दोहे - ४०१ से ४५०

रहीम मध्यकालीन सामंतवादी कवि होऊन गेले. रहीम यांचे व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न होते. तसेच ते सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, कवि शिवाय विद्वानसुद्धां होते.


उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान ।
सावन दिन मनभावन, करत पयान ॥४०१॥

समुझति सुमुखि सयानी, बादर झूम ।
बिरहिन के हिय भभतक, तिनकी धूम ॥४०२॥

उलहे नये अंकुरवा, बिन बलवीर ।
मानहु मदन महिप के, बिन पर तीर ॥४०३॥

सुगमहि गातहि गारन, जारन देह ।
अगम महा अति पारन, सुघर सनेह ॥४०४॥

मनमोहन तुव मुरति, बेरिझबार ।
बिन पियान मुहि बनिहै, सकल विचार ॥४०५॥

झूमि-झूमि चहुँ ओरन, बरसत मेह ।
त्यों त्यों पिय बिन सजनी, तरसत देह ॥४०६॥

झूँठी झूँठी सौंहे, हरि नित खात ।
फिर जब मिलत मरू के, उतर बतात ॥४०७॥

डोलत त्रिबिध मरुतवा, सुखद सुढार ।
हरि बिन लागब सजनी, जिमि तरवार ॥४०८॥

कहियो पथिक संदेसवा, गहि के पाय ।
मोहन तुम बिन तनिकहु रह्यौ न जाय ॥४०९॥

जबते आयौ सजनी, मास असाढ़ ।
जानी सखि वा तिन के, हिम की गाढ़ ॥४१०॥

मनमोहन बिन तिय के, हिय दुख बाढ़ ।
आये नन्द दिठनवा, लगत असाढ़ ॥४११॥

वेद पुरान बखानत, अधम उधार ।
केहि कारन करूनानिधि, करत विचार ॥४१२॥

लगत असाढ़ कहत हो, चलन किसोंर ।
घन घुमड़े चहुँ औरन, नाचत मोर ॥४१३॥

लखि पावस ॠतु सजनी, पिय परदेस ।
गहन लग्यौ अबलनि पै, धनुष सुरेस ॥४१४॥

बिरह बढ्यौ सखि अंगन, बढ्यौ चवाव ।
करयो निठुर नन्दनन्दन, कौन कुदाव ॥४१५॥

भज्यो कितौ न जनम भरि, कितनी जाग ।
संग रहत या तन की, छाँही भाग ॥४१६॥

भज र मन नन्दनन्दन, विपति बिदार ।
गोपी-जन-मन-रंजन, परम उदार ॥४१७॥

जदपि बसत हैं सजनी, लाखन लोग ।
हरि बिन कित यह चित को, सुख संजोग ॥४१८॥

जदपि भई जल पूरित, छितव सुआस ।
स्वाति बूँद बिन चातक, मरत-पियास ॥४१९॥

देखन ही को निसदिन, तरफत देह ।
यही होत मधुसूदन, पूरन नेह ॥४२०॥

कब तें देखत सजनी, बरसत मेह ।
गनत न चढ़े अटन पै, सने सनेह ॥४२१॥

विरह विथा तें लखियत, मरिबौं झूरि ।
जो नहिं मिलिहै मोहन, जीवन मूरि ॥४२२॥

उधौं भलौ न कहनौ, कछु पर पूठि ।
साँचे ते भे झूठे, साँची झूठि ॥४२३॥

भादों निस अँधियरिया, घर अँधियार ।
बिसरयो सुघर बटोही, शिव आगार ॥४२४॥

हौं लखिहौ री सजनी, चौथ मयंक ।
देखों केहि बिधि हरि सों, लगत कलंक ॥४२५॥

इन बातन कछु होत न, कहो हजार ।
सबही तैं हँसि बोलत, नन्दकुमार ॥४२६॥

कहा छलत को ऊधौ, दै परतीति ।
सपनेहूं नहिं बिसरै, मोहनि-मीति ॥४२७॥

बन उपवन गिरि सरिता, जिती कठोर ।
लगत देह से बिछुरे, नन्द किसोर ॥४२८॥

भलि भलि दरसन दीनहु, सब निसि टारि ।
कैसे आवन कीनहु, हौं बलिहारि ॥४२९॥

अदिहि-ते सब छुटगो, जग व्यौहार ।
ऊधो अब न तिनौं भरि, रही उधार ॥४३०॥

घेर रह्यौ दिन रतियाँ, विरह बलाय ।
मोहन की वह बतियाँ, ऊधो हाय ॥४३१॥

नर नारी मतवारी, अचरज नाहिं ।
होत विटपहू नागौ, फागुन माहि ॥४३२॥

सहज हँसोई बातें, होत चवाइ ।
मोहन कों तन सजनी, दै समुझाइ ॥४३३॥

ज्यों चौरसी लख में, मानुष देह ।
त्योंही दुर्लभ जग में, सहज सनेह ॥४३४॥

मानुष तन अति दुर्लभ, सहजहि पाय ।
हरि-भजि कर संत संगति, कह्यौ जताय ॥४३५॥

अति अदभुत छबि- सागर, मोहन-गात ।
देखत ही सखि बूड़त, दृग-जलजात ॥४३६॥

निरमोंही अति झूँठौ, साँवर गात ।
चुभ्यौ रहत चित कौधौं, जानि न जात ॥४३७॥

बिन देखें कल नाहिन, यह अखियान ।
पल-पल कटत कलप सों, अहो सुजान ॥४३८॥

जब तब मोहन झूठी, सौंहें खात ।
इन बातन ही प्यारे, चतुर कहात ॥४३९॥

ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन प्रान ।
ऊधो यह संदेसवा, अहक कहान ॥४४०॥

मोहि मीत बिन देखें, छिन न सुहात ।
पल पल भरि भरि उलझत, दृग जल जात ॥४४१॥

जब तें बिछरे मितवा, कहु कस चैन ।
रहत भरयौ हिय साँसन, आँसुन नैन ॥४४२॥

कैसे जावत कोऊ, दूरि बसाय ।
पल अन्तरहूं सजनी, रह्यो न जाय ॥४४३॥

जान कहत हो ऊधौ, अवधि बताइ ।
अवधि अवधि-लौं दुस्तर, परत लखाइ ॥४४४॥

मिलनि न बनि है भाखत, इन इक टूक ।
भये सुनत ही हिय के, अगनित टूक ॥४४५॥

गये हरि हरि सजनी, बिहँसि कछूक ।
तबते लगनि अगनि की, उठत भभूक ॥४४६॥

होरी पूजत सजनी, जुर नर नारि ।
जरि-बिन जानहु जिय में, दई दवारि ॥४४७॥

दिस बिदसान करत ज्यों, कोयल कू ।
चतुर उठत है त्यों त्यों, हिय में हूक ॥४४८॥

जबते मोहन बिछुरे, कछु सुधि नाहिं ।
रहे प्रान परि पलकनि, दृग मग माहिं ॥४४९॥

उझिक उझिक चित दिन दिन, हेरत द्वार ।
जब ते बिछुरे सजनी, नेन्द्कुमार ॥४५०॥

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Last Updated : November 07, 2011

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