दोहे - १५१ से २००

रहीम मध्यकालीन सामंतवादी कवि होऊन गेले. रहीम यांचे व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न होते. तसेच ते सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, कवि शिवाय विद्वानसुद्धां होते.


यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय ।
बैर प्रीति अभ्यास जस, होत होत ही होय ॥१५१॥

ये रहीम फीके दुवौ, जानि महा संतापु ।
ज्यों तिय कुच आपन गहे, आपु बड़ाई आपु ॥१५२॥

याते जान्यो मन भयो, जरि बरि भसम बनाय ।
रहिमन जाहि लगाइए, सोइ रूखो है जाय ॥१५३॥

रन बन व्याधि विपत्ति में, रहिमन मरै न रोय ।
जो रच्छक जननी जठर, सो हरि गए कि सोय ॥१५४॥

रहिमन अपने पेट सों, बहुत कह्यो समुझाय ।
जो तू अनखाए रहे, तो सों को अनखाय ॥१५५॥

रहिमन अति न कीजिए, गहि रहिए निज कानि ।
सैंजन अति फूलै तऊ, डार पात की हानि ॥१५६॥

वहै प्रति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत ।
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत ॥१५७॥

रहिमन अपने गोत को, सबै चहत उत्साय ।
मृग उछरत आकास को, भूमी खनत बराह ॥१५८॥

रहिमन अब वे विरिछ कहं, जिनकी छांह गंभीर ।
बागन बिच बिच देखियत, सेहुड़ कंज करीर ॥१५९॥

रहिमन सूधी चाल तें, प्यादा होत उजीर ।
फरजी मीर न है सके, टेढ़े की तासीर ॥१६०॥

रहिमन खोटि आदि की, सो परिनाम लखाय ।
जैसे दीपक तम भरवै, कज्जल वमन कराय ॥१६१॥

रहिमन राज सराहिए, ससि सुखद जो होय ।
कहा बापुरो भानु है, तपै तरैयन खोय ॥१६२॥

रहिमन आंटा के लगे, बाजत है दिन रात ।
घिउ शक्कर जे खात हैं, तिनकी कहां बिसात ॥१६३॥

रहिमन एक दिन वे रहे, बीच न सोहत हार ।
वायु जो ऐसी बस गई, बीचन परे पहार ॥१६४॥

रहिमन रिति सराहिए, जो घत गुन सम होय ।
भीति आप पै डारि कै, सबै मियावे तोय ॥१६५॥

रीति प्रीति सबसों भली, बैर न हित मित गोत ।
रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत ॥१६६॥

रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि ।
दूध कलारी कर गहे, मद समुझैं सब ताहि ॥१६७॥

समय लाभ समय लाभ नहिं, समय चूक सम चूक ।
चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक ॥१६८॥

रहिमन नीच प्रसंग ते, नित प्रति लाभ विकार ।
नीर चोरावै संपुटी, भारू सहे धारिआर ॥१६९॥

रहिमन दानि दरिद्रतर, तऊ जांचिबे योग ।
ज्यों सरितन सूखा करे, कुआं खनावत लोग ॥१७०॥

रहिमन तीर की चोट ते, चोट परे बचि जाय ।
नैन बान की चोट तैं, चोट परे मरि जाय ॥१७१॥

रुप बिलोकि रहीम तहं, जहं तहं मन लगि जाय ।
याके ताकहिं आप बहु, लेत छुड़ाय, छुड़ाय ॥१७२॥

सदा नगारा कूच का, बाजत आठो जाम ।
रहिमन या जग आइकै, का करि रहा मुकाम ॥१७३॥

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात ।
सदा रहै नहीं एक सी, का रहीम पछितात ॥१७४॥

रहिमन आलस भजन में, विषय सुखहिं लपटाय ।
घास चरै पसु स्वाद तै, गुरु गुलिलाएं खाय ॥१७५॥

रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार ।
चोरी करि होरी रची, भई तनिक में छार ॥१७६॥

रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय ।
बीच उखारी रसभरा, रह काहै ना होय ॥१७७॥

रहिमन रिस को छांड़ि कै, करो गरीबी भेस ।
मीठो बोलो, नै चलो, सबै तुम्हारो देस ॥१७८॥

रहिमन मारगा प्रेम को, मर्मत हीत मझाव ।
जो डिरिहै ते फिर कहूं, नहिं धरने को पांव ॥१७९॥

रहिमन सुधि सब ते भली, लगै जो बारंबार ।
बिछुरे मानुष फिर मिलें, यहै जान अवतार ॥१८०॥

रहिमन चाक कुम्हार को, मांगे दिया न देई ।
छेद में ड़डा डारि कै, चहै नांद लै लेई ॥१८१॥

रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय ।
हित अनहित मा जगत में, जानि परत सब कोय ॥१८२॥

रहिमन रजनी ही भली, पिय सों होय मिलाप ।
खरो दिवस केहि काम जो, रहिबो आपुहि आप ॥१८३॥

रहिमन बात अगम्य की, कहन सुनन की नाहिं ।
जो जानत सो कहत नहिं, कहत ते जानत नाहिं ॥१८४॥

रहिमन अंसुवा नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ ।
जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि देइ ॥१८५॥

रहिमन मंदत बड़ेन की, लघुता होत अनूप ।
बलि मरद मोचन को गए, धरि बावन को रूप ॥१८६॥

रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट है जात ।
नारायण हू को भयो, बावन अंगूर गात ॥१८७॥

समय दसा कुल देखिकै, सबै करत सनमान ।
रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान ॥१८८॥

सरवर के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम ।
पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम ॥१८९॥

रहिमन ठठरी धूर की, रही पवन ते पूरि ।
गांठ युक्ति की खुलि गई, अन्त धूरि की धूरि ॥१९०॥

राम राम जान्यो नहीं, भइ पूजा में हानि ।
कहि रहीम क्यों मानिहैं, जम के किंकरकानि ॥१९१॥

रहिमन सो न कछू गनै, जासों लागो नैन ।
सहि के सोच बेसाहियो, गयो हाथ को चैन ॥१९२॥

रूप कथा पद चारू पट, कंचन दोहा लाल ।
ज्यों ज्यों निरखत सूक्ष्म गति, मोल रहीम बिसाल ॥१९३॥

लिखी रहीम लिलार में, भई आन की आन ।
पद कर काटि बनारसी, पहुंचे मगहर थान ॥१९४॥

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय ।
टूटे से फिर न मिले, मिले तो गांठ पड़ जाय ॥१९५॥

रहिमन धरिया रहंट की, त्यों ओछे की डीठ ।
रीतेहि सन्मुख होत है, भरी दुखावै पीठ ॥१९६॥

रहिमन लाख भली करो, अगुने अपुन न जाय ।
राग सुनत पय पुअत हूं, सांप सहज धरि खाय ॥१९७॥

रहिमन तुम हमसों करी, करी करी जो तीर ।
बाढ़े दिन के मीत हो, गाढ़े दिन रघुबीर ॥१९८॥

रहिमन बिगरी आदि की, बनै न खरचे दाम ।
हरि बाढ़े आकास लौं, तऊ बावने नाम ॥१९९॥

रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच ।
मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्हो हाड़ दधीच ॥२००॥

रहिमन थोरे दिनन को, कौन करे मुंह स्याह ।
नहीं छनन को परतिया, नहीं करन को ब्याह ॥२०१॥

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Last Updated : November 07, 2011

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