१५१ संकर-सहर सर, नरनारि बारिचर बिकल, सकल, महामारी माजा भई है ।
उछरत उतरात हहरात मरि जात, भभरि भगात जल-थल मीचुमई है ॥
देव न दयाल, महिपाल न कृपालचित, बारानसीं बाढति अनीति नित नई है ।
पाहि रघुराज! पाहि कपिराज रामदूत! रामहूकी बिगरी तुहीं सुधारि लई है ॥
एक तै कराल कलिकाल सूल-मूल, तामें कोढ़मेंकी खाजु-सी सनीचरी है मीनकी ।
बेद -धर्म दूरि गए, भूमि चोर भूप भए, साधु सीद्यमान जानि रीति पाप पीनकी ॥
दूबरेको दूसरो न द्वार, राम दयाधाम! रावरीऐ गति बल-बिभव बिहीन की ।
लागैगी पै लाज वा बिराजमान बिरुदहि, महाराज! आजु जौं न देत दादि दीनकी ॥
विविध
१५२ रामनाम मातु-पितु, स्वामि समरथ, हितु, आस रामनामकी, भरोसो रामनामको ।
प्रेम रामनामहीसों, नेम रामनामहीको, जानौं नाम मरम पद दाहिनो न बामको ॥
स्वारथ सकल परमारथको रामनाम, रामनाम हीन तुलसी न काहू कामको ।
रामकी सपथ, सरबस मेरें रामनाम, कामधेनु-कामतरु मोसे छीन छामको ॥
मारग मारि, महीसुर मारि, कुमारग कोटिककै धन लीयो ।
संकरकोपसों पापको दाम परिच्छित जाहिगो जारि कै हीयो ॥
कासीमें कंटक जेते भये ते गे पाइ अघाइ कै आपनो कीयो ।
आजु कि कालि परों कि नरों जड जाहिंगे चाटि दिवारीको दीयो ॥
१५३ कुंकुम -रंग सुअंग जितो, मुखचंदसो चंदसों होड़ परी है ।
बोलत बोल समृध्दि चुवै, अवलोकत सोच-बिषाद हरी है ॥
गौरी कि गंग बिहंगिनिबेष, कि मंजुल मूरति मोदभरी है ।
पेखि सप्रेम पयान समै सब सोच-बिमोचन छेमकरी है ॥
१५४ मंगलकी रासि, परमारथकी खानि जानि बिरचि बनाई बिधि, केसव बसाई है ।
प्रलयहूँ काल राखी सूलपानि सूलपर, मीचुबस नीच सोऊ चाहत खसाई है ॥
छाडि छितिपाल जो परीछित भए कृपाल, भलो कियो खलको, निकाई सो नसाई है ।
पाहि हनुमान! करुनानिधान राम पाहि! कासी-कामधेनु कलि कुहत कसाई है ॥
बिरची बिरंचकी, बसति बीस्वनातकी जो, प्रानहू तें प्यारी पुरी केसव कृपालकी ।
जोतिरूप लिंगमई अगनित लिंगमयी मोच्छ बितरनि, बिदरनि जगजालकी ॥
देबी-देव-देवसरि-सिध्द-मुनिबर-बास लोपति-बिलोकत कुलिपि भोंडे भालकी ।
हा हा करे तुलसी, दयानिधान राम! ऐसी कासीकी कदर्थना कराल कलिकालकी ॥
१५५ आश्रम-बरन कलि बिबस बिकल भए निज-निज मरजाद मोटरी-सी डार दी ।
संकर सरोष महामारिहीतें जानियत, साहिब सरोष दुनी-दिन-दिन दारदी ॥
नारि-नर आरत पुकारत, सुनै न कोऊ, काहूँ देवतनि मिलि मोटी मूठि मारि दी ।
तुलसी सभीतपाल सुमिरें कृपालराम समय सुकरुना सराहि सनकार दी ॥
(इति उत्तरकाण्ड)