कवितावली - भाग ३

‘कवितावली' गोस्वामी तुलसीदासच्या प्रमुख रचनांपैकी एक आहे. सोळाव्या शतकातील या ग्रंथात श्रीराम कथेचे वर्णन असून मूळ काव्य ब्रजभाषेत आहे.


६१ जे रजनीचर बीर बिसाल, कराल बिलोकत काल न खाए ।
ते रन-रोर कपीसकिसोर बड़े बरजोर परे फग पाये ॥
लूम लपेटि, अकास निहारि कै, हाँकि हठी हनुमान चलाए ।
सूखि गे गात, चले नभ जात, परे भ्रमबात, न भूतल आए ॥

जो दससीसु महीधर ईसको बीस भुजा खुलि खेलनिहारो ।
लोकप, दिग्गज, दानव , देव सबै सहमे सुनि साहसु भारो ॥
बीर बड़ो बिरुदैत बली, अजहूँ जग जागत जासु पँवारो ।
सो हनुमान हन्यो मुठिकाँ गिरि गो गिरिराजु ज्यों गाजको मारो ॥

६२ दुर्गम दुर्ग, पहारतें भारे, प्रचंड महा भुजदंड बने हैं ।
लक्खमें पक्खर, तिक्खन तेज, जे सूरसमाजमें गाज गने हैं ॥
ते बिरुदैत बली रनबाँकुरे हाँकि हठी हनुमान हने हैं ।
नामु लै रामु देखावत बंधुको घूमत घायल घायँ घने हैं ॥

हाथिन सों हाथी मारे, घोरेसों सँघारे घोरे, रथनि सों रथ बिदरनि बलवानकी ।
चंचल चपेट, चोट चरन चकोट चाहें, हहरानी फौजें भहरानी जातुधानकी ॥
बार-बार सेवक-सराहना करत रामु, 'तुलसी' सराहै रीति साहेब सुजानकी ।
लाँबी लूम लसत, लपेटि पटकत भट, देखौ देखौ, लखन! लरनि हनुमानकी ॥

६३ दबकि दबोरे एक, बारिधिमें बोरे एक, मगन महीमें, एक गगन उड़ात हैं ।
पकरि पछारे कर, चरन उखारे एक, चीरी-फारि डारे, एक मीजि मारे लात हैं ॥
'तुलसी' लखत, रामु, रावनु, बिबुध, बिधि, चक्रपानि, चंडीपति, चंडिका सिहात हैं ॥
बड़े-बड़े बानइत बीर बलवान बड़े, जातुधान, जूथप निपाते बातजात हैं ॥

प्रबल प्रचंड बरिबंड बाहुदंड बीर धाए जातुधान, हनुमानु लियो घेरि कै ।
महाबलपुंज कुंजरारि ज्यों गरजि, भट जहाँ-तहाँ पटके लँगूर फेरि-फेरि कै ।
मारे लात, तोरे गात, भागे जात हाहा खात, कहैं, 'तुलसीस! राखि' रामकी सौं टरि कै ।
ठहर-ठहर परे, कहरि-कहरि उठैं, हहरि-हहरि हरु सिध्द हँसे हेरि कै ॥

६४ जाकी बाँकी बीरता सुनत सहमत सूर, जाकी आँच अबहूँ लसत लंक लाह-सी ।
सोई हनुमान बलवान बाँको बानइत, जोहि जातुधान-सेना चल्यो लेत थाह-सी ॥
कंपत अकंपन, सुखाय अतिकाय काय, कुंभऊकरन आइ रह्यो पाइ आह-सी ।
देखे गजराज मृगराजु ज्यों गरजि धायो, बीर रघुबीरको समीरसूनु साहसी ॥

झूलना

मत्त-भट-मुकुट, दसकंठ-साहस-सइल- सृंग-बिद्दरनि जनु बज्र-टाँकी ।
दसन धरि धरनि चिक्करत दिग्गज, कमठु, सेषु संकुचित, संकित पिनाकी ॥
चलत महि-मेरु, उच्छलत सायर सकल, बिकल बिधि बधिर दिसि-बिदसि झाँकी ।
रजनिचर-घरनि घर गर्भ-अर्भक स्रवत, सुनत हनुमानकी हाँक बाँकी ॥

६५ कौनकी हाँकपर चौंक चंडीसु, बिधि, चंडकर थकित फिरि तुरग हाँके ।
कौनके तेज बलसीम भट भीम-से भीमता निरखि कर नयन ढाँके ॥
दास-तुलसीसके बिरुद बरनत बिदुष, बीर बिरुदैत बर बैरि धाँके ।
नाक नरलोक पाताल कोउ कहत किन कहाँ हनुमानु-से बीर बाँके ।

जातुधानावली-मत्तकुंजरघटा निरखि मतगराजु ज्यों गिरितें टूट्यो ।
बिकट चटकन चोट, चरन गहि, पटकि महि, निघटि गए सुभट, सतु सबको छूट्यो ॥
'दासु तुलसी' परत धरनि धरकत, झुकत हाट-सी उठति जंबुकनि लूट्यो ।
धीर रघूबीरको भीर रनबाँकुरो हाँकि हनुमान कुलि कटकु कूट्यो ॥

छप्पै

कतहुँ बिटप-भूधर उपारि परसेन बरष्षत ।
कतहुँ बाजिसों बाजि मर्दि, गजराज करष्षत ॥
चरनचोट चटकन चकोट अरि-उर-सिर बज्जत ।
बिकट कटकु बिद्दरत बीरु बारिदु जिमि गज्जत ॥
लंगूर लपेटत पटकि भट, 'जयति राम, जय!उच्चरत ।
तुलसीस पवननंदनु अटल जुध्द क्रुध्द कौतुक करत ॥

६६ अंग-अंग दलित ललित फूले किंसुक-से हने भट लाखन लखन जातुधानके ।
मारि कै, पछारि कै, उपारि भुजदंड चंड, खंडि-खंडि डारे ते बिदारे हनुमानके ॥
कूदत कबंधके कदम्ब बंब-सी करत, धावत दिखावत हैं लाघौ राघौबानके ।
तुलसी महेसु, बिधि, लोकपाल, देवगन, देखत बेवान चढ़े कौतुक मसानके ॥

लोथिन सों लोहूके प्रबाह चले जहाँ-तहाँ मानहुँ गिरिन्ह गेरु झरना झरत हैं ।
श्रोनितसरित घौर कुंजर-करारे भारे, कूलतें समूल बाजि-बिटप परत हैं ॥
सुभट-सरीर नीर-चारी भारी-भारी तहाँ, सूरनि उछाहु, कूर कादर डरत हैं ।
फेकरि- फेकरि फेरु फारि- फारि पेट खात, काक-कंक बालक कोलाहलु करत हैं ॥

६७ ओझरीकी झोरी काँधे, आँतनिकी सेल्ही बाँधें, मूँडके कमंडल खपर किएँ कोरि कै ।
जोगिनी झुटुंग झुंड-झुंड बनीं तापसीं-सी तीर-तीर बैठीं सो समर-सरि खौरि कै ॥
श्रोनित सों सानि -सानि गूदा खात सतुआ-से प्रेत एक पिअत बहोरि घोरि-घोरि कै ।
'तुलसि' बैताल-भूत साथ लिए भूतनाथु, हेरि- हेरि हँसत हैं हाथ-हाथ जोरि कै ॥

राम सरासन तें चले तीर रहे न सरीर, हड़ावरि फूटीं ।
रावन धीर न पीर गनी, लखि लै कर खफ्पर जोगिनि जूटीं ॥
श्रोनित -छीट छटानि जटे तुलसी प्रभु सोहैं महा छबि छूटीं ।
मानो मरक्कत-सैल बिसालमें फैलि चलीं बर बीरबहूटीं

लक्ष्मणमूर्छा

६८ मानी मैगनादसों प्रचारि भिरे भारी भट, आपने अपन पुरुषारथ न ढील की ।
घायल लखनलालु लखी बिलखाने रामु, भई आस सिथिल जगन्निवास-दीलकी ॥
भाईको न मोहु छोहु सीयको न तुलसीस कहैं 'मैं बिभीषनकी कछु न सबील की' ।
लाज बाँह बोलेकी, नेवाजकी सँभार-सार साहेबु न रामु-से बलाइ लेउँ सीलकी ॥

कानन बासु दसानन सो रिपु आननश्री ससि जीति लियो है ।
बालि महा बलसालि दल्यो कपि पालि बिभीषनु भूपु कियो हैं ॥
तीय हरी, रन बंधु पर्यो पै भर यो सरनागत सोच हियो है ।
बाँह-पगार उदार कृपाल कहाँ रघुबीरु सो बीरु बियो है ॥

६९ लीन्हो उखारि पहारु बिसाल, चल्यो तेहि काल, बिलंबु न लायो ।
मारुतनंदन मारुतको, मनको, खगराजको बेगु लजायो ॥
तीखी तुरा 'तुलसी' कहतो पै हिएँ उपमाको समाउ न आयो ।
मानो प्रतच्छ परब्बतकी नभ । लीक लसी, कपि यों धुकि धायो ॥

चल्यो हनुमानु, सुनि जातुधान कालनेमि पठयो , सो मुनि भयो, पायो फलु छलि कै ।
सहसा उखारो है पहारु बहु जोजनको, रखवारे मारे भारे भूरि भट दलि कै ॥
बेगु, बलु, साहस, सराहत कृपालु रामु, भरतकी कुसल, अचलु ल्यायो चलि कै ।
हाथ हरिनाथके बिकाने रघुनाथ जनु, सीलसिंधु तुलसीस भलो मान्यो भलि कै ॥

युध्द का अंत

७० बाप दियो काननु, भो आननु सुभाननु सो, बैरी भौ दसाननु सो, तीयको हरनु भो ।
बालि बलसालि दलि, पालि कपिराजको, बिभीषनु नेवाजि, सेत सागर-तरनु भो ॥
घोर रारि हेरि त्रिपुरारि-बिधि हारे हिएँ, घायल लखन बीर नर बरनु भो ।
ऐसे सोकमें तिलोकु कै बिसोक पलही में, सबही को तुलसीको साहेबु सरनु भो ॥

कुंभकरन्नु हन्यो रन राम, दल्यो दसकंधरु कंधर तोरे ।
पूषनबंस बिभूषन-पूषन-तेज-प्रताप गरे अरि-ओरे ॥
देव निसान बजावत, गावत, साँवतु गो मनभावत भो रे ।
नाचत-बानर-भालु सबै 'तुलसी' कहि 'हा रे! हहा भै अहो रे' ॥

७१ मारे रन रातिचर रावनु सकुल दलि, अनुकूल देव-मुनि फूल बरषतु है ।
नाग, नर, किंनर, बिरंचि, हरि, हरु हेरि पुलक सरीर हिएँ हेतु हरषत हैं ॥
बाम ओर जानकी कृपानिधानके बिराजैं, देखत बिषादु मिटै, मोदु करषतु हैं ।
आयसु भो , लोकनि सिधारे लोकपाल सबै, 'तुलसी' निहाल कै कै दिये सरखतु हैं ॥

(इति लंकाकाण्ड)

उत्तरकाण्ड

राम की कृपालुता

बालि-सो बीरु बिदारि सुकंठु, थप्यो, हरषे सुर बाजने बाजे ।
पलमें दल्यो दासरथीं दसकंधरु, लंक बिभीषनु राज बिराजे ॥
राम सुभाउ सुनें 'तुलसी' हिलसै अलसी हम-से गलगाजे ।
कायर कूर कपूतनकी हद, तेउ गरीबनेवाज नेवाजे ॥

७२ बेद पढ़ैं बिधि, संभुसभीत पुजावन रावनसों नितु आवैं ।
दानव देव दयावने दीन दुखी दिन दूरहि तें सिरु नावैं ॥
ऐसेउ भाग भगे दसभाल तें जो प्रभुता कबि-कोबिद गावैं ।
रामसे बाम भएँ तेहि बामहि बाम सबै सुख संपति लावैं ॥

बेद बिरुध्द मही, मुनि साधु ससोक किए सुरलोकु उजारो ।
और कहा कहौं, तीय हरी, तबहूँ करुनाकर कोपु न धारौ ॥
सेवक-छोह तें छाड़ी छमा, तुलसी लख्यो राम!सुभाउ तिहारो ।
तौलों न दापु दल्यौ दसकंधर, जौलौ बिभीषन लातु न मारो ॥

७३ सोक समुद्र निमज्जत काढि कपीसु कियो, जगु जानत जैसो ।
नीच निसाचर बैरिको बंधु बिभीषनु कीन्ह पुरंदर कैसो ॥
नाम लिएँ अपनाइ लियो तुलसी-सो, कहौं जग कौन अनैसो ।
आरत आरति भंजन रामु, गरीबनेवाज न दूसरो ऐसो ॥

मीत पुनीत कियो कपि भालुको , पाल्यो ज्यों काहुँ न बाल तनुजो ।
सज्जन सींव बिभीषनु भो, अजहूँ बिलसै बर बंधुबधू जो ॥
कोसलपाल बिना 'तुलसी' सरनागतपाल कृपाल न दूजो ।
कूर, कुजाति, कुपूत, अघी, सबकी सुधरै, जो करै नरु पूजो ॥

७४ तीय सिरोमनि सीय तजी, जेहिं पावककी कलुषाई दही है ॥
धर्मधुरंधर बंधु तज्यो, पुरलोगनिकी बिधि बोलि कही है ॥
कीस निसाचरकी करनी न सुनी, न बिलोकी, न चित्त रही है ।
राम सदा सरनागतकी अनखौंहीं, अनैसी सुभायँ सही है ॥

अपराध अगाध भएँ जनतें, अपने उर आनत नाहिन जू ।
गनिका, गज , गीध , अजामिलके गनि पातकपुंज सिराहिं न जू ॥
लिएँ बारक नामु सुधामु दियो , जेहिं धाम महामुनि जाहिं न जू ।
तुलसी! भजु दीनदयालहि रे! रघुनाथ अनाथहि दाहिन जू ॥

७५ प्रभु सत्य करी प्रहलादगिरा, प्रगटे नरकेहरि खंभ महाँ ।
झषराज ग्रस्यो गजराजु, कृपा ततकाल बिलंबु कियो न तहाँ ॥
सुर साखि दै राखी है पांडुबधू पट लूटत, कोटिक भूप जहाँ ।
तुलसी! भजु सोच-बिमोचनको, जनको पनु राम न राख्यो कहाँ ॥

नरनारि उघारि सभा महुँ होत दियो पटु, सोचु हर यो मनको ।
प्रहलाद बिषाद-निवारन, बारन-तारन, मीत अकारनको ॥
जो कहावत दीनदयाल सही, जेहि भारु सदा अपने पनको ।
'तुलसी' तजि आन भरोस भजें , भगवानु भलो करिहैं जनको ॥

७६ रिषिनारि उधारि, कियो सठ केवटु मीतु पुनीत, सुकीर्ति लही ।
निजलोकु दयो सबरी-खगको, कपि थाप्यो, सो मालुम है सबही ॥
दससीस-बिरोध सभीत बिभीषनु भूपु कियो, जग लीक रही ।
करुनानिधिको भजु, रे तुलसी! रघुनाथ अनाथके नाथु सही ॥

कौसिक, बिप्रबधू मिथिलाधिपके सब सोच दले पल माहैं ।
बालि-दसानन-बंधु-कथा सुनि, सत्रु सुसाहेब-सीलु सराहैं ॥
ऐसी अनूप कहैं तुलसी रघुनायककी अगनी गुनगाहैं ।
आरत, दीन, अनाथनको रघुनाथु करैं निज हाथकी छाहैं ॥

७७ तेरे बेसाहें बेसाहत औरनि, और बेसाहिकै बेचनिहारे ।
ब्योम, रसातल, भूमि भरे नृप कूर, कुसाहेब सेंतिहुँ खारे ॥
'तुलसी' तेहि सेवत कौन मरै! रजतें लघुको करैं मेरुतें भारे?
स्वामि सुसील समर्थ सुजान, सो तो-हो तुहीं दसरत्थ दुलारे ॥

जातुधान, भालु, कपि, केवट, बिहंग जो-जो पाल्यो नाथ! सद्य सो. सो भयो काम-काजको ।
आरत अनाथ दीन मलिन सरन आए, राखे अपनाइ, सो सुभाउ महाराजको ॥
नामु तुलसी, पै भोंडो भाँग तें , कहायो दासु, कियो अंगीकार ऐसे बड़े दगाबाजको ।
साहेबु समर्थ दसरत्थके दयालदेव! दूसरो न तो-सो तुम्हीं आपनेकी लाजको ॥

७८ महबली बालि दलि, कायर सुकंठु कपि सखा किए महाराज! हो न काहू कामको ।
भ्रात-घात-पातकी निसाचर सरन आएँ, कियो अंगीकार नाथ एते बड़े बामको ॥
राय, दसरत्थके! समर्थ तेरे नाम लिएँ, तुलसी-से कूरको कहत जगु रामको ।
आपने निवाजेकी तौ लाज महाराजको सुभाउ, समुझत मनु मुदित गुलामको ॥

रूप-सीलसिंधु, गुनसिंधु, बंधु दीनको, दयानिधान, जानमनि, बीरबाहु-बोलको ।
स्राध्द कियो गीधको, सराहे फल सबरीके सिला-साप-समन, निबाह्यो नेहु कोलको ॥
तुलसी-उराउ होत रामको सुभाउ सुनि, को न बलि जाइ, न बिकाइ बिनु मोल को ।
ऐसेहु सुसाहेबसों जाको अनुरागु न, सो बड़ोई अभागो, भागु भागो लोभ -लोलको ॥

७९ सूरसिरताज, महाराजनि के महाराज जाको नामु लेतहीं सुखेतु होत ऊसरो ।
साहेबु कहाँ जहान जानकीसु सो सुजानु, सुमिरें कृपालुके मरालु होत खूसरो ॥
केवट, पषान, जातुधान, कपि-भालु तारे, अपनायो तुलसी-सो धींग धमधूसरो ।
बोलको अटल, बाँहको पगारु, दीनबंधु, दूबरेको दानी, को दयानिधान दूसरो ॥

कीबेको बिसोक लोक लोकपाल हुते सब, कहूँ कोऊ भो न चरवाहो कपि -भालुको ।
पबिको पहारु कियो ख्यालही कृपाल राम, बापुरो बिभीषनु घरौंधा हुतो बालको ॥
नाम-ओट लेत ही निखोट होत खोटे खल, चोट बिनु मोट पाइ भयो न निहालु को?
तुलसीकी बार बड़ी ढील होति सीलसिंधु! बिगरी सुधारिबेको दूसरो दयालु को ॥

८० नामु लिएँ पूतको पुनीत कियो पातकीसु, आरति निवारी 'प्रभु पाहि' कहें पीलकी ।
छलनिको छोंडी, सो निगोड़ी छोटी जाति -पाँति कीन्ही लीन आपुमें सुनारी भोंड़े भीलकी ॥
तुलसी औ तोरिबो बिसारबो न अंत मोहि, नीकें है प्रतीति रावरे सुभाव-सीलकी ।
देऊ, तो दयानिकेत, देत दादि दीननको, मेरी बार मेरें ही अभाग नाथ ढील की ॥

आगें परे पाहन कृपाँ किरात, कोलनी, कपीस, निसिचर अपनाए नाएँ माथ जू ।
साँची सेवकाई हनुमान की सुजानराय, रिनियाँ कहाए हौ, बिकाने ताके हाथ जू ॥
तुलसी-से खोटे खरे होत ओट नाम ही कीं , तेजी माटी मगहू की मृगमद साथ जू ।
बात चलें बातको न मानिबो बिलगु, बलि, काकीं सेवाँ रीझिकै नेवाजो रघुनाथ जू?

८१ कौसिककी चलत, पषानकी परस पाय, टूटत धनुष बनि गई है जनककी ।
कोल, पसु, सबरी, बिहंग, भालु, रातिचर, रतिनके लालचचिन प्रापति मनककी ॥
कोटि-कला-कुसल कृपाल नतपाल! बलि, बातहू केतिक तिन तुलसी तनककी ।
राय दसरत्थ के समत्थ राम राजमनि! तेरें हेरें लोपै लिपि बिधिहू गनककी ॥

सिला-श्राप पापु गुह-गीधको मिलापु सबरीके पास आपु चलि गए हौ सो सुनी मैं ।
सेवक सराहे कपिनायकु बिभीषनु भरतसभा सादर सनेह सुरधुनी मैं ॥
आलसी- अभागी-अघी-आरत -अनाथपाल साहेबु समर्थ एकु, नीकें मन गुनी मैं ।
दोष-दुख-दारिद-दलैया दीनबंधु राम! 'तुलसी' न दूसरो दयानिधानु दुनी मैं ॥

८२ मीतु बालिबंधु, पूतु, दूतु, दसकंधबंधु सचिव, सराधु कियो सबरी-जटाइको ।
लंक जरी जोहें जियँ सोचसो बिभीषनुको, कहौ ऐसे साहेबकी सेवाँ न खटाइ को ॥
बड़े एक-एकतें अनेक लोक लोकपाल, अपने-अपनेको तौ कहैगो घटाइ को ।
साँकरेके सेइबे, सराहिबे, सुमिरिबेको रामु सो न साहेबु न कुमति-कटाइ को ॥

भूमिपाल, ब्यालपाल, नाकपाल, लोकपाल कारन कृपाल, मैं सबैके जीकी थाह ली ।
कादरको आदरु काहूकें नाहिं देखिअत, सबनि सोहात है सेवा-सुजानि टाहली ॥
तुलसी सुभायँ कहै, नाहीं कछु पच्छपातु, कौनें ईस किए कीस भालु खास माहली ।
रामही के द्वारे पै बोलाइ सनमानिअत मोसे दीन दूबरे कपूत कूर काहली ॥

८३ सेवा अनुरूप फल देत भूप कूप ज्यों, बिहूने गुन पथिक पिआसे जात पथके ।
लेखें-जोखै चित'तुलसी' स्वारथ हित, नीकें देखे देवता देवैया घने गथके ॥
गीधु मानो गुरु कपि-भालु माने मीत कै, पूनीत गीत साके सब साहेब समत्थके ।
और भूप परखि सुलाखि तौलि ताइ लेत, लसमके खसमु तुहीं पै दसरत्थके ॥

केवल राम ही से माँगो

रीति महाराजकी, नेवाजिए जो माँगनो, सो दोष-दुख-दारिद दरिद्र कै-कै छोड़िए ।
नामु जाको कामतरु देत फल चारि, ताहि 'तुलसी' बिहाइकै बबूर-रेंड़ गोड़िए ॥
जाचे को नरेस, देस-देसको कलेसु करै देहैं तौ प्रसन्न ह्वै बड़ी बड़ाई बौड़िए ।
कृपा-पाथनाथ लोकनाथ-नाथ सीतानाथ तजि रघुनाथ हाथ और काहि औड़िये ॥

८४ जाकें बिलोकत लोकप होत, बिसोक लहैं सुरलोग सुठौरहि ।
सो कमला तजि चंचलता, करि कोटि कला रिझवै सुरमौरहि ॥
ताको कहाइ, कहै तुलसी, तूँ लजाहि न मागत कूकुर-कौरहि ।
जानकी-जीवनको जनु ह्वै जरि जाउ सो जीह जो जाचत औरहि ॥

जड़ पंच मिलै जेहिं देह करी, करनी लखु धौं धरनीधरकी ।
जनकी कहु, क्यों करिहै न सँभार, जो सार करै सचराचरकी ॥
तुलसी! कहु राम समान को आन है, सेवकि जासु रमा घरकी ।
जगमें गति जाहि जगत्पतिकी परवाह है ताहि कहा नरकी ॥

८५ जग जाचिअ कोउ न, जाचिअ जौं जियँ जाचा जानकीजानहि रे ।
जेहि जाचत जाचकता जरि जाइ, जो जारति जोर जहानहि रे ॥
गति देखु बिचारि बिभीषनकी, अरु आनु हिए हनुमानहि रे ।
तुलसी! भजु दारिद-दोष-दवानल संकट-कोटि कृपानहि रे ॥

उद्बोधन

सुनु कान दिएँ, नितु नेमु लिएँ रघुनाथहिके गुनगाथहि रे ।
सुखमंदिर सुंदर रुपु सदा उर आनि धरें धनु-भाथहि रे ॥
रसना निसि-बासर सादर सों तुलसी! जपु जानकीनाथहि रे ।
करु संग सुसील सुसंतन सों, तजि कूर, कुफंथ कुसाथहि रे ॥

८६ सुत, दार, अगारु, सखा, परिवारु बिलोकु महा कुसमाजहि रे ।
सबकी ममता तजि कै, समता सजि, संतसभाँ न बिराजहि रे ॥
नरदेह कहा, करि देखु बिचारु, बिगारु गँवार न काजहि रे ।
जनि डोलहि लोलुप कूकरु ज्यों, तुलसी भजु कोसलराजहि रे ॥

बिषया परनारि निसा-तरुनाई सो पाइ पर यो अनुरागहि रे ।
जमके पहरु दुख, रोग बियोग बिलोकत हू न बिरागहि रे ॥
ममता बस तैं सब भूलि गयो, भयो भोरु महा भय भागहि रे ।
जरठाइ दिसाँ , रबिकालु अग्यो, अजहूँ जड़ जीव! न जागहि रे ॥

८७ जनम्यो जेहिं जोनि, अनेक क्रिया सुख लागि करीं, न परैं बरनी ।
जननी-जनकादि हितु भये भूरि बहोरि भई उरकी जरनी ॥
तुलसी! अब रामको दासु कहाइ, हिएँ धरु चातककी धरनी ।
करि हंसको बेषु बड़ो सबसों, तजि दे बक-बायसकी करनी ॥

भलि भारतभूमि, भलें कुल जन्मु, समाजु सरीरु भलो लहि कै ।
करषा तजि कै परुषा बरषा हिम, मारुत, घाम सदा सहि कै ॥
जो भजै भगवानु सयान सोई, 'तुलसी' हठ चातकु ज्यों गहि कै ॥
नतु और सबै बिषबीज बए, हर हाटक कामदुहा नहि कै ॥

जो सुकृती सुचिमंत सुसंत सुजान सुसीलसिरोमनि स्वै ।
सुर-तीरथ तासु मनावत आवत , पावन होत हैं ता तनु छ्वै ॥
गुनगेह सनेहको भाजनु सो, सब ही सों उठाइ कहौं भुज द्वै ।
सतिभायँ सदा छल छाड़ि सबै'तुलसी' जो रहै रघुबीरको ह्वै ॥

विनय

सो जननी, सो पिता, सोइ भाइ, सोभामिनि, सो सुतु, सो हित मेरो ।
सोइ सगो, सो सखा, सोइ सेवकु, सो गुरु, सो सुरु, साहेबु चेरो ॥
सो 'तुलसी' प्रिय प्रान समान, कहाँ लौं बनाइ कहौं बहुतेरो ।
जो तजि देहको, गेहको नेहु, सनेहसो रामको होइ सबेरो ॥

रामु हैं मातु, पिता, गुरु, बंधु, औ संगी, सखा, सुतु, स्वामि, सनेही ।
रामकी सौंह, भरोसो है रामको, राम रँग्यो, रुचि राच्यो न केही ॥
जीअत रामु, मुएँ पुनि रामु, सदा रघुनाथहि की गति जेही ।
सोई जिए जगमें, 'तुलसी' नतु डोलत और मुए धरि देही ॥

राम प्रेम ही सार है

सियराम-सरुपु अगाध अनूप बिलोचन-मीनको जलु है ।
श्रुति रामकथा, मुख रामको नामु, हिएँ पुनि रामहिको थलु है ॥
मति रामहि सों, गति रामहि सों, रति रामसों, रामहि को बलु है ।
सबकी न कहै, तुलसीके मतें इतनो जग जीवनको फलु है ॥

दसरत्थके दानि सिरोमनि राम! पुरान प्रसिध्द सुन्यो जसु मैं ।
नर नाग सुरासर जाचक जो, तुमसों मन भावत पायो न कैं ॥
तुलसी कर जोरि करै बिनती, जो कृपा करि दीनदयाल सुनैं ।
जेहि देह सनेहु न रावरे सों, असि देह धराइ कै जायँ जियैं ॥

झूठो है, झूठो है, झूठो सदा जगु, संत कहंत जे अंतु लहा है ॥
ताको सहै सठ! संकट कोटिक, काढ़त दंत, करंत हहा है ॥
जानपनीको गुमान बढ़ो, तुलसीके बिचार गँवार महा है ।
जानकीजीवनु जान न जान्यो तौ जान कहावत जान्यो कहा है ॥

८८ तिन्ह तें खर, सूकर, स्वान भले, जड़ता बस ते न कहैं कछु वै ।
'तुलसी' जेहि रामसों नेहु नहीं सो सही पसु पूँछ, बिषान न द्वै ।
जननी कत भार मुई दस मास, भई किन बाँझ, गई किन च्वै ।
जरि जाउ सो जीवनु, जानकीनाथ! जियै जगमें तुम्हरौ बिनु ह्वै ॥

गज-बाजि-घटा, भले भूरि भटा, बनिता, सुत भौंह तकैं सब वै ।
धरनी, धनु धाम सरीरु भलो, सुरलोकहु चाहि इहै सुख स्वै ।
सब फोटक साटक है तुलसी, अपनो न कछू सपनो दिन द्वै ।
जरि जाउ सो जीवन जानकीनाथ! जियै जगमें तुम्हरो बिनु ह्वै ॥

सुरराज सो राज-समाजु, समृध्दि बिरंचि, धनाधिप-सो धनु भौ ।
पवमानु-सो पावकु-सो, जमु, सोमु-सो, पूषनु-सो भवभूषनु भो ॥
करि जोग, समीरन साधि, समाधि कै धीर बड़ो, बसहू मनु भो ।
सब जाय, सुभायँ कहै तुलसी, जो नै जानकीजीवनको जनु भो ॥

८९ कामु-से रूप, प्रताप दिनेसु-से, सोमु-से सील, गनेसु-से माने ।
हरिचंदु-से साँचे, बड़े बिधि-से, मघवा-से महीप बिषै-सुख-साने ॥
सुक-से मुनि, सारद-से बकता, चिरजीवन लोमस तें अधिकाने ।
ऐसे भए तौ कहा 'तुलसी, ' जो पै राजिवलोचन रामु न जाने ॥

झूमत द्वार अनेक मतंग जँजीर-जरे, मद अंबु चुचाते ।
तीखे तुरंग मनोगति-चंचल, पौनके गौनहु तें बढ़ि जाते ॥
भीतर चंद्रमुखी अवलोकति, बाहर भूप करे न समाते ।
ऐसे भए तौ कहा, तुलसी, जो पै जानकीनाथके रंग न राते ॥

राज सुरेस पचासकको बिधिके करको जो पटो लिखि पाएँ ।
पूत सुपूत, पुनीत प्रिया, निज सुंदरताँ रतिको मदु नाएँ ॥
संपति-सिध्दि सबै 'तुलसी' मनकी मनसा चतवैं चितु लाएँ ॥
जानकीजीवनु जाने बिना जग ऐसेउ जीव न जीव कहाएँ ॥

९० कृसगात ललात जो रोटिन को, घरवात घरें खुरपा-खरिया ।
तिन्ह सोनेके मेरु-से ढेर लहे, मनु तौ न भरो, घरु पै भरिया ॥
'तुलसी' दुखु दूनो दसा दुहुँ देखि, कियो मुखु दारिद को करिया ।
तजि आस भो दासु रघुप्पतिको, दसरथ्तको दानि दया-दरिया ॥

को भरिहे हरिके रितएँ, रितवै पुनि को, हरि जौं भरिहै ।
उथपै तेहि को, जेहि रामु थपै, थपिहै तेहि को, हरि जौं टरिहै ॥
तुलसी यहु जानि हिएँ अपनें सपनें नहि कालहु तें डरिहै ।
कुमयाँ कछु हानि न औरनकीं, जो पै जानकी-नाथु मया करिहै ॥

ब्याल कराल महाबिष, पावक मत्तगयंदहु के रद तोरे ।
साँसति संकि चली, डरपे हुते किंकर, ते करनी मुख मोरे ॥
नेकु बिषादु नहीं प्रहलादहि कारन केहरिके बल हो रे ।
कौनकी त्रास करै तुलसी जो पै राखिहै राम, तौ मारिहै को रे ।

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Last Updated : October 17, 2011

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