तब श्रीबुद्ध ने कहा --- हे वशिष्ठ ! सुनिए , मैं सर्वश्रेष्ठ कुलमार्ग कहता हूँ , जिसके विज्ञान मात्र से साधक क्षण मात्र में रुद्रस्वरुप हो जाता है । संक्षेप में कुलमार्ग की सिद्धि के लिए आगम को कहता हूँ जो सबका स्थिर अंश है ॥१३५ - १३६॥
१ . सर्वप्रथम विवेक चाहने वाला धीर साधक पवित्र रहे। २ . पशुओं का साथन करे , किन्तु पशुभाव में चित्त को स्थिर रखे । ३ . अकेला निर्जन बन में निवास करे , तथा काम क्रोधादि दोषों से अलग रहे । ४ . इन्द्रियों का दमन करते हुये योगाभ्यास करे । ५ . योगशिक्षा में दृढ़ता का नियम रखे , निरन्तर वेदमार्ग का आश्रय ले कर वेदार्थ में महती निपुणता प्राप्त करें ॥१३६ - १३८॥
इस प्रकार के क्रमशः अभ्यास से धर्मात्मा , शीलवान् और दृढ़ना गुण से संपन्न साधक ( प्राणायाम द्वारा ) वायु को धारण करे तथा श्वास मार्ग में अपने मन का लय करे । इन्द्रिनों को वश में रखने वाला योगी इस प्रकार प्रतिदिन के अभ्यास से धीरे - धीरे अधम सिद्धि ( द्र० , १७ . ५८ ) में प्राप्त स्वेद के उद्गम को भस्म कर देवे ॥१३९ - १४०॥
मध्यम कल्प संयुक्त भूमित्याग ( भूमि से ऊपर उठाने वाला प्राणायाम ) उसकी अपेक्षा श्रेष्ठ होने के कारण मध्यम है । क्योंकि प्राणायाम से सिद्धि होती हैं और साधक मनुष्य योगेश्वर बन जाता है ॥१४१॥
महावीर भाव के लक्षण --- योगी बन कर कुम्भक का ज्ञान करे । दिन रात मौन धारण करे और ( एकाग्र मन से ) शिव कृष्ण तथा ब्रह्मपद में निश्चल भक्ति रखकर भक्त बने । ब्रह्मा , विष्णु तथा शिव ये वायवी गति से चञ्चल रहते , हैं , ऐसा विचार कर मन से , कर्म से तथा वचन से पवित्र रहकर चित्त को एकाग्र कर चिद्रुपा महाविद्या में सर्व प्रथम मन को समाहित करे । यही महाभ्युदय कारक कुलमार्ग महावीर भाव कहा जाता है ॥१४२ - १४४॥
वीरभाव की प्रक्रिया --- शक्तिचक्र , तथा नवीन विग्रह वाला वैष्णव सत्त्वचक्र का आश्रय ले कर मन्त्रज्ञ साधक कुल में रहने वाली परा कात्यायनी की सेवा करे । यह कात्यायनी प्रत्यक्ष देवता हैं और श्री प्रदान करने वाली हैं । यह प्रचण्ड उद्वेण को नाश करने वाली , चित्स्वरुपा , ज्ञाननिलया और चैतन्यानन्द स्वरुपिणी है । इनकी कान्ति करोड़ों विद्युत् के समान हैं , सर्वसत्त्व स्वरुपा अठारह भुजा वाली हैं शिव में , मांस ( बलि ) में तथा अचल ( कैलासादि ) में प्रेम करने वाली हैं ॥१४५ - १४७॥
कुलमार्ग का आश्रय लेने वाला साधक इन्हीं का आश्रय लेकर मन्त्र का जप करे । इस त्रिलोकी में कुलमार्ग से श्रेष्ठ अन्य मार्ग को कौन जानता है । इस कुलमार्ग की कृपा से ब्रह्मदेव महान् बन गये तथा सत्त्वरुपधारी एवं निर्मल विष्णु सृष्टि पालन करने में समर्थ हो गये । सदाशिव इस कुलमार्ग की कृपा से सबके सेवनीय सर्वपूज्य , यजुर्वेद के अधिपतिः महान् वीरेश तथा उत्तम मन वाले हो गए ॥१४८ - १५०॥
वे सभी के काल , क्रोध करने वाले , क्रोधराज तथा महाबली हो गये । वीरभाव की कृपा से सभी दिक्पाल रुद्ररुप वाले हो गये । यहा सारा विश्व वीरभाव के अधीन है , और वीरभाव कुल मार्ग के अधीन है , इसलिए जड़ ( जल ) कुल मार्ग का आश्रय ले कर सर्व सिद्धिश्वर बन गया ॥१५१ - १५२॥
साधक को मास मात्र के अभ्यास से सिद्धि का आकर्षण प्राप्त होता है , दो मास के अभ्यास से वह वाक्पति बन जाता है और तीन मास के अभ्यास से आनन्द का वल्लभ जाना जाता है । इसा प्रकार चार मास के अभ्यास से उसे दिक्पालों के दर्शन होते हैं , पञ्चम मास में काम के समाना सुन्दरता प्रात्प होती है तथा छः मास में रुद्रस्वरुप बन जाता है ॥१५३ - १५४॥
मात्र इतना ही वीराचार का सार है जो सबके लिए अगोचर है । इसी को कौलमार्ग कहते हैं । कौलमार्ग से बढ़कर कोई अन्य मार्ग नहीं ॥१५५॥
कौलमार्ग की फलश्रुति - दृढ़ता से चिन्तन करने वाले भक्त योगियों को कुल मार्ग की कृपा से एक मास में ही कार्य सिद्धि हो जाती है उसके शत्रु नहीं होते ॥१५६॥
ब्राह्मण साधक छः महीने के योगाभ्यास से पूर्णयोगी बन जाता है । शक्ति के बिना शिव जैसा योगी भक्त भी असमर्थ बन जाता है , फिर अन्य जड़बुद्धियों की बात ही क्या ? ॥१५७॥
ऐसा कहकर बुद्धरुपी सदाशिव ने साधन का उपदेश किया और कहा - हे ब्राह्मण ! मद्य साधना करो , यही महाशक्ति का सेवन है । ऐसा करने से महाविद्या के चरण कमलों का दर्शन प्राप्त कर सकोगे । अपने गुरु सदाशिव की बात सुन कर वशिष्ठ ने सरस्वती देवी का स्मरण किया ॥१५८ - १५९॥
वे मदिरा की आराधना के लिए कुल मण्डल ( शाक्त समुदायों ) में गये । वहाँ मद्य , मांस , मत्स्य , मुद्रा तथा मैथुन की बारम्बार साधना कर वशिष्ठ पूर्णयोगी बन गये । हे प्रभो ! योगमार्ग तथा कुल मार्ग दोनों ही एक मार्ग के क्रम है ॥१६० - १६१॥
पहले योगी बनें । फिर कुल ( शक्ति ) का ध्यान करे , तब साधक सभी सिद्धियों का अधीश्वर बन जाता हैं । यह कुलपथ जीवात्मा तथा परमात्मा का सन्धिकाल हैं जो योगमार्ग से सर्वदा जोडा़ गया है ॥१६२॥
जब उसमें भग ( ऐश्वर्य ) का संयोग कर दिया जाता है तो साधक सर्व सिद्धिश्वर बन जाता है और योग उसी को कहते हैं जिसमें जीवात्मा और परमात्मा एक में मिल जाते हैं ॥१६३॥