आनन्दभैरवी उवाच
आनन्दभैरवी ने कहा --- हे आनन्द के ईश्वर ! हे रुद्रदेव ! अब तृतीय दल का लक्षण सुनिए । वह नीचे की ओर रहने वाला , तमोगुण से व्याप्त सामवेद नामक चक्र है । वह वर्ण समूहों से परिपूर्ण है । वह रुद्र रुप धारण करने वाला महेश्वर है । वह लय का स्थान तथा कामना के अनुसार रुप वाला है । इस प्रकार तीसरा दल परमानन्द का मन्दिर भी है ॥१ - २॥
अग्नि को धारण करने वाले ऐसे सुख स्थान का ध्यान कर साधक योगिराज होता है । वह स्थान योगियों का धर्म स्थान है तथा गुरु की आज्ञा के समान फल देने वाला है । गुरु का ध्यान श्री गुरु का पदाम्बुजभूत वह स्थान भ्रु के मध्य में है जिसमें द्विदल कमल का निवास है । धीरे - धीरेवायु के समान तेजस्वी उस स्थान का साधक को बारम्बार ध्यान करना चाहिए ॥३ - ४॥
मन से , वाणी से , कर्म से तथा सूक्ष्म वायु स्वरुप से उसका ध्यान कर अपने शरीर में उसका लय करने से सधाक का शरीर सर्वदा प्रसन्न रहता है । जिस प्रकार का ध्यान सहस्त्र दल कमल में किया जाता है उसी प्रकार इस द्विदलाम्बुज में भी गुरु का ध्यान करना चाहिए । वे गुरु आत्मस्वरुप , ईशान स्वरुप , देवाधिदेव सनातन हैं । अतः गुरु अकस्मात् सिद्धि देने वाले योग के आठ अङ्कों का फल देने वाले हैं ॥५ - ७॥
विमर्श --- योगश्चासौ अष्टङ्रश्च तस्य फलं प्रददाति इति कप्रत्ययान्तोऽयं शब्दः ।
वह नित्य हैं । शब्द स्वरुप हैं । सभी प्रमाणों के विषय हैं और नित्य उपमेय गुरु है , उनके शरीर की कान्ति चन्द्रमा के समान देदीप्यमान हैं तथा मुख पङ्कज सैकड़ों चन्द्रमा के समान प्रसन्न रहने वाला है । वे सभी के प्राणों में रहने वाले , गतिमान् पदार्थों वाले तथा अचल हैं । वे गुरु ज्ञान रुपी समुद्र में निर्लिप रुप से रहते हैं । ऐसे रुढ़ आलस्य के गुणस्वरुप , लय स्वरुप , स्वात्म उपलब्धि वाले , अनिर्वाच्य तत्व वाले गुरु का मैं भजन करता हूँ ॥८॥
यदि साधक अपनी आत्मा में , जगत् के निर्विकार स्वामी गुरु रुप में कामशत्रु ईश्वर का , अत्यन्त सुन्दर स्वरुप वाले चन्द्रमा को धारण करने वाले तथा मनुष्य के पापकुलों को नष्ट करने के लिए अनल के समूह के समान परमात्मा का भजन करे जो उसे ईश्वर प्राप्त हो जाते है ॥९॥
विमर्श --- गुरु रुप ईश्वर की सुति में ९ से १४ तक के श्लोक द्रुतविलम्बित छन्द में निबद्ध हैं ।
गुरुपदाम्बुज --- हे गुरो ! यदि भक्त आप को प्रणाम करे तो आप उसे अपने समान बना लेते हैं । हमारे कुत्सित फल देने वाले कर्म को नष्ट कर देते हैं । इसलिए , हे नाथ ! इस भवसागर से अदभुत लीलापूर्वक पार करने वाले आपके पादाम्बुज का मैं भजन करता हूँ ॥१०॥
मैं मनुष्यों से भावना किए जाने वाले , अत्यन्त पवित्र , श्वेत कमल से विराजित गुरु के उन चरणों का आश्रय लेता हूँ . जो सुवर्णमय नूपुर से सुशोभित एवं खञ्जन के समान सुन्दर है और जो अत्यन्त सुन्दर चित्रकारी से युक्त मनोहर नख रुप चन्द्रमा से विरचित है ॥११॥
मैं रत्न खचित पर्वत के समान गुरु के उस पाद तल का भजन करता हूँ जो खलों का निग्रह करने वाला , भक्त का पालन करने वाला , संपूर्ण उत्तमोत्तम फल का पालन करने वाला , कोमल तथा निर्मल रक्तवर्ण के कमलों से मण्डित है ॥१२॥
जिस पाद तल का आसन अत्यन्त दिव्य कनक जटित हैं , जो भवसागर से उत्पन्न दुःख समूह का परिभव करने वाला है । हे प्रभो ! यदि आपके चरणों की कृपा मेरे जैसे पामर पर हो जावे तो मेरी रक्षा हो जावे । मैं इस प्रकार के आपके पाद तल का भजन करता हूँ। मैं संपूर्ण लक्षण से युक्त चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल एवं वृक्ष के नीचे रहने वाले तथा कमल के समान मुखवाले उन गुरु का आश्रय लेता हूँ , जो परमहंसों के मन्त्रस्वरुप है । शिव स्वरुप है . कलाओं के सहित , अक्षय धन वाले तथा सबके ईश्वर हैं ॥१३ - १४॥
यह गुरु का आज्ञाचक्र समस्त भुवन का कारण है , केवल अद्वैत है , सकार स्वरुप है , कामकली दी दृष्टी से नाद , इन्दु , तथा कुमुद युक्त ह्रदय वाला है , नवीन मधुर आमोद से मिले हुये वायु के लय स्थान में , वेद रुपी क्षेत्र के दल में , चन्द्रमा से रहित उस स्थान में , जो तमोगुण से समाक्रान्त है , अधोमण्डल मण्डित , द्विबिन्दु निलय वाले द्विदल में श्रीगुरु का पद है ॥१५ - १६॥
उस गुरु के पद के मध्य में महावहिन की ज्वाला के समान तेज का सुधी साधक को ध्यान करना चाहिए । इस योग के सिद्धि हो जाने पर वाग्भव बीज ( ऐं ) कूट के द्वारा साधक चिरजीवीं हो जाता है । पामर नर भी वागीशता प्राप्त कर लेता है । जहाँ श्री गुरु चरणकमलों से परामृत प्रवाहित होता रहता है , उस परामृत धारा मे कुल नायिका कुण्डलिनी का तर्पण करे । फिर बारम्बार उसे संकुचित करे , तथा जब तक वह प्रबुद्ध न हो तब तक उसका स्मरण करते रहना चाहिए ॥१७ - १९॥
सुधी साधक बारी - बारी के क्रम से ( आनन्दरुप ) पर रस का तथा वायु को ह्रदय से धारण करे । तदनन्तर उस अमृतधारा वाले पर ( श्रेष्ठ ) रस से कुल - नायिका - कुण्डलिनी को संतृप्त कर उसी से सर्वपुण्यफलस्वरुप अमृत धारा को पुनः पुनः गिराता रहे । हे प्रिये ! ऐसा करने से वह उत्तम साधक धन , रत्न तथा महालक्ष्मी प्राप्त करता है ॥२० - २१॥
ऐसा साधक युद्ध में , क्रोध में या ( मृत्यु रुप ) महाभय की स्थिति में सर्वत्र जय प्राप्त करता है ।किं बुहना , युद्ध में स्थित ( जीवित ) रहता है और वह सुशील अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है ॥२२॥