तदनन्तर उन श्रेष्ठ महामुनि वशिष्ठ ने महाविद्या सरस्वती के द्वारा कहे गये वाक्य को सुनकर फिर वे चीन देश को चले गये , जहाँ बुद्ध प्रतिष्ठित हैं । महामुनि वशिष्ठ ने उस देश में जाकर बारम्बार प्रणाम कर कहा - हे सूक्ष्मरुप ! हे अव्यय ! हे महादेव ! मेरी रक्षा करो , मेरी रक्षा करो ॥१२५ - १२६॥
मैं अत्यन्त दीन वशिष्ठ हूँ , तथा सर्वदा मन्त्र साधन के लिए चित्त से व्याकुल रहने वाला हूँ , ब्रह्मदेव का पुत्र हूँ , तथा महादेवी की आराधना के लिए आया हुआ हूँ आपके ( सिद्धि ) मार्ग को देखकर मेरे ह्रदय में अनेक भय उत्पन्न हो रहे हैं ॥१२७ - १२८॥
इसलिए भेद में पडी़ हुई मेरी दुर्बुद्धि का शीघ्र ही विनाश कीजिये । हे प्रभो ! अब मैं आपके वेद बहिष्कृत मार्ग का सर्वदा प्रचार करुँगा । मद्य मांस तथा अङ्रना सेवन का यह कौन सा प्रकार है ? जिससे ये नग्न रहने वाले रक्तपायी सभी जन श्रेष्ठ तथा सिद्ध हो जाते हैं ॥१२९ - १३०॥
ये बारम्बार मद्य पान करते हैं वराङ्गनाओं को रमण कराते है , मद्य , मांस , तथा आसव से उदर पूर्ति करते हैं , इनके नेत्र मद्य से निरन्तर लाल रहते हैं तथा उन्मत्त वेष धारण किए रहते हैं । ये निग्रह और अनुग्रह ( कोप तथा प्रसाद ) में समर्थ हैं ।
ये अन्तः करण से परिपूर्ण हैं ये मद्य एवं स्त्री सेवन में सर्वदा निरत हैं , जो वेद से सर्वथा परे हैं ॥१३१ - १३२॥
वेद बहिष्कृतों को देखकर महायोगी वशिष्ठ ने हाथ जोड़कर विनय वेष धारण करते हुये बुद्ध से कहा - कि हे प्रभो ! आप इसका कारण कहिये कि यह कुलमार्ग क्या है ? । हे पावन ! इनके मन की प्रवृत्ति इन कार्यां में किस प्रकार होती है और हे प्रभो ! वेद कार्य के बिना इन्हे किस प्रकार सिद्धि प्राप्त होती है ? ॥१३३ - १३४॥