याज्ञिक के लक्षण --- यज्ञ में परायण , ब्राह्मण वृत्ति से रहने वाला , धीर सदाशिव में प्रेम की अभिलाषा वाला , नवीन वृक्ष से सृशोभित वन में या घोर अरण्य में अकेला रह कर जीवात्मा तथा परमात्मा में योग धारण करने वाला ’ याज्ञिक ’ है । वायु और अग्निरेचक हैं । सूर्य तथा चन्द्रमा पूरक हैं ॥४२ - ४३॥
जलती हुई शिखा ही सूर्य स्वरुपा हैं । उसे बिना युक्त किए जो पुनः पूरक योग करता है , और चन्द्रमा के तेज से उत्पन्न छवि को जो ऊपर की ओर ज्वाला वाली वायवी शक्ति के बल से चञ्चल एवं जलती हुई अग्नि में जो नित्य होम करता है ऐसा मौन धारण करने वाला साधक ’ याज्ञिक ’ कहा जाता है ॥४४ - ४५॥
जीव रुपी सूर्याग्नि के किरण रुप शरीर में आत्म चन्द्र रुपी अपूप से जो होम करता है वह ’ याज्ञिक ’ कहा जाता है । सुरा शक्ति है और मांस शिव है , उन दोनों का भोक्त स्वयं भैरव हैं । अतः जो शक्ति रुप अग्नि में मांस का हवन करता है वह ’ याज्ञिक ’ कहा जाता है ॥४६ - ४७॥
विधि निर्मित ’ कुल ’ कुण्ड में तथा ’ कुलात्मक वहिन ’ में जो शिवात्मक द्रव्यों से पूर्ण होम करता है वह ’ याज्ञिक ’ कहा जाता है । भूमण्डल में धर्मशील रहकर या निर्जन में अथवा गृहस्थाश्रम में रह कर जो दृढ़भक्ति से ’ जीवसार ’ का जप करता है वह सच्चा धार्मिक है ॥४८ - ४९॥