दोहे - ३०१ से ३५०

रहीम मध्यकालीन सामंतवादी कवि होऊन गेले. रहीम यांचे व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न होते. तसेच ते सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, कवि शिवाय विद्वानसुद्धां होते.


मानो मूरत मोम की, धरै रंग सुर तंग ।
नैन रंगीले होते हैं, देखत बाको रंग ॥३०१॥

भाटा बरन सु कौजरी, बेचै सोवा साग ।
निलजु भई खेलत सदा, गारी दै दै फाग ॥३०२॥

बर बांके माटी भरे, कौरी बैस कुम्हारी ।
द्वै उलटे सखा मनौ, दीसत कुच उनहारि ॥३०३॥

कुच भाटा गाजर अधर, मुरा से भुज पाई ।
बैठी लौकी बेचई, लेटी खीरा खाई ॥३०४॥

राखत मो मन लोह-सम, पारि प्रेम घन टोरि ।
बिरह अगिन में ताइकै, नैन नीर में बोरि ॥३०५॥

परम ऊजरी गूजरी, दह्यो सीस पै लेई ।
गोरस के मिसि डोलही, सो रस नेक न देई ॥३०६॥

रस रेसम बेचत रहै, नैन सैन की सात ।
फूंदी पर को फौंदना, करै कोटि जिम घात ॥३०७॥

छीपिन छापो अधर को, सुरंग पीक मटि लेई ।
हंसि-हंसि काम कलोल के, पिय मुख ऊपर देई ॥३०८॥

नैन कतरनी साजि कै, पलक सैन जब देइ ।
बरुनी की टेढ़ी छुरी, लेह छुरी सों टेइ ॥३०९॥

सुरंग बदन तन गंधिनी, देखत दृग न अघाय ।
कुच माजू, कुटली अधर, मोचत चरन न आय ॥३१०॥

मुख पै बैरागी अलक, कुच सिंगी विष बैन ।
मुदरा धारै अधर कै, मूंदि ध्यान सों नैन ॥३११॥

सकल अंग सिकलीगरनि, करत प्रेम औसेर ।
करैं बदन दर्पन मनो, नैन मुसकला फेरि ॥३१२॥

घरो भरो धरि सीस पर, बिरही देखि लजाई ।
कूक कंठ तै बांधि कै, लेजूं लै ज्यों जाई ॥३१३॥

बनजारी झुमकत चलत, जेहरि पहिरै पाइ ।
वाके जेहरि के सबद, बिरही हर जिय जाइ ॥३१४॥

रहसनि बहसनि मन रहै, घोर घोर तन लेहि ।
औरत को चित चोरि कै, आपुनि चित्त न देहि ॥३१५॥

निरखि प्रान घट ज्यौं रहै, क्यों मुख आवे वाक ।
उर मानौं आबाद है, चित्त भ्रमैं जिमि चाक ॥३१६॥

हंसि-हंसि मारै नैन सर, बारत जिय बहुपीर ।
बोझा ह्वै उर जात है, तीर गहन को तीर ॥३१७॥

गति गरुर गमन्द जिमि, गोरे बरन गंवार ।
जाके परसत पाइयै, धनवा की उनहार ॥३१८॥

बिरह अगिनि निसिदिन धवै, उठै चित्त चिनगारि ।
बिरही जियहिं जराई कै, करत लुहारि लुहारि ॥३१९॥

चुतर चपल कोमल विमल, पग परसत सतराइ ।
रस ही रस बस कीजियै, तुरकिन तरकि न जाइ ॥३२०॥

सुरंग बरन बरइन बनी, नैन खवाए पान ।
निस दिन फेरै पान ज्यों, बिरही जन के प्रान ॥३२१॥

मारत नैन कुरंग ते, मौ मन भार मरोर ।
आपन अधर सुरंग ते, कामी काढ़त बोर ॥३२२॥

रंगरेजनी के संग में, उठत अनंग तरंग ।
आनन ऊपर पाइयतु, सुरत अन्त के रंग ॥३२३॥

नैन प्याला फेरि कै, अधर गजक जब देत ।
मतवारे की मति हरै, जो चाहै सो लेती ॥३२४॥

जोगति है पिय रस परस, रहै रोस जिय टेक ।
सूधी करत कमान ज्यों, बिरह अगिन में सेक ॥३२५॥

बेलन तिली सुवाय के, तेलिन करै फुलैल ।
बिरही दृष्टि कियौ फिरै, ज्यों तेली को बैल ॥३२६॥

भटियारी अरु लच्छमी, दोऊ एकै घात ।
आवत बहु आदर करे, जान न पूछै बात ॥३२७॥

अधर सुधर चख चीखने, वै मरहैं तन गात ।
वाको परसो खात ही, बिरही नहिन अघात ॥३२८॥

हरी भरी डलिया निरखि, जो कोई नियरात ।
झूठे हू गारी सुनत, सोचेहू ललचात ॥३२९॥

गरब तराजू करत चरव, भौह भोरि मुसकयात ।
डांडी मारत विरह की, चित चिन्ता घटि जात ॥३३०॥

परम रूप कंचन बरन, सोभित नारि सुनारि ।
मानो सांचे ढारि कै, बिधिमा गढ़ी सुनारि ॥३३१॥

और बनज व्यौपार को, भाव बिचारै कौन ।
लोइन लोने होत है, देखत वाको लौन ॥३३२॥

बनियांइन बनि आइकै, बैठि रूप की हाट ।
पेम पेक तन हेरि कै, गरुवे टारत वाट ॥३३३॥

कबहू मुख रूखौ किए, कहै जीभ की बात ।
वाको करूओ वचन सुनि, मुख मीठो ह्वौ जात ॥३३४॥

रीझी रहै डफालिनी, अपने पिय के राग ।
न जानै संजोग रस, न जानै बैराग ॥३३५॥

चीता वानी देखि कै, बिरही रहै लुभाय ।
गाड़ी को चिंता मनो, चलै न अपने पाय ॥३३६॥

मन दल मलै दलालनी, रूप अंग के भाई ।
नैन मटकि मुख की चटकि, गांहक रूप दिखाई ॥३३७॥

घेरत नगर नगारचिन, बदन रूप तन साजि ।
घर घर वाके रूप को, रह्यो नगारा बाजि ॥३३८॥

जो वाके अंग संग में, धरै प्रीत की आस ।
वाके लागे महि महि, बसन बसेधी बास ॥३३९॥

सोभा अंग भंगेरिनी, सोभित माल गुलाल ।
पना पीसि पानी करे, चखन दिखावै लाल ॥३४०॥

जाहि-जाहि के उर गड़ै, कुंदी बसन मलीन ।
निस दिन वाके जाल में, परत फंसत मनमीन ॥३४१॥

बिरह विथा कोई कहै, समझै कछू न ताहि ।
वाके जोबन रूप की, अकथ कछु आहि ॥३४२॥

पान पूतरी पातुरी, पातुर कला निधान ।
सुरत अंग चित चोरई, काय पांच रस बान ॥३४३॥

कुन्दन-सी कुन्दीगरिन, कामिनी कठिन कठोर ।
और न काहू की सुनै, अपने पिय के सोर ॥३४४॥

कोरिन कूर न जानई, पेम नेम के भाइ ।
बिरही वाकै भौन में, ताना तनत भजाइ ॥३४५॥

बिरह विथा मन की हरै, महा विमल ह्वै जाई ।
मन मलीन जो धोवई, वाकौ साबुन लाई ॥३४६॥

निस दिन रहै ठठेरनी, झाजे माजे गात ।
मुकता वाके रूप को, थारी पै ठहरात ॥३४७॥

सबै अंग सबनीगरनि, दीसत मन न कलंक ।
सेत बसन कीने मनो, साबुन लाई मतंक ॥३४८॥

नैननि भीतर नृत्य कै, सैन देत सतराय ।
छबि ते चित्त छुड़ावही, नट के भई दिखाय ॥३४९॥

बांस चढ़ी नट बंदनी, मन बांधत लै बांस ।
नैन बैन की सैन ते, कटत कटाछन सांस ॥३५०॥

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Last Updated : November 07, 2011

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