कवितावली - भाग ४

‘कवितावली' गोस्वामी तुलसीदासच्या प्रमुख रचनांपैकी एक आहे. सोळाव्या शतकातील या ग्रंथात श्रीराम कथेचे वर्णन असून मूळ काव्य ब्रजभाषेत आहे.


९१ कृपाँ जिनकीं कछु काजु नहीं, न अकाजु कछू जिनकें मुखू मोरे ।
करैं तिनकी परवाहि ते, जो बिनु पूँछ-बिषान फिरैं दिन दौरें ॥
तुलसी जेहिके रघुनाथसे नाथु, समर्थ सुसेवत रीझत थोरे ।
कहा भवभीर परी तेहि धौं बिचरे धरनीं तिनसों तिनु तोरें ॥

कानन, भूधर, बारि, बयारि, महाबिषु, ब्याधि, दवा-अरि घेरे ।
संकट कोटि जहाँ 'तुलसी' सुत, मातु, पिता, हित, बंधु न नैरे ॥
राखिहैं रामु कृपालु तहाँ, हनुमानु-से सेवक हैं जेहि केरे ।
नाक, रसातल, भूतलमें रघुनायकु एकु सहायकु मेरे ॥

जबै जमराज-रजायसतें मोहि लै चलिहैं भट बाँधि नटैया ।
तातु न मातु, न स्वामि-सखा, सुत-बंधु बिसाल बिपत्ति बँटैया ॥
साँसति घोर, पुकारत आरत कौन सुनै, चहुँ ओर डटैया ।
एकु कृपाल तहाँ 'तुलसी' दसरथ्थको नंदनु बंदि-कटैया ॥

९२ जहाँ जमजातना, घोर नदी, भट कोटि जलच्चर दंत टैवेया ।
जहँ धार भयंकर, वारन पार, न बोहित नाव, न नीक खेवैया ॥
'तुलसी' जहँ मातु-पिता न सखा, नहिं कोउ कहूँ अवलंब देवैया ।
तहाँ बुनु कारन रामु कृपाल बिसाल भुजा गहि काढ़ि लेवैया ॥

जहाँ हित स्वामि, नसंग सखा, बनिता, सुत, बंधु, न बाप, न मैया ।
काय-गिरा-मनके जनके अपराध सबै छलु छाड़ि छमैया ॥
तुलसी! तेहि काल कृपाल बिना दूजो कौन है दारुन दुःख दमैया ॥
जहाँ सब संकट, दुर्गट सोचु, तहाँ मेरो साहेबु राखै रमैया ॥

तापसको बरदायक देव सबै पुनि बैरु बढ़ावत बाढ़ें ।
थोरेंहि कोपु, कृपा पुनि थोरेंहि, बैठि कै जोरत, तोरत ठाढ़ें ॥
ठोंकि-बजाई लखें गजराज, कहाँ लौं कहौं केहि सों रद काढ़ें ।
आरतके हित नाथु अनाथके रामु सहाय सही दिन गाढ़ें ॥

९३ जप, जोग, बिराग, महामख-साधन, दान, दया, दम कोटि करै ।
मुनि-सिध्द, सुरेसु, गनेसु, महेसु-से सेवत जन्म अनेक मरै ॥
निगमागम-ग्यान, पुरान पढ़े, तपसानलमें जुगपुंज जरै ।
मनसों पनु रोपि कहै तुलसी, रघुनाथ बिना दुख कौन हरै ॥

पातक-पीन, कुदारद-दीन मलीन धरैं कथरी-करवा है ।
लोकु कहै, बिधिहूँ न लिख्यो सपनेहूँ नहीं अपने बर बाहै ॥
रामको किंकरु सो तुलसी, समुझेंहि भलो, कहिबो न रवा है ।
ऐसेको ऐसो भयो कबहूँ न भजे बिनु बानरके चरवाहै ॥

मातु-पिताँ जग जाइ तज्यो बिधिहूँ न लिखी कछु भाल भलाई ॥
नीच, निरादरभाजन, कादर, कूकर-टूकन लागि ललाई ॥
रामु-सुभाउ सुन्यो तुलसीं प्रभुसों कह्यो बारक पेटु खलाई ।
स्वारथको परमारथको रघूनाथु सो साहेबु, खोरि न लाई ॥

९४ पाप हरे, परिताप हरे, तनु पूजि भो हीतल सीतलताई ।
हंसु कियो बकतें, बलि जाउँ, कहाँलौं कहौं करुना-अधिकाई ॥
कालु बिलोकि कहै तुलसी, मनमें प्रभुकी परतीति अघाई ।
जन्मु जहाँ, तहँ रावरे सों निबहै भरि देह सनेह-सगाई ॥

लोग कहैं, अरु हौंहु कहौं, जनु खोटो-खरो रघुनायकहीको ।
रावरी राम! बड़ी लघुता, जसु मेरो भयो सुखदायकहीको ॥
कै यह हानि सहौ, बलि जाउँ कि मोहू करौ निज लायकहीको ।
आनि हिएँ हित जानि करौ, ज्यों हौं ध्यानु धरौं धनु-सायकहीको ॥

९५ आपु हौं आपुको नीकें कै जानत, रावरो राम! भरायो-गढ़ायो ।
कीरु ज्यौं नामु रटै तुलसी, सो कहै जगु जानकीनाथ पढ़ायो ॥
सोई है खेदु, जो बेदु कहै, न घटै जनु जो रघुबीर बढ़ायो ।
हौंतो सदा खरको असवार, तिहारोइ नामु गयंद चढ़ायो ॥

छारतें सँवारि कै पहारहू तें भारी कियो, गारो भयो पंचमें पुनीत पच्छु पाइ कै ।
हौं तो जैसो तब तैसो अब अधमाई कै कै, पेटु भरौं, राम! रावरोई गुनु गाईके ॥
आपने निवाजेकी पै कीजै लाज, महाराज! मेरी ओर हेरि कै न बैठिए रिसाइ कै ।
पालिकै कृपाल! ब्याल-बालको न मारिये, औ काटिए न नाथ! बिषहूको रुखु लाइ कै ॥

९६ बेद न पुरान-गानु, जानौं न बिग्यानु ग्यानु, ध्यान-धारना-समाधि-साधन-प्रबीनता ।
नाहिन बिरागु, जोग, जाग भाग तुलसी कें, दया-दान दूबरो हौं, पापही की पीनता ॥
लोभ-मोह-काम-कोह-दोश-कोसु-मोसो कौन? कलिहूँ जो सीखि लई मेरियै मलीनता ।
एकु ही भरोसो राम! रावरो कहावत हौं, रावरे दयालु दीनबंधु! मेरी दीनता ॥

रावरो कहावौं, गुनु गावौं राम! रावरोइ, रोटी द्वै हौं पावौं राम! रावरी हीं कानि हौं ।
जानत जहानु, मन मेरेहूँ गुमानु बड़ो, मान्यो मैं न दूसरो, न मानत, न मानिहौं ॥
पाँचकी प्रतीति न भरोसो मोहि आपनोई, तुम्ह अपनायो हौं तबै हीं परि जानिहौं ।
गढ़ि-गुढ़ि छोलि-छालि कुंदकी-सी भाईं बातैं जैसी मुख कहौं, तैसी जीयँ जब आनिहौं ॥

९७ बचन, बिकारु, करतबउ खुआर, मनु बिगत-बिचार, कलिमलको निधानु है ।
रामको कहाइ, नामु बेचि-बेचि, खाइ सेवा- संगति न जाइ, पाछिलरको उपखानु है ॥
तेहू तुलसीको लोगु बलो-भलो कहै, ताको दूसरो न हेतु, एकु नीकें कै निदानु है ।
लोकरीति बिदित बिलोकिअत जहाँ-तहाँ, स्वामीकें सनेहँ स्वानहू को सनमानु है ॥

नाम-विश्वास

स्वारथको साजु न समाजु परमारथको, मोसो दगाबाज दूसरो न जगजाल है ।
कै न आयों, करौं न करौगो करतूति भली, लिखी न बिरंचिहूँ भलाइ भूलि भाल है ॥
रावरी सपथ, रामनाम ही की गति मेरें, इहाँ झूठो, झूठो सो तिलोक तिहूँ काल है ।
तुलसी को भलो पै तुम्हारें ही किएँ कृपाल, कीजै न बिलंबु बलि, पानीभरी खाल है ॥

९८ रागुको न साजु, न बिरागु, जोग जाग जियँ काया नहिं छाड़ि देत ठाटिबो कुठाटको ।
मनोराजु करत अकाजु भयो आजु लगि, चाहे चारु चीर, पै लहै न टूकु टाटको ॥
भयो करतारु बड़े कूरको कृपालु, पायो नामुप्रेमु-पारसु, हौं लालची बराटको ।
'तुलसी' बनी है राम! रावरें बनाएँ, नातो धोबी-कैसो कूकरु न घरको, न घाटको ॥

ऊँचो मनु, ऊँची रुचि, भागु नीचो निपट ही, लोकरीति-लायक न, लंगर लबारु है ॥
स्वारथु अगमु परमारथकी कहा चली, पेटकीं कठिन जगु जीवको जवारु है ॥
चाकरी न आकरी, न खेती, न बनिज-भीख, जानत न कूर कछु किसब कबारु है ।
तुलसीकी बाजी राखि रामहीकें नाम, न तु भेंट पितरन को न मूड़हू में बारु है ॥

९९ अपत-उतार , अपकारको अगारु, जग जाकी छाँह छुएँ सहमत ब्याध-बाघको ।
पातक-पुहुमि पालिबेको सहसाननु सो, काननु कपटको, पयोधि अपराधको ॥
तुलसी-से भामको भो दाहिनो दयानिधानु, सुनत सिहात सब सिध्द साधु साधको ।
रामनाम ललित-ललामु कियो लाखनिको, बड़ो कूर कायर कपूत-कौड़ी आधको ॥

सब अंग हीन, सब साधन बिहीन मन- बचन मलीन, हीन कुल करतूति हौं ।
बुधि-बल-हीन, भाव-भगति-बिहीन, हीन गुन, ग्यानहीन, हीन भाग हूँ बिभूति हौं ॥
तुलसी गरीब की गई-बहोर रामनामु, जाहि जपि जीहँ रामहू को बैठो धूति हौं ।
प्रीति रामनामसों प्रतीति रामनामकी, प्रसाद रामनामकें पसारि पाय सूतिहौं ॥

१०० मेरें जान जबतें हौं जीव ह्वै जनम्यो जग, तबतें बेसाह्यो दाम लोह, कोह, कामको ।
मन तिन्हीकी सेवा, तिन्हि सों भाउ निको, बचन बनाइ कहौं 'हौं गुलामु रामको' ॥
नाथहूँ न अपनायो, लोक झूठी ह्वै परी, पै प्रभुहू तें प्रबल प्रतापु प्रभूनामको ।
आपनीं भलाई भलो कीजै तौ भलाई, न तौ तुलसीको खुलैगो खजानो खोटे दामको ॥

जोग न बिरागु, जप, जाग, तप, त्यागु, ब्रत, तीरथ न धर्म जानौं, बेदबिधि किमि है ।
तुलसी-सो पोच न भयो है, नहि व्हेहै कहूँ, सोचैं सब, याके अघ कैसे प्रभु छमिहैं ॥
मेरें तो न डरु, रघुबीर! सुनौ, साँची कहौं, खल अनखैहैं तुम्हैं, सज्जन न गमिहैं ।
भले सुकृतीके संग मिहि तुलाँ तौलिए तौ, नामकें प्रसाद भारू मेरी ओर नमिहैं ॥

१०१ जातिके, सुजातिके, कुजातिके पेटागि बस खाए टूक सबके, बिदित बात दुनीं सो ।
मानस-बचन-कायँ किए पाप सतिभायँ, रामको कहाइ दासु दगाबाज पुनी सो ।
रामनामको प्रभाउ, पाउ, महिमा, प्रतापु, तुलसी-सो जग मनिअत महामुनी-सो ।
अतिहीं अभागो, अनुरागत न रामपद, मूढ़! एतो बड़ो अचिरिजु देखि-सुनी सो ॥

जायो कुल मंगन, बधावनो बजायो, सुनि भयो परितापु पापु जननी-जनकको ॥
बारेतें ललात-बिललात द्वार-द्वार दीन, जानत हो चारि फल चारि ही चनकको ॥
तुलसी सो साहेब समर्थको सुसेवकु है, सुनत सिहात सोचु बिधिहू गनकको ।
नामु राम! रावरो सयानो किधौं बावरो, जो करत गिरींतें गरु तृनतें तनकको ॥

१०२ बेदहुँ पुरान कही, लोकहहूँ बिलोकिअत, रामनाम ही सों रीझें सकल भलाई है ।
कासीहू करत उपदेसत महेसु सोई, साधना अनेक चितई न चित लाई है ॥
छाछीको ललात जे, ते रामनामकें प्रसाद, खात, खुनसात सोंधे दूधकी मलाई है ।
रामराज सुनिअत राजनीतिकी अवधि, नामु राम! रावरो तौ चामकी चलाई है ॥

सोच-संकटनि सोचु संकटु परत, जर जरत, प्रभाउ नाम ललित ललामको ।
बूड़िऔ तरति बिगरीऔ सुधरति बात, होत देखि दाहिनो सुभाउ बिधि बामको ॥
भागत अभागु, अनुरागत बिरागु, भागु जागत आलसि तुलसीहू-से निकामको ।
धाई धारि फिरिकै गोहारि हितकारी होति, आई मीचु मिटति जपत रामनामको ॥

१०३ आँधरो अधम ज़ड़ जाजरो जराँ जवनु सूकरकें सावक ढकाँ ढकेल्यो मगमें ।
गिरो हिएँ हहरि 'हराम हो, हराम हन्यो' हाय! हाय करत परीगो कालफगमें ॥
'तुलसी'बिसोक ह्वै त्रिलोकपति लोक गयो नामकें प्रताप, बात बिदित है जगमें ।
सोई रामनामु जो सनेहसों जपत जनु, ताकी महिमा क्यों कही है जाति अगमें ॥

जापकी न तप-खपु कियो, न तमाइ जोग, जाग न बिराग, त्याग, तीरथ न तनको ।
भाईको भरोसो न खरो-सो बैरु बैरीहू सों, बलु अपनो न, हितू जननी न जनको ॥
लोकको न डरु, परलोकको न सोचु, देव- सेवा न सहाय, गर्बु धामको न धनको ।
रामही के नामते जो होई सोई नीको लागै, ऐसोई सुभाउ कछु तुलसीके मनको ॥

१०४ ईसु न, गनेसु न, दिनेसु न, धनेसु न, सुरेसु, सुर, गौरि, गिरापति नहि जपने ।
तुम्हरेई नामको भरोसो भव तरिबेको, बैठें-उठे, जागत-बागत, सोएँ सपनें ॥
तुलसी है बावरो सो रावरोई रावरी सौं, रावरेऊ जानि जियँ कीजिए जु अपने ।
जानकीरमन मेरे! रावरें बदनु फेरें, ठाउँ न समाउँ कहाँ, सकल निरपने ॥

जाहिर जहानमें जमानो एक भाँति भयो, बेंचिए बिबुधधेनु रासभी बेसाहिए ।
ऐसेऊ कराल कलिकालमें कृपाल! तेरे नामकें प्रताप न त्रिताप तन दाहिए ॥
तुलसी तिहारो मन-बचन-करम, तेंहि नातें नेह-नेमु निज ओरतें निबाहिए ।
रंकके नेवाज रघुराज! राजा राजनिके, उमरि दराज महाराज तेरी चाहिए ॥

१०५ स्वारथ सयानप, प्रपंचु परमारथ, कहायो राम! रावरो हौं, जानत जहान है ।
नामकें प्रताप बाप! आजु लौं निबाही नीकें, आगेको गोसाई! स्वामी सबल सुजान है ॥
कलिकी कुचालि देखि दिन-दिन दूनी, देव! पाहरूई चोर हेरि हिए हहरान है ।
तुलसीकी , बलि, बार-बारहीं सँभार कीबी, जद्यपि कृपानिधानु सदा सावधान है ॥

दिन-दिन दूनो देखि दारिदु, दुकालु, दुखु, दुरित दुराजु सुख-सुकृत सकोच है ।
मागें पैंत पावत पचारि पातकी प्रचंड, कालकी करालता, भलेको होत पोच है ॥
आपनें तौ एकु अवलंबु अंब डिंभ ज्यों, समर्थ सीतानाथ सब संकट बिमोच है ।
तुलसीकी साहसी सराहिए कृपाल राम! नामकें भरोसें परिनामको निसोच है ॥

१०६ मोह-मद मात्यो, रात्यो कुमति-कुनारिसों, बिसारि बेद-लोक-लाज, आँकरो अचेतु है ।
भावे सो करत, मुँह आवै सो कहत, कछु काहूकी सहत नाहिं, सरकश हेतु है ॥
तुलसी अधिक अधमाई हू अजामिलतें, ताहूमें सहाय कलि कपटनिकेतु है ।
जैबेको अनेक टेक, एक टेक ह्वैबेकी, जो पेट-प्रियपूत हित रामनामु लेतु है ॥

कलिवर्णन

जागिए न सोइए, बिगोइए जनमु जाँ, दुख, रोग रोइए, कलेसु कोह-कामको ।
राजा-रंक, रागी ओ बिरागी, भूरिभागी, ये अभागी जीव जरत, प्रभाउ कलि बामको ॥
तुलसी! कबंध-कैसो धाइबो बिचारु अंध! धंध देखिअत जग, सोचु परिनामको ।
सोइबो जो रामके सनेहकी समाधि-सुखु, जागिबो जो जीह जपै नीकें रामनामको ॥

१०७ बरन-धरम गयो, आश्रम निवासु तज्यो, त्रासन चकित सो परावनो परो-सो है ।
करमु उपासना कुबासनाँ बिनास्यो ग्यानु, बचन-बिराग, बेष जगतु हरो-सो है ॥
गोरख जगायो जोगु, भगति भगायो लोगु, निगम-नियोगतें सो केल ही छरो-सो है ।
कायँ-मन-बचन सुभायँ तुलसी है जाहि रामनामको भरोसो, ताहिको भरोसो है ॥

बेद-पुरान बिहाइ सुपंथु, कुमारग, कोटि कुचालि चली है ।
कालु कराल, नृपाल कृपाल न, राजसमाजु बड़ोई छली है ॥
बर्न-बिभाग न आश्रमधर्म, दुनी दुख-दोष-दरिद्र-दली है ।
स्वारथको परमारथको कलि रामको नामप्रतापु बली है ॥

१०८ न मिटे भवसंकट, दुर्घट हे तप, तीरथ जन्म अनेक अटो ।
कलिमें न बिरागु, न ग्यानु कहूँ, सबु लागत फोकट झूठ-जटो ॥
नटु ज्यों जनि पेट-कुपेटक कोटिक चेटक-कौतुक-ठाट ठटो ।
तुलसी जो सदा सुखु चाहिअ तौ, रसनाँ निसि-बासर रामु रटो ॥

दम दुर्गम , दान, दया, मख, कर्म, सुधर्म अधीन सबै धनको ।
तप, तीरथ, साधन, जोग, बिरागसों होइ, नहीं दृढ़ता तनको ॥
कलिकाल करालमुं'रामकृपालु' यहै अवलंबु बड़ो मनको ।
'तुलसी'सब संजमहीन सबै, एक नाम-अधारु सदा जनको ॥

१०९ पाइ सुदेह बिमोह-नदी-तरनी न लही, करनी न कछू की ।
रांकथा बरनी न बनाइ, सुनी न कथा प्रह्लाद न ध्रूकी ॥
अब जोर जरा जरि गातु गयो, मन मानि गलानि कुबानि न मूकी ।
नीकें कै ठीक दई तुलसी, अवलंब बड़ी उर आखर दूकी ॥

राम-नाम-महिमा

रामु बिहाइ 'मरा' जपतें बिगरी सुधरी कबिकोकिलहू की ।
नामहि तें गजकी, गनिकाकी, अजामिलकी चलि गै चलचूकी ॥
नामप्रताप बड़ें कुसमाज बजाइ रही पति पांडुबधूकी ।
ताको भलो अजहूँ 'तुलसी' जेहि प्रीति-प्रतीति है आखर दूकी ॥

नाम अजामिल-से खल तारन, तारन बारन-बारबधुको ।
नाम हरे प्रहलाद-बिषाद, पिता-भय-साँसति सागरु सूको ॥
नामसों प्रीति-प्रतीति बिहीन गिल्यो कलिकाल कराल, न चूको ।
राखिहैं रामु सो जासु हिएँ तुलसी हुलसै बलु आखर दूको

११० जीव जहानमें जायो जहाँ, सो तहाँ, 'तुलसी' तिहुँ दाह दहो है ।
दोसु न काहु, कियो अपनो, सपनेहूँ नहीं सुखलेसु लहो है ॥
रामके नामतें होउ सो होउ, न सोउ हिएँ, रसना हीं कहो है ।
कियो न कछू, करिबो न कछू, कहिबो न कछू, मरिबोइ रहो है ॥

जीजे न ठाउँ, न आपन गाउँ, सुरालयहू को न संबलु मेरें ।
नामु रटो, जमबास क्यों जाउँ को आइ सकै जमकिंकरु नेरें ॥
तुम्हरो सब भाँति तुम्हारिअ सौं, तुम्हही बलि हौ मोको ठाहरु हेरें ।
बैरख बाँह बसाइए पै तुलसी-घरु ब्याध-अजामिल-खेरें ॥

का कियो जोगु अजामिलजू, गनिकाँ मति पेम पगाई ।
ब्याधको साधुपनो कहिए, अपराध अगाधनि में ही जनाई ॥
करुनाकरकी करुना करुना हित, नाम-सुहेत जो देत दगाई ।
काहेको खीझिअ रीझिअ पै, तुलसीहु सों है, बलि सोइ सगाई ॥

१११ जे मद-मार-बिकार भरे, ते अचार-बिचार समीप न जाहीं ।
है अभिमानु तऊ मनमें, जनु भाषिहै दूसरे दीनन पाहीं? ॥
जौ कछु बात बनाइ कहौं, तुलसी तुम्हमें, तुम्हहू उर माहीं ।
जानकीजीवन! जानत हौ, हम हैं तुम्हरे, तुम में, सकु नाहीं ॥

दानव-देव, अहीस-महीस, महामुनि-तापस, सिध्द-समाजी ।
जग-जाचक, दानि दुतीय नहीं, तुम्ह ही सबकी सब राखत बाजी ॥
एते बड़े तुलसीस! तऊ सबरीके दिए बिनु भूख न भाजी ।
राम गरीबनेवाज! भए हौ गरीबनेवाज गरीब नेवाजी ॥

११२ किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट, चाकर, चपल नट, चोर, चार चेटकी ।
पेटको पढ़त गुन गढ़त, चढ़त गिरि, अटत गहन-गन अहन अखेटकी ॥
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि, पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी ।
'तुलसी' बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें, आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी ॥

खेती न किसानको, भिखारीको न भीख, बलि, बनिकको बनिज, न चाकरको चाकरी ।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस, कहैं एक एकन सों 'कहाँ जाई, का करी?' ॥
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत, साँकरे सबै पै, राम! रावरें कृपा करी ।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु! दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी ॥

११३ कुल- करतूति-भूति-कीरति-सुरूप-गुन- जौबन जरत जुर, परै न कल कहीं ।
राजकाजु कुपथ, कुसाज भोग रोग ही के, बेद-बुध बिद्या पाइ बिबस बलकहीं ॥
गति तुलसीकी लखै न कोउ, जो करत पब्बयतें छार, छारे पब्बय पलक हीं ।
कासों कीजै रोषु दीजै काही, पाहि राम! कियो कलिकाल कुलि खललु खलक हीं ॥

बबुर-बहेरेको बनाइ बागु लाइयत, रूँधिबेको सोई सुरतरु काटियतु है ।
गारी देत नीच हरिचंदहू दधीचिहू को, आपने चना चबाइ हाथ चाटियतु है ॥
आपु महापातकी, हँसत हरि-हरहू को, आपु है अभागी, भरिभागी डाटियतु है ।
कलिको कलुष मन मलिन किए महत, मसककी पाँसुरी पयोधि पाटियतु है ॥

११४ सुनिए कराल कलिकाल भूमिपाल! तुम्ह, जाहि घालो चाहिए, कहौ धौं राखै ताहि को ।
हौ तौ दीन दूबरो, बिगारो-ढारी रावरो न, मैंहू तैंहू ताहिको, सकल जगु जाहिको ॥
काम, कोहू लाइ कै देखाइयत आँखि मोहि, एते मान अकसु कीबेको आपु आहि को ॥
साहेबु सुजान, जिन्ह स्वानहूँ को पच्छु कियो, रामबोला नामु, हौं गुलामु रामसाहिको ॥

साँची कहौ, कलिकाल कराल!मैं ढारो-बिगारो तिहारो कहा है ।
कामको, कोहको, लोभको, मोहको मोहिसों आनि प्रपंचु रहा है ॥
हौ जगनायकु लायक आजु, पै मेरिऔ टेव कुटेव महा है ।
जानकीनाथ बिना 'तुलसी' जग दूसरेसों करिहौं न हहा है ॥

११५ भागीरथी-जलु पानकरौं, अरु नाम कै रामके लेत नितै हौं ।
मोको न लेनो, न देनो कछू, कलि! भूली न रावरी ओर चितेहौ ॥
जानि कै जोरु करौ, परिनाम तुम्है पछितैहौ, पै मैं न भितेहौं ।
ब्राह्मन ज्यों उगिल्यो उरगारि, हौं त्यौं हीं तिहारें हिएँ न हितैहौं ॥

राजमरालके बालक पेलि कै पालत-लालत खूसरको ।
सुचि सुंदर सालि सकेलि, सो बारि कै बीजु बटोरत ऊसरको ॥
गुन-ग्यान-गुमानु, भँभेरि बड़ी, कलपद्रुमु काटत मूसरको ।
कलिकाल बिचारु अचारु हरो, नहिं सूझै कछू धमधूसरको ॥

११६ कीबे कहा, पढ़िबेको कहा फलु, बूझि न बेदको भेदु बिचारैं ।
स्वारथको परमारथको कलि कामद रामको नामु बिसारैं ॥
बाद-बिबाद बिषादु बढ़ाइ कै छाती पराई औ आपनी जारैं ।
चारिहुको, छहुको, नवको, दस-आठको पाठु कुकाठु ज्यों फारैं ॥

आगम बेद, पुरान बखानत मारग कोटिन, जाहिं न जाने ।
जे मुनि ते पुनि आपुहि आपुको ईसु कहावत सिध्द सयाने ॥
धर्म सबै कलिकाल ग्रसे, जप, जोग बिरागु लै जीव पराने ।
को करि सोचु मरै 'तुलसी' हम जानकीनाथके हाथ बिकाने ॥

११७ धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ ।
काहूकी बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ ॥
तुलसी सरनाम गुलामु है रामको, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ ।
माँगि कै खैबौ, मसीतको सोइबो, लैबोको एकु न दैबेको दोऊ ॥

मेरें जाति-पाँति न चहौं काहूकी जाति-पाँति, मेरे कोऊ कामको न हौं काहूके कामको ।
लोकु परलोकु रघुनाथही के हाथ सब, भारी है भरोसो तुलसीके एक नामको ॥
अतिही अयाने उपखानो नहि बूझैं लोग, 'साह ही को गोतु गोतु होत है गुलामको ॥
साधु कै असाधु, कै भलो कै पोच, सोचु कहा, काकाहूके द्वार परौं, जो हौं सो हौं रामको ॥

कोऊ कहै, करत कुसाज, दगाबाज बड़ो, कोऊ कहै रामको गुलामु खरो खूब है ।
साधु जानैं महासाधु, खल जानैं महाखल, बानी झूँठी-साँची कोटि उठत हबूब है ॥
चहत न काहूसों न कहत काहूकी कछू, सबकी सहत , उर अंतर न ऊब है ।
तुलसीको भलो पोच हाथ रघुनाथही के रामकी भगति-भूमि मेरी मति दूब है ॥

११८ जागैं जोगी-जंगम, जती-जमाती ध्यान धरैं डरैं उर भारी लोभ, मोह, कोह, कामके ।
जागैं राजा राजकाज, सेवक-समाज, साज, सोचैं सुनि समाचार बड़े बैरी बामके ॥
जागैं बुध बिद्या हित पंडित चकित चित, जागैं लोभी लालच धरनि , धन धामके ।
जागैं भोगी भोग हीं, बियोगी, रोगी सोगबस, सोवैं सुख तुलसी भरोसे एक रामके ॥

रामु मातु, पितु, बंधु, सुजन, गुरु, पूज्य, परमहित ।
साहेबु, सखा, सहाय, नेह-नाते, पुनीत चित ॥
देसु, कोसु, कुलु, कर्म, दर्म, धनु, धाम, धरनि, गति ।
जाति-पाँति सब भाँति लागि रामहि हमारि पति ॥
परमारथु, स्वारथु, सुजसु, सुलभ राम तें सकल फल । कह तुलसिदासु, अब, जब–कबहूँ एक रामते मोर भल ॥
रामगुणगान



११९ महाराज, बलि जाउँ, राम! सेवक-सुखदायक ।
महाराज, बलि जाउँ, राम!सुन्दर सब लायक ॥
महाराज, बलि जाउँ, राम! सब संकट–मोचन । महाराज, बलि जाउँ, राम! राजीवबिलोचन ॥
बलि जाउँ, राम! करुनायतन, प्रनतपाल, पातकहरन ।
बलि जाउँ, राम! कलि-भय-बिकल तुलसिदासु राखिअ सरन ॥

जय ताड़का-सुबाहु-मथन मारीच-मानहर!
मुनिमख-रच्छन-दच्छ, सिलातारन, करुनाकर!
नृपगन-बल-मद सहित संभु-कोदंड-बिहंडन!
जय कुठारधरदर्पदलन दिनकरकुलमंडन ॥
जय जनकनगर-आनंदप्रद, सुखसागर, सुषमाभवन ।
कह तुलसिदासु सुरमुकुमनि, जय जय जय जानकिरमन ॥

१२० जय जयंत-जयकर, अनंत, सज्जनजनरंजन!
जय बिराध-बध-बिदुष, बिबुध-मुनिगन-भय-भंजन ॥
जय निसिचरी-बिरूप-करन रघुबंसबिभूषन!
सुभट चतुर्दस-सहस दलन त्रिसिरा-खर-दूषन ॥
जय दंडकबन-पावन-करन, तुलसिदास-संसय-समन!
जगबिदित जगतमनि, जयति जय जय जय जय जानकिरमन!

जय मायामृगमथन, गीध-सबरी-उध्दारन!
जय कबंधसूदन बिसाल तरु ताल बिदारन!
दवन बालि बलसालि, थपन सुग्रीव, संतहित!
कपि कराल भट भालु कटक पालन, कृपालचित!
जय सिय-बियोग-दुख हेतु कृत-सेतुबंध बारिधिदमन!
दससीस बिभीषन अभयप्रद, जय जय जय जानकिरमन!

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Last Updated : October 17, 2011

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