का स्वामी बन जाता है ॥१७५॥
जो लोग शूकरा के एवं उष्ट्र के मांस तथा मोटी - मोटी मछली , मुद्रा और महासव से परिपूर्ण घट निवेदन कर इस स्तोत्र का पाठ करते हैं , उन्हें निश्चय ही बिना होम जाप किए ही सर्वत्र अव्याह्त गति प्राप्त हो जाती है तथा वे महाकालात्मक रुद्र का स्वरुप बन जाते हैं ॥१७६ - १७७॥
हे नाथ ! ऐसा साधक क्षण मात्र में सभी पुण्यों का फल प्राप्त कर लेता है । वह क्षीर समुद्र में रहने वाले समस्त रत्नकोशों का स्वामी बन जाता है । इतना ही नहीं सारे आकाश मण्डल में व्याप्त होकर वह योगिराट् हो जाता है ॥१७८॥
वह भक्ति का आहलाद , दया का समुद्र तथा निष्कामता को निश्चित रुप से प्राप्त करता है । महाशत्रु के द्वारा उत्पन्न विपत्ति में तथा महाशत्रु द्वारा भय से परिपीड़ित होने पर साधक एक बार के पाठ मात्र से अपने शत्रुओं का वध कर देता है । वहह अपने समस्त शत्रुवर्गों का इस प्रकार विनाश कर देता है जिसा प्रकार सूर्य अन्धकार समूहों को विनष्ट कर देते हैं ।
उच्चाटन में , मारण में , भय उपस्थित होने पर अथवा महाभयङ्कर शत्रु के द्वारा सताये जाने पर इसके पाठ से अथवा इसके धारण से मनुष्य विपत्ति से छूट जाता है । किं बहुना , देवता अथवा राक्षसादिक कुमारी सहस्त्रनाम के पाठ मात्र से बहुत शीघ्र शान्त हो जाते हैं । पुरुष अपने दाहिने हाथ में , स्त्री अपने बायें हाथ में , इस सह्स्त्रनाम को धारण करने से पुत्रादि सम्पत्ति प्राप्त कर लेते हैं इसमें कोई संशय नहीं है ॥१७९ - १८३॥
हे नाथ ! मेरी आज्ञा से इसका पाठ करने वाला साधक मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यह सहस्त्रनाम गजान्तक है । यदि मनुष्य भक्ति भाव में तत्पर हो कर इसका पाठ करे तो उसका सर्वत्र फलोदय हो जाता है ॥१८४॥
यह सहस्त्रनाम सभी स्तवों में श्रेष्ठ है , सभी का स्थिर तत्त्व है , परानन्द देने वाला है , उत्तम फल का योग करने वालों को यह मोक्ष प्रदान करता है , जो चिन्तायुक्त एवं व्याकुलचित्त वाले जन इसके विशिष्ट फलयुक्त अर्थ का अनुसन्धान करते हुए आनन्दपूर्वक नित्य इसका पाठ करते हैं , वे सर्वदा कीर्तिकमल को प्राप्त करने में समर्थ हो जाते हैं । वे विजय में श्रीराम के सदृशा हो जाते हैं । किं बहुना , रुपा एवं गुण में कामदेव के समान रुपवान् तथा गुणवान् बन जाते हैं और क्रोध में रुद्र के समान भयङ्कर हो जाते हैं ॥१८५॥