आनन्दभैरवी उवाच
आनन्दभैरवी ने कहा --- हे महादेव ! अब इसके अनन्तर अथर्ववेद का लक्षण कहती हूँ , जो शक्त्याचार से समन्वित समस्त वर्णों का स्थिरांश है । अथर्ववेद से तमोगुण वाला सामवेद उत्पन्न हुआ । पुनः उस सामवेद से समस्त महासत्त्व का उत्पत्ति स्थान भूत यजुर्वेद उत्पन्न हुआ । उस यजुर्वेद से रजोगुणमय ऋग्वेद उत्पन्न हुआ , जहाँ ब्रह्मदेव की स्थिति है ॥१ - ३॥
अथर्ववेद रुपिणी यह महाशक्ति मृणालतन्तु के सदृश है । इस अथर्व वेद में सभी वेद समस्त जलचर , खेचर तथा भूचर समाहित है । इसमें महाविद्यायें , अनय विद्यायें , कुल विद्या तथा समस्त महर्षिगण निवास करते हैं । समाप्त होने वाले वाले पत्र पर शेष सभी वस्तुयें हैं जो इस लोकमण्डल की सीमा से संयुक्त हैं । यह पत्र शक्तिचक्र से समाक्रान्त तथा कल्याण करने वाला दिव्यभावात्मक है ॥३ - ५॥
कारण वेद पत्र वाला यह अथर्व सबका तत्त्व है । वह दो बिन्दुओं के निलय का स्थान , ब्रह्मा , विष्णु , शिवात्मक यह शरीर तत्त्व चारों वेदों से युक्त है , इसकी दृढ़तापूर्णक की गई है ॥६ - ७॥
इस मनोहर शरीर में चौबीस तत्त्व हैं , इसकी रक्षा रजोगुण से आक्रान्त ब्रह्मदेव पूरक प्राणायाम से करते हैं । सत्त्वगुण से आक्रान्त विष्णुदेव स्थिरभावना वाले कुम्भक प्राणायाम से तथा तमोगुण से आक्रान्त सदाशिव रेचक के द्वारा इस शरीर की रक्षा करते हैं ॥८ - ९॥
कुण्डलिनी की महिमा --- अथर्ववेद के चक्र पर रहने वाली कुण्डलिनी परा शक्ति हैं । यही माया है जो ब्रह्मा , विष्णु तथा शिव से अलग रहती है । यह शरीर देवताओं का निवास स्थान है , जिसे सर्वदेवमयी , सर्व मन्त्र स्वरुपिणी यह कुण्डलिनी अपने भक्त को ही प्रदान करती है ॥१० - ११॥
यह सर्व यन्त्रात्मिका है । यह विद्या है तथा वेद विद्या का प्रकाश इसी से होता है । यह चैतन्य है । यह सब प्रकार के धर्मो को जानने वाली है तथा अपने धर्मस्थान पर निवास करती है । यह अचैतन्या एवं ज्ञानरुपा है । यह सुवर्ण के समान पीत वर्ण की चम्पकमाला धारण करने वाली , हैं और कलङ्क से रहित सर्वक्षा स्वच्छ एवं किसी के आधार पर न रहने वाली शुद्ध ज्ञान स्वरुपा तथा मन के समान वेगवती है ॥१२ - १३॥
यह सारे सङ्कटों का विनाश करने वाली है । वही शरीर की रक्षा भी करती है , यह समस्त विश्व उसी का कार्य है , उसी के पुण्य इस विश्व का विनाश भी करते हैं । महात्मा लोग उसी को सचैतन्य बनाने के लिए सदा व्याकुल हो कर यत्न करते रहते हैं यदि उसे सचेतन बना लेते है । तब उसके अनुग्रह से इस भूतल पर क्या सिद्ध नहीं होता ? छः महीने निरन्तर अभ्यास करते रहने पर यह कुण्डलिनी चेतना प्राप्त करती है ॥१४ - १६॥
यही वायवी शक्ति है जो सर्वदा परमाकाश में बहती रहती है । यह तारने वाली है । वेदों की जननी है तथा प्रतिदिन ( शरीर के ) बाहर जाती रहती है । मनुष्य की आयु १२ अंगुल के प्रमाण से नित्य संक्षरण करती है । इसलिए पुरुष को चाहिए कि वह १२ अंगुल के वायु का नित्य क्षय करता रहे । यह पर देवता स्वरुपा , कुण्डलिनी , जब जब बाहर जाती है तब तब खण्डलय होता रहता है , और पाप से छुटकारा मिलता रहता है
॥१७ - १९॥
हे महादेव ! जब यह सूक्ष्मरुपिणी अग्निदेवता वाली वायवी शक्ति वाह्म चन्द्र वाले सोम - मण्डल में संक्षरण नहीं करती तब तक कामरुप मूलाधार में यह चण्डिका बन कर शिखा के समान जलती रहती है । जब यह तेजोमयी शिरो मण्डल में स्थित सहस्त्र दल कमल में कामेश्वर सदाशिव अच्युत महादेव के समीप जाती है , तब साधक ज्ञानी एवं योगिराज बन जाता है ॥२० - २२॥
जब यह देवी मन को लीन करने वाले बाह्म चन्द्र में क्षरण करती हैं तब योगारम्भ करना चाहिए , जिससे यह शिरः प्रदेश से सहस्त्र दल पङ्कज में गमन करे । यदि सूक्ष्म देह में रहने वाली सूक्ष्मालय प्रिया यह वायवी शक्ति शिरः स्थान के सहस्त्रदल पङ्कज में जाकर अमृत पान करती है , तभी साधक को परमा सिद्धि प्राप्त होती है । वही भक्ति मार्ग है । इसमें संशय नहीं । इसलिए अथर्व चारों वेदों के ज्ञान का सार कहा जाता है ॥२३ - २५॥
अर्थव वेद विद्या की देवता वायवी शक्ति कही गई है । उसके सेवन मात्र से मनुष्य रुद्रस्वरुप बन जाता है । वह केवल कुम्भक प्राणायाम में अकेले रह कर ब्रह्मविद्या का प्रकाश करती है ॥२६ - २७॥
भैरव ने कहा --- हे पार्वती ! यह वायवी शक्ति किससे उत्पन्न होती है और किस प्रकार कृपा करती है ? ॥२७॥
साधक अपने चित्त को किस प्रकार स्थिर करता है ? और किस प्रकार विवेकी बनता है ? किस प्रकार से मन्त्र की सिद्धि की जाती है ताथा काय की सिद्धि कैसे होती है ? हे आनन्द भैरवेश्वरि चामुण्डे ! विस्तार पूर्वक इसका वर्णन कीजिए । आनन्द भैरवी ने कहा - हे मेरे प्राणकुलेश्वर ! हे शम्भो ! अब सावधान होकर सुनिए ॥२८ - २९॥