अयोध्याकाण्ड

`गीतावली` गोस्वामी तुलसीदास की एक प्रमुख रचना है जिसके गीतों में राम-कथा कही गयी है । सम्पूर्ण पदावली राम-कथा तथा रामचरित से सम्बन्धित है ।


१११--०१---  अयोध्याकाण्ड
१११--०१---  राज्याभिषेककी तैयारी
१११--राग--- सोरठ
१११--०१---  नृप कर जोरि कह्यो गुर पाहीं ।
१११--०१---  तुम्हरी कृपा असीस, नाथ! मेरी सबै महेस निबाहीं ॥
१११--०२---  राम होहिं जुबराज जियत मेरे, यह लालच मन माहीं ।
१११--०२---  बहुरि मोहिं जियबे-मरिबेकी चित चिन्ता कछु नाहीं ॥
१११--०३---  महाराज, भलो काज बिचार्यो, बेगि बिलम्ब न कीजै ।
१११--०३---  बिधि दाहिनो होइ तौ सब मिलि जनम-लाहु लुटि लीजै ॥
१११--०४---  सुनत नगर आनन्द बधावन, कैकेयी बिलखानी ।
१११--०४---  तुलसीदास देवमायाबस कठिन कुटिलता ठानी ॥
११२--०१---  वनके लिये विदाई
११२--राग--- गौरी
११२--०१---  सुनहु राम मेरे प्रानपियारे ।
११२--०१---  बारौं सत्य बचन श्रुति-सम्मत, जाते हौं बिछुरत चरन तिहारे ॥
११२--०२---  बिनु प्रयास सब साधनको फल प्रभु पायो, सो तो नाहिं सँभारे ।
११२--०२---  हरि तजि धरमसील भयो चाहत, नृपति नारिबस सरबस हारे ॥
११२--०३---  रुचिर काँचमनि देखि मूढ ज्यों करतलतें चिन्तामनि डारे ।
११२--०३---  मुनि-लोचन-चकोर-ससि-राघव, सिव-जीवनधन, सोउ न बिचारे ॥
११२--०४---  जद्यपि नाथ तात! मायाबस सुखनिधान सुत तुम्हहिं बिसारे ।
११२--०४---  तदपि हमहि त्यागहु जनि रघुपति, दीनबन्धु, दयालु, मेरे बारे ॥
११२--०५---  अतिसय प्रीति बिनीत बचन सुनि, प्रभु कोमल चित चलत न पारे ।
११२--०५---  तुलसिदास जौ रहौं मातु-हित, को सुर-बिप्र-भूमि-भय टारे ?॥५--।
११३--०१---  रहि चलिये सुन्दर रघुनायक ।
११३--०१---  जो सुत तात-बचन-पालन-रत, जननिउ तात मानिबे लायक ॥
११३--०२---  बेद-बिदित यह बानि तुम्हारी, रघुपति सदा सन्त-सुखदायक ।
११३--०२---  राखहु निज मरजाद निगमकी, हौं बलि जाउँ, धरहु धनुसायक ॥
११३--०३---  सोक कूप पुर परिहि, मरिहि नृप, सुनि सँदेस रघुनाथ सिधायक ।
११३--०३---  यह दूसन बिधि तोहि होत अब रामचरन-बियोग-उपजायक ॥
११३--०४---  मातु बचन सुनि स्रवत नयन जल, कछु सुभाउ जनु नरतनु-पायक ।
११३--०४---  तुलसिदास सुर-काज न साध्यौ तौ तो दोष होय मोहि महि आयक ॥
११४--राग--- सोरठ
११४--०१---  राम! हौं कौन जतन घर रहिहौं ?
११४--०१---  बार बार भरि अंक गोद लै ललन कौनसों कहिहौं ॥
११४--०२---  इहि आँगन बिहरत मेरे बारे! तुम जो सङ्ग सिसु लीन्हें ।
११४--०२---  कैसे प्रान रहत सुमिरत सुत, बहु बिनोद तुम कीन्हें ॥
११४--०३---  जिन्ह श्रवननि कल बचन तिहारे सुनि सुनि हौं अनुरागी ।
११४--०३---  तिन्ह श्रवननि बनगवन सुनति हौं मोतें कौन अभागी ?॥
११४--०४---  जुग सम निमिष जाहिं रघुनन्दन, बदनकमल बिनु देखे ।
११४--०४---  जौ तनु रहै बरष बीते, बलि कहा प्रीति इहि लेखे ?॥
११४--०५---  तुलसीदास प्रेमबस श्रीहरि देखि बिकल महतारी ।
११४--०५---  गदगद कण्ठ, नयन जल, फिरि-फिरि आवन कह्यो मुरारी ॥
११५--राग--- बिलावल
११५--०१---  रहहु भवन हमरे कहे, कामिनि!
११५--०१---  सादर सासु-चरन सेवहु नित, जो तुम्हरे अति हित गृह-स्वामिनि ॥
११५--०२---  राजकुमारि! कठिन कण्टक मग, क्यों चलिहौ मृदु पद गजगामिनि ।
११५--०२---  दुसह बात, बरषा, हिम, आतप कैसे सहिहौ अगनित दिन जामिनि ॥
११५--०३---  हौं पुनि पितु-आग्या प्रमान करि ऐहौं बेगि सुनहु दुति-दामिनि ।
११५--०३---  तुलसिदास प्रभु बिरह-बचन सुनि सहि न सकी, मुरछित भै भामिनि ॥
११६--०१---  कृपानिधान सुजान प्रानपति, सङ्ग बिपिन ह्वै आवोङ्गी ।
११६--०१---  गृहतें कोटि-गुनित सुख मारग चलत, साथ सचु पावोङ्गी ॥
११६--०२---  थाके चरनकमल चापौङ्गी, श्रम भए बाउ डोलावोङ्गी ।
११६--०२---  नयन-चकोरनि मुखमयङ्क-छबि सादर पान करावोङ्गी ॥
११६--०३---  जौ हठि नाथ राखिहौ मो कहँ, तौ सँग प्रान पठावोङ्गी ।
११६--०३---  तुलसिदास प्रभु बिनु जीवत रहि क्यों फिरि बदन देखावोङ्गी?॥
११६--०१---  कहौ तुम्ह बिनु गृह मेरो कौन काजु ?
११६--०१---  बिपिन कोटि सुरपुर समान मोको, जो पै पिय परिहर्यो राजु ॥
११६--०२---  बलकल बिमल दुकूल मनोहर, कन्द-मूल-फल आमिय नाजु ।
११६--०२---  प्रभुपद-कमल बिलोकिहैं छिन-छिन, इहि तें अधिक कहा सुख-समाजु ॥
११६--०३---  हौं रहौं भवन भोग-लोलुप ह्वै, पति कानन कियो मुनिको साजु ।
११६--०३---  तुलसिदास ऐसे बिरह-बचन सुनि कठिन हियो बिदरो न आजु ॥
११८--०१---  प्रिय निठुर बचन कहे कारन कवन ?
११८--०१---  जानत हौ सबके मनकी गति, मृदुचित परम कृपालु, रवन !॥
११८--०२---  प्राननाथ सुन्दर सुजानमनि, दीनबन्धु, जग-आरति-दवन ।
११८--०२---  तुलसिदास प्रभु-पदसरोज तजि रहि हौं कहा करौङ्गी भवन ?॥
११९--०१---  मैं तुमसों सतिभाव कही है ।
११९--०१---  बूझति और भाँति भामिनि कत, कानन कठिन कलेस सही है ॥
११९--०२---  जौ चलिहौ तौ चलो चलि कै बन, सुनि सिय मन अवलम्ब लही है ।
११९--०२---  बूड़त बिरह-बारिनिधि मानहु नाह बचनमिस बाँह गही है ॥
११९--०३---  प्राननाथके साथ चलीं उठि, अवध सोकसरि उमगि बही है ।
११९--०३---  तुलसी सुनी न कबहुँ काहु कहुँ, तनु परिहरि परिछाँहि रही है ॥
१२०--०१---  जबहि रघुपति-सँग सीय चली ।
१२०--०१---  बिकल-बियोग लोग-पुरतिय कहैं ,अति अन्याउ, अली ॥
१२०--०२---  कोउ कहै, मनिगन तजत काँच लगि, करत न भूप भली ।
१२०--०२---  कोउ कहै, कुल-कुबेलि कैकेयी दुख-बिष-फलनि फली ॥
१२०--०३---  एक कहैं, बन जोग जानकी बिधि बड़ बिषम बली ।
१२०--०३---  तुलसी कुलिसहुकी कठोरता तेहि दिन दलकि दली ॥
१२१--०१---  ठाढ़े हैं लषन कमलकर जोरे ।
१२१--०१---  उर धकधकी, न कहत कछु सकुचनि, प्रभु परिहरत सबनि तृन तोरे ॥
१२१--०२---  कृपासिन्धु अवलोकि बन्धु तन, प्रान-कृपान बीर-सी छोरे ।
१२१--०२---  तात बिदा माँगिए मातुसों, बनिहै बात उपाइ न औरे ॥
१२१--०३---  जाइ चरन गहि आयसु जाँची, जननि कहत बहुभाँति निहोरे ।
१२१--०३---  सिय-रघुबर-सेवा सुचि ह्वैहौ तौ जानिहौं, सही सुत मोरे ॥
१२१--०४---  कीजहु इहै बिचार निरन्तर, राम समीप सुकृत नहिं थोरे ।
१२१--०४---  तुलसी सुनि सिष चले चकित-चित उड्यो मानो बिहग बधिक भए भोरे ॥
१२२--०१---  मोको बिधुबदन बिलोकन दीजै ।
१२२--०१---  राम लषन मेरी यहैं भेण्ट, बलि, जाउ, जहाँ मोहि मिलि लीजै ॥
१२२--०२---  सुनि पितु-बचन चरन गहे रघुपति, भूप अंक भरि लीन्हें ।
१२२--०२---  अजहुँ अवनि बिदरत दरार मिस सो अवसर सुधि कीन्हें ॥
१२२--०४---  पुनि सिर नाइ गवन कियो प्रभु, मुरछित भयो भूप न जाग्यो ।
१२२--०४---  करम-चोर नृप-पथिक मारि मानो राम-रतन लै भाग्यो ॥
१२२--०४---  तुलसी रबिकुल-रबि रथ चढ़ि चले तकि दिसि दखिन सुहाई ।
१२२--०४---  लोग नलिन भए मलिन अवध-सर, बिरह बिषम हिम पाई ॥
१२३--०१---  कहौ सो बिपिन है धौं केतिक दूरि ।
१२३--०१---  जहाँ गवन कियो, कुँवर कोसलपति, बूझति सिय पिय पतिहि बिसूरि ॥
१२३--०२---  प्राननाथ परदेस पयादेहि चले सुख सकल तजे तृन तूरि ।
१२३--०२---  करौं बयारि, बिलम्बिय बिटपतर, झारौं हौं चरन-सरोरुह-धूरि ॥
१२३--०३---  तुलसिदास प्रभु प्रियाबचन सुनि नीरजनयन नीर आए पूरि ।
१२३--०३---  कानन कहाँ अबहिं सुनु सुन्दरि, रघुपति फिरि चितए हित भूरि ॥
१२३--०२---  फिरि-फिरि राम सीय तनु हेरत ।
१२३--०२---  तृषित जानि जल लेन लषन गए, भुज उठाइ ऊँचे चढ़ि टेरत ॥
१२३--०२---  अवनि कुरङ्ग, बिहँग द्रुम-डारन रुप निहारत पलक न प्रेरत ।
१२३--०२---  मगन न डरत निरखि कर-कमलनि सुभग सरासन सायक फेरत ॥
१२३--०३---  अवलोकत मग-लोग चहूँ दिसि, मनहु चकोर चन्द्रमहि घेरत ।
१२३--०३---  ते जन भूरिभाग भूतलपर तुलसी राम-पथिक-पद जे रत ॥
१२४--०१---  नृपति-कुँवर राजत मग जात ।
१२४--०१---  सुन्दर बदन, सरोरुह-लोचन, मरकत कनकबरन मृदु गात ॥
१२४--०२---  अंसनि चाप, तून कटि मुनि पट, जटामुकुट बिच नूतन पात ।
१२४--०२---  फेरत पानि सरोजनि सायक, चोरत चितहि सहज मुसुकात ॥
१२४--०३---  सङ्ग नारि सुकुमारि सुभग सुठि, राजति बिन भूषन नव-सात ।
१२४--०३---  सुखमा निरखि ग्राम-बनितनिके नलिन-नयन बिकसित मनो प्रात ॥
१२४--०४---  अंग-अंग अगनित अनङ्ग-छबि, उपमा कहत सुकबि सकुचात ।
१२४--०४---  सियसमेत नित तुलसिदास चित, बसत किसोर पथिक दोउ भ्रात ॥
१२५--०१---  तू देखि देखि री! पथिक परम सुन्दर दोऊ ।
१२५--०१---  मरकत-कलधौत-बरन   काम-कोटि-कान्तिहरन,
१२५--०१---  चरन-कमल कोमल अति, राजकुँवर कोऊ ॥
१२५--०२---  कर सर-धनु, कटि निषङ्ग, मुनिपट सोहैं सुभग अंग,
१२५--०२---  सङ्ग चन्द्रबदनि बधू, सुन्दरि सुठि सोऊ ।
१२५--०२---  तापस बर बेष किए, सोभा सब लूटि लिए,
१२५--०२---  चितके चोर, बय किसोर, लोचन भरि जोऊ ॥
१२५--०३---  दिनकर-कुलमनि निहारि प्रेम-मगन ग्राम-नारि,
१२५--०३---  परसपर कहैं, सखि ! अनुराग ताग पोऊ ।
१२५--०३---  तुलसी यह ध्यान-सुधन जानि मानि लाभ सघन,
१२५--०३---  कृपिन ज्यों सनेह सो हिये-सुगेह गोऊ ॥
१२६--०१---  कुँवर साँवरो, री सजनी!  सुन्दर सब अंग ।
१२६--०१---  रोम रोम छबि निहारि आलि बारि फेरि डारि,
१२६--०१---  कोटि भानु-सुवन सरद-सोम, कोटि अनङ्ग ॥
१२६--०२---  बाम अंग लसत चाप, मौलि मञ्जु जटा-कलाप,
१२६--०२---  सुचि सर कर, मुनिपट कटि-तट कसे निषङ्ग ।
१२६--०२---  आयत उर-बाहु नैन, मुख-सुखमाको लहै न,
१२६--०२---  उपमा अवलोकि लोक, गिरामति-गति भङ्ग ॥
१२६--०३---  यों कहि भईं मगन बाल, बिथकीं सुनि जुबति जाल,
१२६--०३---  चितवत चले जात सङ्ग, मधुप-मृग-बिहङ्ग ।
१२६--०३---  बरनौं किमि तिनकी दसहि, निगम-अगम प्रेम-रसहि,
१२६--०३---  तुलसी मन-बसन रँगे रुचिर रुपरङ्ग ॥
१२७--राग--- कल्याण
१२६--०१---  देखु, कोऊ परम सुन्दर सखि! बटोही ।
१२७--०१---  चलतमहि मृदु चरन अरुन-बारिज-बरन,
१२७--०१---  भूपसुत रुपनिधि निरखि हौं मोही ॥
१२७--०२---  अमल मरकत स्याम, सील-सुखमा-धाम,
१२७--०२---  गौरतनु सुभग सोभा सुमुखि जोही ।
१२७--०२---  जुगल बिच नारि सुकुमारि सुठि सुन्दरी,
१२७--०२---  इंदिरा इंदु-हरि मध्य जनु सोही ॥
१२७--०३---  करनि बर धनु तीर, रुचिर कटि तूनीर,
१२७--०३---  धीर, सुर-सुखद, मरदन अवनि-द्रोही ।
१२७--०३---  अंबुजायत नयन, बदन-छबि बहु मयन,
१२७--०३---  चारु चितवनि चतुर लेति चित पोही ॥
१२७--०४---  बचन प्रिय सुनि श्रवन राम करुनाभवन,
१२७--०४---  चितए सब अधिक हित सहित कछु ओही ।
१२७--०४---  दास तुलसी नेह-बिबस बिसरी देह,
१२७--०४---  जान नहि आपु तेहि काल धौं को ही ॥
१२८--राग--- केदारा
१२८--०१---  सखि! नीके कै निरखि, कोऊ सुठि सुन्दर बटोही ।
१२८--०१---  मधुर मूरति मदनमोहन जोहन-जोग,
१२८--०१---  बदन सोभासदन देखि हौं मोही ॥
१२८--०२---  साँवरे-गोरे किसोर, सुर-मुनि-चित-चोर,
१२८--०२---  उभय-अंतर एक नारि सोही ।
१२८--०२---  मनहु बारिद-बिधु बीच ललित अति,
१२८--०२---  राजति तड़ित निज सहज बिछोही ॥
१२८--०३---  उर धीरजहि धरि, जनम सफल करि,
१२८--०३---  सुनहि सुमुखि! जनि बिकल होही ।
१२८--०३---  को जानै, कौने सुकृत लह्यो है लोचन-लाहु,
१२८--०३---  तारितें बारहि बार कहति तोही ॥
१२८--०४---  सखिहि सुसिख दई, प्रेम-मगन भई,
१२८--०४---  सुरति बिसरि गई आपनी ओही ।
१२८--०४---  तुलसी रही है ठाढ़ी पाहन गढ़ी-सी काढ़ी,
१२८--०४---  कौन जानै, कहाँतें आई, कौनकी को ही ॥
१२९--०१---  माई मनके मोहन जोहन-जोग जोही ।
१२९--०१---  थोरी ही बयस गोरे-साँवरे सलोने लोने,
१२९--०१---  लोयन ललित, बिधुबदन बटोही ॥
१२९--०२---  सिरनि जटा-मुकुट मञ्जुल सुमनजुत,
१२९--०२---  तैसिये लसति नव पल्लव खोही ।
१२९--०२---  किये मुनि-बेष बीर, धरे धनु-तून-तीर,
१२९--०२---  सोहैं मग, को हैं, लखि परै न मोही ॥
१२९--०३---  सोभाको साँचो साँवरि रुप जातरुप,
१२९--०३---  ढारि नारि बिरची बिरञ्चि, सङ्ग सोही ।
१२९--०३---  राजत रुचिर तनु सुन्दर श्रमके कन,
१२९--०३---  चाहे चकचौन्धी लागै, कहौं का तोही ॥
१२९--०४---  सनेह-सिथिल सुनि बचन सकल सिया,
१२९--०४---  चिती अधिक हित सहित ओही ।
१२९--०४---  तुलसी मनहु प्रभु-कृपाकी मूरति फिरि
१२९--०४---  हेरि कै हरषि हिये लियो है पोही ॥
१३०--०१---  सखि सरद-बिमल बिधुबदनि बधूटी ।
१३०--०१---  ऐसी ललना सलोनी न भई, न है, न होनी,
१३०--०१---  रत्यो रची बिधि जो छोलत छबि छूटी ॥
१३०--०२---  साँवरे गोरे पथिक बीच सोहति अधिक,
१३०--०२---  तिहुँ त्रिभुवन-सोभा मनहु लूटी ।
१३०--०२---  तुलसी निरखि सिय प्रेमबस कहैं तिय,
१३०--०२---  लोचन-सिसुन्ह देहु अमिय घूटी ॥
१३१--०१---  सोहैं साँवरे पथिक, पाछे ललना लोनी ।
१३१--०१---  दामिनि-बरन गोरी, लखि सखि तृन तोरी,
१३१--०१---  बीती हैं बय किसोरी, जोबन होनी ॥
१३१--०२---  नीके कै निकाई देखि, जनम सफल लेखि,
१३१--०२---  हम-सी भूरि-भागिनि नभ न छोनी ।
१३१--०२---  तुलसी-स्वामी-स्वामिनि जोहे मोही हैं भामिनि,
१३१--०२---  सोभा-सुधा पिए करि अँखिया दोनी ॥
१३२--०१---  पथिक गोरे-साँवरे सुठि लोने ।
१३२--०१---  सङ्ग सुतिय, जाके तनुतें लही है द्युति सोन सरोरुह सोने ॥
१३२--०२---  बय किसोर-सरि-पार मनोहर बयस-सिरोमनि होने ।
१३२--०२---  सोभा-सुधा आलि अँचवहु करि नयन मञ्जु मृदु दोने ॥
१३२--०३---  हेरत हृदय हरत, नहि फेरत चारु बिलोचन कोने ।
१३२--०३---  तुलसी प्रभु किधौं प्रभुको प्रेम पढ़े प्रगट कपट बिनु टोने ॥
१३३--०१---  मनोहरताके मानो ऐन ।
१३३--०१---  स्यामल-गौर किसोर पथिक दोउ, सुमुखि निरखु भरि नैन ॥
१३३--०२---  बीच बधू बिधुबदनि बिराजति, उपमा कहुँ कोऊ है न ।
१३३--०२---  मानहु रति ऋतुनाथ सहित मुनिबेष बनाए है मैन ॥
१३३--०३---  किधौं सिँगार-सुखमा-सुप्रेम मिलि चले जग-चित-बित लैन ।
१३३--०३---  अदभुत त्रयी किधौं पठई है बिधि मग-लोगन्हि सुख दैन ॥
१३३--०४---  सुनि सुचि सरल सनेह सुहावने ग्रामबधुन्हके बैन ।
१३३--०४---  तुलसी प्रभु तरु तर बिलँबे, किए प्रेम कनोड़े कै न ॥
१३४--०१---  बय किसोर गोरे साँवरे धनुबान धरे हैं ।
१३४--०१---  सब अँग सहज सोहावने, राजिव जिते नैननि-बदननि बिधु निदरे हैं ॥
१३४--०२---  तून-सुमुनिपट कटि कसे, जटा-मुकुट करे हैं ।
१३४--०२---  मञ्जु मधुर मृदुमूरति, पान्ह्यों न पायनि, कैसे धौं पथ बिचरे हैं ॥
१३४--०३---  उभय बीच बनिता बनी, लखि मोहि परे हैं ।
१३४--०३---  मदन सप्रिया सप्रिय सखा मुनि-बेष बनाए लिये मन जात हरे हैं ॥
१३४--०४---  सुनि जहँ तहँ देखन चले अनुराग भरे हैं ।
१३४--०४---  राम-पथिक छबि निरखि कै, तुलसी,मग-लोगनि धाम-काम बिसरे हैं ॥
१३५--०१---  कैसे पितु-मातु, कैसे ते प्रिय-परिजन हैं ?
१३५--०१---  जगजलधि ललाम, लोने लोने, गोरे-स्याम,
१३५--०१---  जोन पठए हैं ऐसे बालकनि बन हैं ॥
१३५--०२---  रुपके न पारावार, भूपके कुमार मुनि-बेष,
१३५--०२---  देखत लोनाई लघु लागत मदन हैं ।
१३५--०२---  सुखमाकी मूरति-सी साथ निसिनाथ-मुखी,
१३५--०२---  नखसिख अंग सब सोभाके सदन हैं ॥
१३५--०३---  पङ्कज-करनि चाप, तीर-तरकस कटि,
१३५--०३---  सरद-सरोजहुतें सुन्दर चरन हैं ।
१३५--०३---  सीता-राम-लषन निहारि ग्रामनारि कहैं,
१३५--०३---  हेरि, हेरि, हेरि! हेली हियके हरन हैं ॥
१३५--०४---  प्रानहूके प्रानसे, सुजीवनके जीवनसे,
१३५--०४---  प्रेमहूके प्रेम, रङ्क कृपिनके धन हैं ।
१३५--०४---  तुलसीके लोचन-चकोरके चन्द्रमासे,
१३५--०४---  आछे मन-मोर चित चातकके घन हैं ॥
१३६--राग--- भैरव
१३६--०१---  देखि! द्वै पथिक गोरे-साँवरे सुभग हैं ।
१३६--०१---  सुतिय सलोनी सङ्ग सोहत सुभग हैं ॥
१३६--०२---  सोभासिन्धु-सम्भव-से नीके नीके नग हैं ।
१३६--०२---  मातु-पितु-भाग बस गए परि फँग हैं ॥
१३६--०३---  पाइँ पनह्यो न, मृदु पङ्कज-से पग हैं
१३६--०३---  रुपकी मोहनी मेलि मोहे अग-जग हैं ॥
१३६--०४---  मुनि-बेष धरे, धनु-सायक सुलग हैं ।
१३६--०४---  तुलसी-हिये लसत लोने लोने डग हैं ॥
१३७--०१---  पथिक पयादे जात पङ्कज-से पाय हैं ।
१३७--०१---  मारग कठिन, कुस-कण्टक-निकाय हैं ॥
१३७--०२---  सखी! भूखे-प्यासे, पै चलत चित चाय हैं ।
१३७--०२---  इन्हके सुकृत सुर-सङ्कर सहाय हैं ॥
१३७--०३---  रुप-सोभा-प्रेमके-से कमनीय काय हैं ।
१३७--०३---  मुनिबेष किये, किधौं ब्रह्म-जीव-माय हैं ॥
१३७--०४---  बीर, बरियार, धीर, धनुधर-राय हैं ।
१३७--०४---  दसचारि-पुर-पाल आली उरगाय हैं ॥
१३७--०५---  मग-लोग देखत करत हाय हाय हैं ।
१३७--०५---  बन इनको तो बाम बिधि कै बनाय हैं ॥
१३७--०६---  धन्य ते, जे मीन-से अवधि अंबु-आय हैं ।
१३७--०६---  तुलसी प्रभुसों जिन्हहूँके भले भाय हैं ॥
१३८--राग--- आसावरी
१३८--०१---  सजनी! हैं कोउ राजकुमार ।
१३८--०१---  पन्थ चलत मृदु पद-कमलनि दोउ सील-रुप-आगार ॥
१३८--०२---  आगे राजिवनैन स्याम-तनु, सोभा अमित अपार ।
१३८--०२---  डारौं वारि अंग-अंगनिपर कोटि-कोटि सत मार ॥
१३८--०३---  पाछैं गौर किसोर मनोहर,लोचन-बदन उदार ।
१३८--०३---  कटि तूनीर कसे, कर सर-धनु, चले हरन छिति-भार ॥
१३८--०४---  जुगुल बीच सुकुमारि नारि इक राजति बिनहि सिँगार ।
१३८--०४---  इंद्रनील, हाटक, मुकुतामनि जनु पहिरे महि हार ॥
१३८--०५---  अवलोकहु भरि नैन, बिकल जनि होहु, करहु सुबिचार ।
१३८--०५---  पुनि कहँ यह सोभा, कहँ लोचन, देह-गेह-संसार? ॥
१३८--०६---  सुनि प्रिय-बचन चितै हित कै रघुनाथ कृपा-सुखसार ।
१३८--०६---  तुलसिदास प्रभु हरे सबन्हिके मन, तन रही न सँभार ॥
१३९--०१---  देखु री सखी! पथिक नख-सिख नीके हैं ।
१३९--०१---  नीले पीले कमल-से कोमल कलेवरनि,
१३९--०१---  तापस हू बेष किये काम कोटि फीके हैं ॥
१३९--०२---  सुकृत-सनेह-सील-सुषमा-सुख सकेलि,
१३९--०२---  बिरचे बिरञ्चि किधौं अमिय, अमीके हैं ।
१३९--०२---  रुपकी-सी दामिनी सुभामिनी सोहति सङ्ग,
१३९--०२---  उमहु रमातें आछे अंग अंग ती के हैं ॥
१३९--०३---  बन-पट कसे कटि, तून-तीर-धनु धरे,
१३९--०३---  धीर, बीर, पालक कृपालु सबहीके हैं ।
१३९--०३---  पानही न, चरन-सरोजनि चलत मग,
१३९--०३---  कानन पठाए पितु-मातु कैसे ही के हैं ॥
१३९--०४---  आली अवलोकि लेहु, नयननिके फल येहु,
१३९--०४---  लाभके सुलाभ, सुखजीवन-से जी के हैं ।
१३९--०४---  धन्य नर-नारि जे निहारि बिनु गाहक हू,
१३९--०४---  आपने आपने मन मोल बिनु बीके हैं ॥
१३९--०५---  बिबुध बरषि फूल हरषि हिये कहत,
१३९--०५---  ग्राम-लोग मगन सनेह सिय-पी के हैं ।
१३९--०५---  जोगीजन-अगम दरस पायो पाँवरनि,
१३९--०५---  प्रमुदित मन सुनि सुरप-सची के हैं ॥
१३९--०६---  प्रीतिके सुबालक-से लालत सुजन मुनि,
१३९--०६---  मग चारु चरित लषन-राम-सी के हैं ।
१३९--०६---  जोग न बिराग-जाग, तप न तीरथ-त्याग,
१३९--०६---  एही अनुराग भाग खुले तुलसी के हैं ॥
१४०--०१---  रीति चलिबेकी चाहि, प्रीति पहिचानिकै ।
१४०--०१---  आपनी आपनी कहैं, प्रेम-परबस अहैं,
१४०--०१---  मञ्जु मृदु बचन सनेह-सुधा सानिकै ॥
१४०--०२---  साँवरे कुँवरके बराइकै चरनके चिन्ह,
१४०--०२---  बधू पग धरति कहा धौं जिय जानिकै ।
१४०--०२---  जुगल कमल-पद-अंग जोगवत जात,
१४०--०२---  गोरे गात कुँवर महिमा महा मानिकै ॥
१४०--०३---  उनकी कहनि नीकी, रहनि लषन-सी की,
१४०--०३---  तिनकी गहनि जे पथिक उर आनिकै ।
१४०--०३---  लोचन सजल, तन पुलक, मगन मन,
१४०--०३---  होत भूरिभागी जस तुलसी बखनिकै ॥
१४१--राग--- केदारा
१४१--०१---  जेहि जेहि मग सिय-राम-लखन गए,
१४१--०१---  तहँ-तहँ नर-नारि बिनु छर छरिगे ।
१४१--०१---  निरखि निकाई-अधिकाई बिथकित भए,
१४१--०१---  बच बिय-नैन-सर सोभा-सुधा भरिगे ॥
१४१--०२---  जोते बिनु, बए बिनु, निफन निराए बिनु,
१४१--०२---  सुकृत-सुखेत सुख-सालि फूलि-फरिगे ।
१४१--०२---  मुनिहु मनोरथको अगम अलभ्य लाभ,
१४१--०२---  सुगम सो राम लघु लोगनिको करिगे ॥
१४१--०३---  लालची, कौड़ीके कूर पारस परे हैं पाले,
१४१--०३---  जानत न को हैं, कहा कीबो सो बिसरिगे ।
१४१--०३---  बुधि न बिचार, न बिगार न सुधार सुधि,
१४१--०३---  देह-गेह-नेह-नाते मनसे निसरिगे ॥
१४१--०४---  बरषि सुमन सुर हरषि हरषि कहैं,
१४१--०४---  अनायास भवनिधि नीच नीके तरिगे।
१४१--०४---  सो सनेह-समौ सुमिरि तुलसीहूके-से
१४१--०४---  भली भाँति भले पैन्त, भले पाँसे परिगे ॥
१४२--०१---  बोले राज देनको, रजायसु भो काननको,
१४२--०१---  आनन प्रसन्न, मन मोद, बड़ो काज भो ।
१४२--०१---  मातु-पिता-बन्धु-हित आपनो परम हित,
१४२--०१---  मोको बीसहूकै ईस अनुकूल आजु भो ॥
१४२--०२---  असन अजीरनको समुझि तिलक तज्यो
१४२--०२---  बिपिन-गवनु भले भूखेको सुनाजु भो ।
१४२--०२---  धरम-धुरीन धीर बीर रघुबीरजूको,
१४२--०२---  कोटि राज सरिस भरतजूको राजु भो ॥
१४२--०३---  ऐसी बातैं कहत सुनत मग-लोगनकी,
१४२--०३---  चले जात बन्धु दोउ मुनिको सो साज भो ।
१४२--०३---  ध्याइबेको, गाइबेको, सेइबे सुमिरिबेको,
१४२--०३---  तुलसीको सब भाँति सुखद समाज भो ॥
१४३--०१---  सिरिस-सुमन-सुकुमारि, सुखमाकी सींव,
१४३--०१---  सीय राम बड़े ही सकोच सङ्ग लई है ।
१४३--०१---  भाईके प्रान समान, प्रियाके प्रानके प्रान,
१४३--०१---  जानि बानि प्रीति रीति कृपसील मई है ॥
१४३--०२---  आलबाल-अवध सुकामतरु कामबेलि,
१४३--०२---  दूरि करि केकी बिपत्ति-बेलि बई है ।
१४३--०२---  आप, पति, पूत, गुरुजन, प्रिय परिजन,
१४३--०२---  प्रजाहूको कुटिल दुसह दसा दई है ॥
१४३--०३---  पङ्कज-से पगनि पानह्यौं न, परुष पन्थ,
१४३--०३---  कैसे निबहे हैं, निबहैङ्गे, गति नई है ।
१४३--०३---  येही सोच-सङ्कट-मगन मग-नर-नारि,
१४३--०३---  सबकी सुमति राम-राग, रँग रई है ॥
१४३--०४---  एक कहैं, बाम बिधि दाहिनो हमको भयो,
१४३--०४---  उत कीन्हीं पीठि, इतको सुडीठि भई है।
१४३--०४---  तुलसी सहित बनबासी मुनि हमरिऔ,
१४३--०४---  अनायास अधिक अघाइ बनि गई है ॥
१४४--राग--- गौरी
१४४--०१---  नीके कै मैं न बिलोकन पाए ।
१४४--०१---  सखि यहि मग जुग पथिक मनोहर, बधु बिधु-बदनि समेत सिधाए ॥
१४४--०२---  नयन सरोजस किसोर बयस बर, सीस जटा रचि मुकुट बनाए ।
१४४--०२---  कटि मुनिबसन-तून, धनु-सर कर, स्यामल-गौर, सुभाय सोहाए ॥
१४४--०३---  सुन्दर बदन बिसाल बाहु-उर, तनु-छबि कोटि मनोज लजाए ।
१४४--०३---  चितवत मोहि लगी चौन्धी-सी, जानौं न, कौन, कहाँ तें धौं आए ॥
१४४--०४---  मनु गयो सङ्ग, सोचबस लोचन मोचत बारि, कितौ समुझाए ।
१४४--०४---  तुलसिदास लालसा दरसकी सोइ पुरवै, जेहि आनि देखाए ॥
१४५--०१---  पुनि न फिरे दोउ बीर बटाऊ ।
१४५--०१---  स्यामल गौर, सहज सुदंर, सखि बारक बहुरि बिलोकिबे काऊ ॥
१४५--०२---  कर-कमलनि सर, सुभग सरासन, कटि मुनिबसन-निषङ्ग सोहाए ।
१४५--०२---  भुज प्रलम्ब, सब अंग मनोहर, धन्य सो जनक-जननि जेहि जाए ॥
१४५--०३---  सरद-बिमल बिधु बदन, जटा सिर, मञ्जुल अरुन-सरोरुह-लोचन ।
१४५--०३---  तुलसिदास मनमय मारगमें राजत कोटि-मदन-मदमोचन ॥
१४६--राग--- केदारा
१४६--०१---  आली काहू तौ बूझौ न, पथिक कहाँ धौं सिधैहैं ।
१४६--०१---  कहाँतें आए हैं, को हैं, कहा नाम स्याम-गोरे,
१४६--०१---  काज कै कुसल फिरि एहि मग ऐहैं ॥
१४६--०२---  उठति बयस, मसि भीञ्जति, सलोने सुठि,
१४६--०२---  सोभा-देखवैया बिनु बित्त ही बिकैहैं ।
१४६--०२---  हिये हेरि हरि लेत लोनी ललना समेत,
१४६--०२---  लोयननि लाहु देत जहाँ जहाँ जैहैं ॥
१४६--०३---  राम-लषन-सिय-पन्थिकी कथा पृथुल,
१४६--०३---  प्रेम बिथकीं कहति सुमुखि सबै हैं ।
१४६--०३---  तुलसी तिन्ह सरिस तेऊ भूरिभाग जेऊ
१४६--०३---  सुनि कै सुचित तेहि समै समैहैं ॥
१४७--०१---  बहुत दिन बीते सुधि कछु न लही ।
१४७--०१---  गए जो पथिक गोरे-साँवरे सलोने,
१४७--०१---  सखि सङ्ग नारि सुकुमारि रही ॥
१४७--०२---  जानि-पहिचानि बिनु आपुतें, आपुने हुतें,
१४७--०२---  प्रानहुतें प्यारे प्रियतम उपही ।
१४७--०२---  सुधाके, सनेहहूके सार लै सँवारे बिधि,
१४७--०२---  जैसे भावते हैं भाँति जाति न कही ॥
१४७--०३---  बहुरि बिलोकिबे कबहुक, कहत,
१४७--०३---  तनु पुलक, नयन जलधार बही ।
१४७--०३---  तुलसी प्रभु सुमिरि ग्रामजुबती सिथिल,
१४७--०३---  बिनु प्रयास परीं प्रेम सही ॥
१४८--०१---  आली री पथिक जे एहि पथ परौं सिधाए ।
१४८--०१---  ते तौ राम-लषन अवधतें आए ॥
१४८--०२---  सङ्ग सिय सब अंग सहज सोहाए ।
१४८--०२---  रति-काम-ऋतुपति कोटिक लजाए ॥
१४८--०३---  राजा दसरथ, रानी कौसिला जाए ।
१४८--०३---  कैकेयी कुचाल करि कानन पठाए ॥
१४८--०४---  बचन कुभामिनीके भूपहि क्यों भाए
१४८--०४---  हाय हाय राय बाम बिधि भरमाए ॥
१४८--०५---  कुलगुर सचिव काहू न समुझाए ।
१४८--०५---  काँच-मनि लै अमोल मानिक गवाँए ॥
१४८--०६---  भाग मग-लोगनिके, देखन जे पाए ।
१४८--०६---  तुलसी सहित जिन गुन-गन गाए ॥
१४९--०१---  सखि जबतें सीतासमेत देखे दोउ भाई ।
१४९--०१---  तबतें परै न कल, कछू न सोहाई ॥
१४९--०२---  नखसिख नीके, नीके निरखि निकाई ।
१४९--०२---  तन-सुधि गई, मन अनत न जाई ॥
१४९--०३---  हेरनि-हँसनि हिय लिये हैं चोराई ।
१४९--०३---  पावन-प्रेम-बिबस भई हौं पराई ॥
१४९--०४---  कैसे पितु-मातु प्रिय परिजन-भाई
१४९--०४---  जीवत जीवके जीवन बनहि पठाई ॥
१४९--०५---  समौ सो चित करि हित अधिकाई ।
१४९--०५---  प्रीति ग्रामबधुनकी तुलसिहु गाई ॥
१५०--०१---  जबतें सिधारे यहि मारग लषन-राम,
१५०--०१---  जानकी सहित, तबतें न सुधि लही है ।
१५०--०१---  अवध गए धौं फिरि, कैधौं चढ़े बिन्ध्यगिरि,
१५०--०१---  कैधौं कहुँ रहे, सो कछू, न काहू कही है ॥
१५०--०२---  एक कहै, चित्रकूट निकट नदीके तीर,
१५०--०२---  परनकुटीर करि बसे, बात सही है ।
१५०--०२---  सुनियत, भरत मनाइबेको आवत हैं,
१५०--०२---  होइगी पै सोई, जो बिधाता चित्त चही है ॥
१५०--०३---  सत्यसन्ध, धरम-धुरीन रघुनाथजूको,
१५०--०३---  आपनी निबारिबे, नृपकी निरबही है ।
१५०--०३---  दस-चारि बरिस बिहार बन पदचार,
१५०--०३---  करिबे पुनीत सैल, सर-सरि, मही है ॥
१५०--०४---  मुनि-सुर-सुजन-समाजके सुधारि काज,
१५०--०४---  बिगरि बिगरि जहाँ जहाँ जाकी रही है ।
१५०--०४---  पुर पाँव धारिहैं, उधारिहैं तुलसीहू से जन,
१५०--०४---  जिन जानि कै गरीबी गाढ़ी गही है ॥
१५१--०१---  ये उपही कोउ कुँवर अहेरी ।
१५१--०१---  स्याम गौर, धनु-बान-तूनधर चित्रकूट अब आइ रहे, री ॥
१५१--०२---  इन्हहि बहुत आदरत महामुनि, समाचार मेरे नाह कहे, री ।
१५१--०२---  बनिता-बन्धु समेत बसे बन, पितु हित कठिन कलेस सहे, री ॥
१५१--०३---  बचन परसपर कहति किरातिनि, पुलक गात, जल नयन बहे, री ।
१५१--०३---  तुलसी प्रभुहि बिलेकति एकटक, लोचन जनु बिनु पलक लहें, री ॥
१५२--०१---  चित्रकूट-वर्णन
१५२--राग--- चञ्चरी
१५२--०१---  चित्रकूट अति बिचित्र, सुन्दर बन, महि पबित्र,
१५२--०१---  पावनि पय-सरित सकल मल-निकन्दिनी ।
१५२--०१---  सानुज जहँ बसत राम, लोक-लोचनाभिराम,
१५२--०१---  बाम अंग बामाबर बिस्व-बन्दिनी ॥
१५२--०२---  रिषिबर तहँ छन्द बास, गावत कलकण्ठ हास,
१५२--०२---  कीर्तन उनमाय काय क्रोध-कन्दिनी ।
१५२--०२---  बर बिधान करत गान, वारत धन-मान-प्रान,
१५२--०२---  झरना झर झिँग झिँग झिङ्ग जलतरङ्गिनी ॥
१५२--०३---  बर बिहारु चरन चारु पाँडर चम्पक चनार
१५२--०३---  करनहार बार पार पुर-पुरङ्गिनी ।
१५२--०३---  जोबन नव ढरत ढार दुत्त मत्त मृग मराल
१५२--०३---  मन्द मन्द गुञ्जत हैं अलि अलिङ्गिनी ॥
१५२--०४---  चितवत मुनिगन चकोर, बैठे निज ठौर ठौर,
१५२--०४---  अच्छय अकलङ्क सरद-चन्द-चन्दिनी ।
१५२--०४---  उदित सदा बन-अकास, मुदित बदत तुलसिदास,
१५२--०४---  जय जय रघुनन्दन जय जनकनन्दिनी ॥
१५३--०१---  फटिकसिला मृदु बिसाल, सङ्कुल सुरतरु-तमाल
१५३--०१---  ललित लता-जाल हरति छबि बितानकी ।
१५३--०१---  मन्दाकिनि-तटिनि-तीर, मञ्जुल मृग-बिहग-भीर
१५३--०१---  धीर मुनिगिरा गभीर सामगानकी ॥
१५३--०२---  मधुकर-पिक-बरहि मुखर, सुन्दर गिरि निरझर झर,
१५३--०२---  जल-कन घन-छाँह, छन प्रभा न भानकी ।
१५३--०२---  सब ऋतु ऋतुपति प्रभाउ, सन्तत बहै त्रिबिध बाउ,
१५३--०२---  जनु बिहार-बाटिका नृप पञ्च बानकी ॥
१५३--०३---  बिरचित तहँ परनसाल, अति बिचित्र लषनलाल,
१५३--०३---  निवसत जहँ नित कृपालु राम-जानकी ।
१५३--०३---  निजकर राजीवनयन पल्लव-दल-रचित सयन,
१५३--०३---  प्यास परसपर पीयूष प्रेम-पानकी ॥
१५३--०४---  सिय अँग लिखैं धातुराग, सुमननि भूषन-बिभाग,
१५३--०४---  तिलक-करनि का कहौं कलानिधानकी ।
१५३--०४---  माधुरी-बिलास-हास, गावत जस तुलसिदास,
१५३--०४---  बसति हृदय जोरी प्रिय परम प्रानकी ॥
१५४--०१---   लोने लाल लषन, सलोने राम, लोनी सिय,
१५४--०१---  चारु चित्रकूट बैठे सुरतरु-तर हैं ।
१५४--०१---  गोरे-साँवरे सरीर पीत नीलनीरज-से
१५४--०१---  प्रेम-रुप-सुखमाके मनसिज-सर हैं ॥
१५४--०२---  लोने नख-सिख, निरुपम, निरखन जोग,
१५४--०२---  बड़े उर कन्धर बिसाल भुज बर हैं ।
१५४--०२---  लोने लोने लोचन, जटनिके मुकुट लोने,
१५४--०२---  लोने बदननि जीते कोटि सुधाकर हैं ॥
१५४--०३---  लोने लोने धनुष, बिसिष कर-कमलनि,
१५४--०३---  लोने मुनिपट, कटि लोने सरघर हैं ।
१५४--०३---  प्रिया प्रिय बन्धुको दिखावत बिटप, बेलि,
१५४--०३---  मञ्जु कुञ्ज, सिलातल, दल, फूल, फर हैं ॥
१५४--०४---  ऋषिनके आश्रम सराहैं, मृग-नाम कहैं,
१५४--०४---  लागी मधु, सरित झरत निरझर हैं ।
१५४--०४---  नाचत बरहि नीके, गावत मधुप-पिक,
१५४--०४---  बोलत बिहङ्ग, नभ-जल-थल-चर हैं ॥
१५४--०५---  प्रभुहि बिलोकि मुनिगन पुलके कहत
१५४--०५---  भूरिभाग भये सब नीच नारि-नर हैं ।
१५४--०५---  तुलसी सो सुख-लाहु लूटत किरात-कोल
१५४--०५---  जाको सिसकत सुर बिधि-हरि-हर हैं ॥
१५५--राग--- सारङ्ग
१५५--०१---  आइ रहे जबतें दोउ भाई ।
१५५--०१---  तबतें चित्रकूट-कानन-छबि दिन दिन अधिक अधिक अधिकाई ॥
१५५--०२---  सीता-राम-लषन-पद-अंकित अवनि सोहावनि बरनि न जाई ।
१५५--०२---  मन्दाकिनि मज्जत अवलोकत त्रिबिध पाप, त्रयताप नसाई ॥
१५५--०३---  उकठेउ हरित भए जल-थलरुह, नित नूतन राजीव सुहाई ।
१५५--०३---  फूलत, फलत, पल्लवत, पलुहत बिटप बेलि अभिमत सुखदाई ॥
१५५--०४---  सरित-सरनि सरसीरुह सङ्कुल, सदन सँवारि रमा जनु छाई ।
१५५--०४---  कूजत बिहँग, मञ्जु गुञ्जत अलि जात पथिक जनु लेत बुलाई ॥
१५५--०५---  त्रिबिध समीर, नीर, झर झरननि, जहँ तहँ रहे ऋषि कुटी बनाई ।
१५५--०५---  सीतल सुभग सिलनिपर तापस करत जोग-जप-तप मन लाई ॥
१५५--०६---  भए सब साधु किरात-किरातिनि, राम-दरस मिटि गै कलुषाई ।
१५५--०६---  खग-मृग मुदित एक सँग बिहरत सहज बिषम बड़ बैर बिहाई ॥
१५५--०७---  कामकेलि-बाटिका बिबुध-बन-लघु उपमा कबि कहत लजाई ।
१५५--०७---  सकल-भुवन-सोभा सकेलि मनो राम बिपिन बिधि आनि बसाई ॥
१५५--०८---  बन मिस मुनि, मुनितिय, मुनि-बालक बरनत रघुबर-बिमल-बड़ाई ।
१५५--०८---  पुलक सिथिल तनु, सजल सुलोचनु, प्रमुदित मन जीवन फलु पाई ॥
१५५--०९---  क्यों कहौं चित्रकूट-गिरि, सम्पति-महिमा-मोद-मनोहरहताई ।
१५५--०९---  तुलसी जहँ बसि लषन-रामसिय आनँद-अवधि अवध बिसराई ॥
१५६--राग--- गौरी
१५६--०१---  देखत चित्रकूट-बन मन अति होत हुलास ।
१५६--०१---  सीता-राम-लषन-प्रिय,  तापस-बृन्द-निवास ॥
१५६--०२---  सरित सोहावनि पावनि, पापहरनि पय नाम ।
१५६--०२---  सिद्ध-साधु-सुर-सेबित देति सकल मन-काम ॥
१५६--०३---  बिटप-बेलि नव किसलय, कुसुमित सघन सुजाति ।
१५६--०३---  कन्दमूल,जल-थलरुह अगनित अनबन भाँति ॥
१५६--०४---  बञ्जुल मञ्जु, बकुलकुल, सुरतरु, ताल तमाल ।
१५६--०४---  कदलि, कदम्ब, सुचम्पक, पाटल, पनस, रसाल ॥
१५६--०५---  भूरुह भूरि भरे जनु छबि-अनुराग-सभाग ।
१५६--०५---  बन बिलोकि लघु लागहिं बिपुल बिबुध-बन-बाग ॥
१५६--०६---  जाइ न बरनि राम-बन, चितवत चित हरि लेत ।
१५६--०६---  ललित-लता-द्रुम-सङ्कुल मनहु मनोज निकेत ॥
१५६--०७---  सरित-सरनि सरसीरुह फूले नाना रङ्ग ।
१५६--०७---  गुञ्जत मञ्जु मधुपबन, कूजतक बिबिध बिहङ्ग ॥
१५६--०८---  लषन कहेउ रघुनन्दन देखिय बिपिन-समाज ।
१५६--०८---  मानहु चयन मयन-पुर आयौ प्रिय ऋतुराज ॥
१५६--०९---  चित्रकूटपर राउर जानि अधिक अनुरागु ।
१५६--०९---  सखासहित जनु रतिपति आयौ खेलन फागु ॥
१५६--१०---  झिल्लि झाँझ, झरना डफ नव मृदङ्ग निसान ।
१५६--१०---  भेरि उपङ्ग भृङ्ग रव, ताल कीर, कलगान ॥
१५६--११---  हंस कपोत कबूतर बोलत चक्क चकोर ।
१५६--११---  गावत मनहु नारिनर मुदित नगर चहुँ ओर ॥
१५६--१२---  चित्र-बिचित्र बिबिध मृग डोलत डोङ्गर डाँग ।
१५६--१२---  जनु पुरबीथिन बिहरत छैल सँवारे स्वाँग ॥
१५६--१३---  नाचहिं मोर, पिक गावहिंस सुर बर राग बँधान ।
१५६--१३---  निलज तरुन-तरुनी जनु खेलहिं समय समान ॥
१५६--१४---  भरि भरि सुण्ड करिनि-करि जहँ तहँ डारहिं बारि ।
१५६--१४---  भरत परसपर पिचकनि मनहु मुदित नर-नारि ॥
१५६--१५---  पीठि चढ़ाइ सिसुन्ह कपि कूदत डारहि डार ।
१५६--१५---  जनु मुँह लाइ गेरु-मसि भए खरनि असवार ॥
१५६--१६---  लिये पराग सुमनरस डोलत मलय-समीर ।
१५६--१६---  मनहु अरगजा छिरकत, भरत गुलाल-अबीर ॥
१५६--१७---  काम कौतुकी यहि बिधि प्रभुहित कौतुक कीन्ह ।
१५६--१७---  रीझि राम रतिनाथहि जग-बिजयी बर दीन्ह ॥
१५६--१८---  दुखवहु मोरे दास जनि, मानेहु मोरि रजाइ ।
१५६--१८---  भलेहि नाथ माथे धरि आयसु चलेउ बजाइ ॥
१५६--१९---  मुदित किरात-किरातिनि रघुबर-रुप निहारि ।
१५६--१९---  प्रभुगुन गावत नाचत चले जोहारि जोहारि ॥
१५६--२०---  देहिं सीस, प्रसंसहिं मुनि सुर बरषहिं फूल ।
१५६--२०---  गवने भवन राखि उर मूरति मङ्गलमूल ॥
१५६--२१---  चित्रकूट-कानन-छबि को बरनै पार ।
१५६--२१---  जहँ सिय-लषनसहित नित रघुबर करहिं बिहार ॥
१५६--२२---  तुलसिदास चाँचरि मिस कहे राम-गुनग्राम ।
१५६--२२---  गावहिं, सुनहिं नारि-नर, पावहिं सब अभिराम ॥
१५७--राग--- बसन्त
१५७--०१---  आजु बन्यो है बिपिन देखो, राम धीर । मानो खेलत फागु मुद मदनबीर ॥
१५७--०१---  बट, बकुल, कदम्ब, पनस, रसाल । कुसुमित तरु-निकर कुरव-तमाल ।
१५७--०१---  मानो बिबिध बेष धरे छैल-जूथ । बिच बीच लता ललना-बरुथ ॥
१५७--०१---  पनवानक निरझर, अलि उपङ्ग । बोलत पारावत मानो डफ-मृदङ्ग ।
१५७--०१---  गायक शुक-कोकिल, झिल्लि ताल । नाचत बहु भाँति बरहि मराल ॥
१५७--०१---  मलयानिल सीतल, सुरभि, मन्द । बह सहित सुमन-रस रेनु बृन्द ।
१५७--०१---  मनु छिरकत फिरत सबनि सुरङ्ग । भ्राजत उदार लीला अनङ्ग ॥
१५७--०१---  क्रीडत जीते सुर-असुर-नाग । हठि सिद्ध-मुनिनके पन्थ लाग ।
१५७--०१---  कह तुलसिदास, तेहि छाड़ु मैन । जेहि राख राम राजीव नैन ॥
१५७--०१---  ऋतु-पति आए भलो बन्यो बन समाज । मानो भए हैं मदन महाराज आज ॥
१५७--०१---  मनो प्रथम फागु मिस करि अनीति । होरीमिस अरि पुर जारि जीति ।
१५७--०१---  मारुत मिस पत्र-प्रजा उजारि । नयनगर बसाए बिपिन झारि ॥
१५७--०१---  सिंहासन सैल-सिला सुरङ्ग । कानन-छबि रति, परिजन कुरङ्ग ।
१५७--०१---  सित छत्र सुमन, बल्ली बितान । चामर समीर, निरझर निसान ॥
१५७--०१---  मनो मधु-माधव दोउ अनिप धीर । बर बिपुल बिटप बानैत बीर ।
१५७--०१---  मधुकर-सुक-कोकिलबन्दि-बृन्द । बरनहिं बिसुद्ध जस बिबिध छन्द ॥
१५७--०१---  महि परत सुमन-रस फल पराग । जनु देत इतर नृप कर-बिभाग ।
१५७--०१---  कलि सचिव सहित नय-निपुन मार । कियो बिस्व बिबस चारिहु प्रकार ॥
१५७--०१---  बिरहिनपर नित नै परै मारि । डाँड़ियत सिद्ध-साधक प्रचारि ।
१५७--०१---  तिनकी न काम सकै चापि छाँह । तुलसी जे बसहिं रघुबीर-बाँह ॥
१५७--राग--- मलार
१५७--०१---  सब दिन चित्रकूट नीको लागत ।
१५७--०१---  बरषाऋतु प्रबेस बिसेष गिरि देखन मन अनुरागत ॥
१५७--०२---  चहुँदिसि बन सम्पन्न, बिहँग-मृग बोलत सोभा पावत ।
१५७--०२---  जनु सुनरेस देस-पुर प्रमुदित प्रजा सकल सुख छावत ॥
१५७--०३---  सोहत स्याम जलद मृदु घोरत धातु रँगमगे सृङ्गनि ।
१५७--०३---  मनहु आदि अंभोज बिराजत सेवित सुर-मुनि-भृङ्गनि ॥
१५७--०४---  सिखर परस घन-घटहि, मिलति बग-पाँति सो छबि कबि बरनी ।
१५७--०४---  आदि बराह बिहरि बारिधि मनो उठ्यो है दसन धरि धरनी ॥
१५७--०५---  जल जुत बिमल सिलनि झलकत नभ बन-प्रतिबिम्ब तरङ्ग ।
१५७--०५---  मानहु जग-रचना बिचित्र बिलसति बिराट अँग अंग ॥
१५७--०६---  मन्दाकिनिहि मिलत झरना झरि झरि भरि भरि जल आछे ।
१५७--०६---  तुलसी सकल सुकृत-सुख लागे मानो राम-भगतिके पाछे ॥
१५८--०१---  कौसल्याकी विरह-वेदना
१५८--राग--- सोरठ
१५८--०१---  आजुको भोर, और सो, माई ।
१५८--०१---  सुनौं न द्वार बेद-बन्दी-धुनि गुनिगन-गिरा सोहाई ॥
१५८--०२---  निज निज सुन्दर पति-सदननितें रुप-सील-छबिछाईं ।
१५८--०२---  लेन असीस सीय आगे करि मोपै सुतबधू न आईं ॥
१५८--०३---  बूझी हौं न बिहँसि मेरे रघुबर कहाँ री! सुमित्रा माता?।
१५८--०३---  तुलसी मनहु महासुख मेरो देखि न सकेउ बिधाता ॥
१५९--०१---  जननी निरखति बान-धनुहियाँ ।
१५९--०१---  बार-बार उर नैननि लावति प्रभुजूकी ललित पनहियाँ ॥
१५९--०२---  कबहूँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सँवारे ।
१५९--०२---  उठहु तात! बलि मातु बदनपर, अनुज-सखा सब द्वारे ॥
१५९--०३---  कबहूँ कहति यों, बड़ी बार भै, जाहु भूप पहँ, भैया ।
१५९--०३---  बन्धु बोलि जेंइय जो भावै, गई निछावरि मैया ॥
१५९--०४---  कबहूँ समुझि बन-गवन रामको रहि चकि चित्र लिखी-सी ।
१५९--०४---  तुलसिदास वह समय कहेतें लागति प्रीति सिखी-सी ॥
१६०--०१---  माई री! मोहि कोउ न समुझावै ।
१६०--०१---  राम-गवन साँचो किधौं सपनो, मन परतीति न आवै ॥
१६०--०२---  लगेइ रहत मेरे नैननि आगे राम-लखन अरु सीता ।
१६०--०२---  तदपि न मिटत दाह या उरको, बिधि जो भयो बिपरीता ॥
१६०--०३---  दुख न रहै रघुपतिहि बिलोकत, तनु न रहै बिनु देखे ।
१६०--०३---  करत न प्रान पयान, सुनहु, सखि! अरुझि परी यहि लेखे ॥
१६०--०४---  कौसल्याके बिरह-बचन सुनि रोइ उठीं सब रानी ।
१६०--०४---  तुलसिदास रघुबीर-बिरहकी पीर न जाति बखानी ॥
१६१--०१---   
१६१--०१---  जब जब भवन बिलोकति सूनो ।
१६१--०१---  तब तब बिकल होति कौसल्या, दिन दिन प्रति दुख दूनो ॥
१६१--०२---  सुमिरत बाल-बिनोद रामके सुन्दर मुनि-मन-हारी ।
१६१--०२---  होत हृदय अति सूल समुझि पदपङ्कज अजिर-बिहारी ॥
१६१--०३---  को अब प्रात कलेऊ माँगत रुठि चलैगो, माई !।
१६१--०३---  स्याम-तामरस-नैन स्रवत जल काहि लेउँ उर लाई ॥
१६१--०४---  जीवौं तौ बिपति सहौं निसि-बासर, मरौं तौ मन पछितायो ।
१६१--०४---  चलत बिपिन भरि नयन रामको बदन न देखन पायो ॥
१६१--०५---  तुलसिदास यह दुसह दसा अति, दारुन बिरह घनेरो ।
१६१--०५---  दूरि करै को भूरि कृपा बिनु सोकजनित रुज मेरो ?॥
१६२--०१---  मेरो यह अभिलाषु बिधाता ।
१६२--०१---  कब पुरवै सखि सानुकूल ह्वै हरि सेवक-सुखदाता ॥
१६२--०२---  सीता-सहित कुसल कोसलपुर आवत हैं सुत दोऊ ।
१६२--०२---  श्रवन-सुधा-सम बचन सखी कब आइ कहैगो कोऊ ॥
१६२--०३---  सुनि सन्देस प्रेम-परिपूरन सम्भ्रम उठि धावोङ्गी ।
१६२--०३---  बदन बिलोकि रोकि लोचन-जल हरषि हिये लावोङ्गी ॥
१६२--०४---  जनकसुता कब सासु कहैं मोहि, राम लषन कहैं मैया ।
१६२--०४---  बाहु जोरि कब अजिर चलहिङ्गे स्याम-गौर दोउ भैया ॥
१६२--०५---  तुलसिदास यहि भाँति मनोरथ करत प्रीति अति बाढ़ी ।
१६२--०५---  थकित भई उर आनि राम-छबि मनहु चित्र लिख काढ़ी ॥
१६३--०१---  महाराज दशरथका देहत्याग
१६३--०१---  सुन्यौ जब फिरि सुमन्त पुर आयो ।
१६३--०१---  कहिहै कहा, प्रानपतिकी गति, नृपति बिकल उठि धायो ॥
१६३--०२---  पाँय परत मन्त्री अति ब्याकुल, नृप उठाय उर लायो ।
१६३--०२---  दसरथ-दसा देखि न कह्यो कछु, हरि जो सँदेस पठायो ॥
१६३--०३---  बूझि न सकत कुसल प्रीतमकी, हृदय यहै पछितायो ।
१६३--०३---  साँचेहु सुत-बियोग सुनिबे कहँ धिग बिधि मोहि जिआयो ॥
१६३--०४---  तुलसिदास प्रभु जानि निठुर हौं न्याय नाथ बिसरायो ।
१६३--०४---  हा रघुपति कहि पर्यो अवनि, जनु जलतें मीन बिलगायो ॥
१६४--०१---  मुएहु न मिटैगो मेरो मानसिक पछिताउ ।
१६४--०१---  नारिबस न बिचारि कीन्हौं काज, सोचत राउ ॥
१६४--०२---  तिलकको बोल्यौ, दिये बन, चौगुनो चित चाउ ।
१६४--०२---  हृदय दाड़िम ज्यौं न बिदर्यो समुझि सील-सुभाउ ॥
१६४--०३---  सीय-रघुबर-लषन बिनु भय भभरि भगी न आउ ।
१६४--०३---  मोहि बूझि न परत, यातें कौन कठिन कुघाउ ॥
१६४--०४---  सुनि सुमन्त! कि आनि सुन्दर सुवन सहित जिआउ ।
१६४--०४---  दास तुलसी नतरु मोको मरन अमिय पिआउ ॥
१६५--०१---  अवध बिलोकि हौं जीवत रामभद्र-बिहीन!
१६५--०१---  कहा करिहैं आइ सानुज भरत धरमधुरीन ॥
१६५--०२---  राम-सोक-सनेह-सङ्कुल, तनु बिकल,मनु लीन ।
१६५--०२---  टुटि तारो गगन-मग ज्यों होत छिन-छिन छीन ॥
१६५--०३---  हृदय समुझि सनेह सादर प्रेम पावन मीन ।
१६५--०३---  करी तुलसीदास दसरथ प्रीति-परमिति पीन ॥
१६६--राग--- गौरी
१६६--०१---  करत राउ मनमों अनुमान ।
१६६--०१---  सोक-बिकल, मुख बचन न आवै, बिछुरै कृपानिधान ॥
१६६--०२---  राज देन कहि बोलि नारि-बस मैं जो कह्यो बन जान ।
१६६--०२---  आयसु सिर धरि चले हरषि हिय कानन भवन समान ॥
१६६--०३---  ऐसे सुतके बिरह-अवधि लौं जौ राखौं यह प्रान ।
१६६--०३---  तौ मिटि जाइ प्रीतिकी परमिति, अजस सुनौं निज कान ॥
१६६--०४---  राम गए अजहूँ हौं जीवत, समुझत हिय अकुलान ।
१६६--०४---  तुलसिदास तनु तजि रघुपति हित कियो प्रेम परवान ॥
१६७--०१---  भरतजी अयोध्यामें
१६७--०१---  ऐसे तैं क्यों कटु बचन कह्यो री ?
१६७--०१---  राम जाहु कानन, कठोर तेरो कैसे धौं हृदय रह्यो, री ॥
१६७--०२---  दिनकर-बंस, पिता दसरथ-से, राम-लषन-से भाई ।
१६७--०२---  जननी !तू जननी ?तौ कहा कहौं, बिधि केहि खोरि न लाई ॥
१६७--०३---  हौं लहिहौं सुख राजमातु ह्वै, सुत सिर छत्र धरैगो ।
१६७--०३---  कुल-कलङ्क मल-मूल मनोरथ तव बिनु कौन करैगो ?॥
१६७--०४---  ऐहैं राम, सुखी सब ह्वैहैं, ईस अजस मेरो हरिहैं ।
१६७--०४---  तुलसिदास मोको बड़ो सोच है, तू जनम कौनि बिधि भरिहै ॥
१६८--०१---  ताते हौं देत न दूषन तोहू ।
१६८--०१---  रामबिरोधी उर कठोरतें प्रगट कियो है बिधि मोहू ॥
१६८--०२---  सुन्दर सुखद सुसील सुधानिधि, जरनि जाइ जिहि जोए ।
१६८--०२---  बिष-बारुनी-बन्धु कहियत बिधु! नातो मिटत न धोए ॥
१६८--०३---  होते जौ न सुजान-सिरोमनि राम सवके मन माहीं ।
१६८--०३---  तौ तोरी करतूति, मातु! सुनि प्रीति-प्रतीति कहा हीं ?॥
१६८--०४---  मृदु मञ्जुल सीञ्ची-सनेह सुचि सुनत भरत-बर-बानी ।
१६८--०४---  तुलसी साधु-साधु ,सुर-नर-मुनि कहत प्रेम पहिचानी ॥
१६९--०१---  जो पै हौं मातु मते महँ ह्वैहौं ।
१६९--०१---  तौ जननी !जगमें या मुखकी कहाँ कालिमा ध्वैहौं ?॥
१६९--०२---  क्यों हौं आजु हौत सुचि सपथनि ?कौन मानिहै साँची? ।
१६९--०२---  महिमा-मृगी कौन सुकृतीकी खल-बच-बिसिषन बाँची ?॥
१६९--०३---  गहि न जाति रसना काहूकी, कहौ जाही जोइ सूझै ।
१६९--०३---  दीनबन्धु कारुण्य-सिन्धु बिनु कौन हियेकी बूझै ?॥
१६९--०४---  तुलसी रामबियोग बिषम-बिष-बिकल नारि-नर भारी ।
१६९--०४---  भरत-सनेह-सुधा सीञ्चे सब भए तेहि समय सुखारी ॥
१७०--०१---  काहेको खोरि कैकयिहि लावौं?
१७०--०१---  धरहु धीर, बलि जाउँ तात! मोको आज विधाता बावौं ॥
१७०--०२---  सुनिबे जोग बियोग रामको हौं न होउँ मेरे प्यारे ।
१७०--०२---  सो मेरे नयननि आगेतें रघुपति बनहि सिधारे ॥
१७०--०३---  तुलसिदास समुझाइ भरत कहँ, आँसू पोञ्छि उर लाए ।
१७०--०३---  उपजी प्रीति जानि प्रभुके हित, मनहु राम फिरि आए ॥
१७१--०१---  भरतजीका चित्रकूटको प्रस्थान
१७१--०१---  मेरो अवध धौं कहहु, कहा है ।
१७१--०१---  करहु राज रघुराज-चरन तजि, लै लटि लोगु रहा है ॥
१७१--०२---  धन्य मातु, हौं धन्य, लागि जेहि राज-समाज ढहा है ।
१७१--०२---  तापर मोको प्रभु करि चाहत सब बिनु दहन दहा है ॥
१७१--०३---  राम-सपथ, कोउ कछू कहै जनि, मैं दुख दुसह सहा है ।
१७१--०३---  चित्रकूट चलिए सब मिलि, बलि, छमिए मोहि हहा है ॥
१७१--०४---  यों कहि भोर भरत गिरिवरको मारग बूझि गहा है ।
१७१--०४---  सकल सराहत, एक भरत जग जनमि सुलाहु लहा है ॥
१७१--०५---  जानहिं सिय-रघुनाथ भरतको सील सनेह महा है ।
१७१--०५---  कै तुलसी जाको राम-नामसों प्रेम-नेम निबहा है ॥
१७२--०१---  भाई! हौं अवध कहा रहि लैहौं ।
१७२--०१---  राम-लषन-सिय-चरन बिलोकन काल्हि काननहि जैहौं ॥
१७२--०२---  जद्यपि मोतें, कै सुमाततें ह्वै आई अति पोची ।
१७२--०२---  सनमुख गए सरन राखहिङ्गे रघुपति परम सँकोची ॥
१७२--०३---  तुलसी यों कहि चले भोरही, लोग बिकल सँग लागे ।
१७२--०३---  जनु बन जरत देखि दारुन दव निकसि बिहँग-मृग भागे ॥
१७३--०१---  सुकसों गहवर हिये कहै सारो ।
१७३--०१---  बीर कीर! सिय-राम-लषन बिनु लागत जग अँधियारो ॥
१७३--०२---  पापिनि चेरि, अयानि रानि, नृप हित-अनहित न बिचारो ।
१७३--०२---  कुलगुर-सचिव-साधु सोचतु, बिधि को न बसाइ उजारो ?॥
१७३--०३---  अवलोके न चलत भरि लोचन, नगर कोलाहल भारो ।
१७३--०३---  सुने न बचन करुनाकरके, जब पुर-परिवार सँभारो ॥
१७३--०४---  भैया भरत भावतेके, सँग बन सब लोग सिधारो ।
१७३--०४---  हम पँख पाइ पीञ्जरनि तरसत अधिक अभाग हमारो ॥
१७३--०५---  सुनि खग कहत अंब! मौङ्गी रहि समुझि प्रेमपथ न्यारो ।
१७३--०५---  गए ते प्रभुहि पहुँचाइ फिरे पुनि करत करम-गुन गारो ॥
१७३--०६---  जीवन जग जानकी-लषनको, मरन महीप सँवारो ।
१७३--०६---  तुलसी और प्रीतिकी चरचा करत, कहा कछु चारो ॥
१७४--०१---  कहै सुक, सुनहि सिखावन, सारो !
१७४--०१---  बिधि-करतब बिपरीत बाम गति, राम-प्रेम-पथ न्यारो ॥
१७४--०२---  को नर-नारि अवध खग-मृग, जेहि जीवन रामतें प्यारो ।
१७४--०२---  बिद्यमान सबके गवने बन, बदन करमको कारो ॥
१७४--०३---  अंब, अनुज, प्रिय सखा, सुसेवक देखि बिषाद बिसारो ।
१७४--०३---  पञ्छी परबस परे पीञ्जरनि, लेखो कौन हमारो ॥
१७४--०४---  रही नृपकी, बिगरी है सबकी, अब एक सँवारनिहारो ।
१७४--०४---  तुलसी प्रभु निज चरन-पीठ मिस भरत-प्रान रखवारो ॥
१७५--०१---  ता दिन सृङ्गबेरपुर आए ।
१७५--०१---  राम-सखा ते समाचार सुनि बारि बिलोचन छाए ॥
१७५--०२---  कुस-साथरी देखि रघुपतिकी हेतु अपनपौ जानी ।
१७५--०२---  कहत कथा सिय-राम-लषनकी बैठेहि रैनि बिहानी ॥
१७५--०३---  भोरहिं भरद्वाज आश्रम ह्वै, करि निषादपति आगे ।
१७५--०३---  चले जनु तक्यो तड़ाग तृषित गज घोर घामके लागे ॥
१७५--०४---  बूझत चित्रकूट कहँ जेहि तेहि, मुनि बालकनि बतायो ।
१७५--०४---  तुलसी मनहु फनिक मनि ढूँढ़त, निरखि हरषि हिय धायो ॥
१७६--०१---  राम-भरत-मिलन
१७६--राग--- केदारा
१७६--०१---  बिलोके दूरितें दोउ बीर ।
१७६--०१---  उर आयत, आजानु सुभग भुज, स्यामल-गौर सरीर ॥
१७६--०२---  सीस जटा, सरसीरुह लोचन, बने परिधन मुनिचीर ।
१७६--०२---  निकट निषङ्ग, सङ्ग सिय सोभित, करनि धुनत धनु-तीर ॥
१७६--०३---  मन अगहुँड़, तनु पुलक सिथिल भयो, नलिन नयन भरे नीर ।
१७६--०३---  गड़त गोड़ मानो सकुच-पङ्क महँ, कढ़त प्रेम-बल धीर ॥
१७६--०४---  तुलसिदास दसा देखि भरतकी उठि धाए अतिहि अधीर ।
१७६--०४---  लिये उठाइ उर लाइ कृपानिधि बिरह-जनित हरि पीर ॥
१७७--०१---  भरत भए ठाढ़े कर जोरि ।
१७७--०१---  ह्वै न सकत सामुहें सकुचबस समुझि मातुकृत खोरि ॥
१७७--०२---  फिरिहैं किधौं फिरन कहिहैं प्रभु कलपि कुटिलता मोरि ।
१७७--०२---  हृदय सोच, जलभरे बिलोचन, नेह देह भै भोरि ॥
१७७--०३---  बनबासी, पुरलोग, महामुनि किए हैं काठके-से कोरि ।
१७७--०३---  दै दै श्रवन सुनिबेको  जहँ तहँ रहे प्रेम मन बोरि ॥
१७७--०४---  तुलसी राम-सुभाव सुमिरि, उर धरि धीरजहि बहोरि ।
१७७--०४---  बोले बचन बिनीत उचित हित करुना-रसहि निचोरि ॥
१७८--०१---  जानत हौ सबहीके मनकी ।
१७८--०१---  तदपि,कृपालु करौं! बिनती सोइ सादर सुनहु दीन-हित जनकी ॥
१७८--०२---  ये सेवक सन्तत अनन्य अति, ज्यों चातकहि एक गति घनकी ।
१७८--०२---  यह बिचारि गवनहु पुनीत पुर, हरहु दुसह आरति परिजनकी ॥
१७८--०३---  मेरो जीवन जानिय ऐसोइ, जियै जैसो अहि, जासु गई मनि फनकी ।
१७८--०३---  मेटहु कुलकलङ्क कोसलपति, आग्या देहु नाथ मोहि बनकी ॥
१७८--०४---  मोको जोइ लाइय लागै सोइ उतपति है कुमातुतें तनकी ।
१७८--०४---  तुलसिदास सब दोष दूरि करि प्रभु अब लाज करहु निज पनकी ॥
१७९--०१---  तात! बिचारो धौं, हौं क्यों आवौं ।
१७९--०१---  तुम्ह सुचि, सुहृद, सुजान सकल बिधि, बहुत कहा
१७९--०१---  कहि कहि समुझावौं ॥
१७९--०२---  निज कर खाल खैञ्चि या तनुतें जौ पितु पग पानही करावौं ।
१७९--०२---  होउँ न उरिन पिता दसरथतें, कैसे ताके बचन मेटि पति पावौं ॥
१७९--०३---  तुलसिदास जाको सुजस तिहूँ पुर, क्यों तेहि
१७९--०३---  कुलहि कालिमा लावौं ।
१७९--०३---  प्रभु-रुख निरखि निरास भरत भए, जान्यो है सबहि
१७९--०३---  भाँति बिधि बावौं ॥
१८०--०१---  बहुरो भरत कह्यो कछु चाहैं ।
१८०--०१---  सकुच-सिन्धु बोहित बिबेक करि बुधि-बल बचन निबाहैं ॥
१८०--०२---  छोटेहुतें छोह करि आए, मैं सामुहैं न हेरो ।
१८०--०२---  एकहि बार आजु बिधि मेरो सील-सनेह निबेरो ॥
१८०--०३---  तुलसी जो फिरिबो न बनै, प्रभु तौ हौं आयसु पावौं ।
१८०--०३---  घर फेरिए लषन, लरिका हैं, नाथ साथ हौं आवौं ॥
१८१--०१---  रघुपति मोहि सङ्ग किन लीजै
१८१--०१---  बार बार पुर जाहु, नाथ केहि कारन आयसु दीजै ॥
१८१--०२---  जद्यपि हौं अति अधम, कुटिलमति, अपराधिनिको जायो ।
१८१--०२---  प्रनतपाल कोमल-सुभाव जिय जानि, सरन तकि आयो ॥
१८१--०३---  जो मेरे तजि चरन आन गति, कहौं हृदय कछु राखी ।
१८१--०३---  तौ परिहरहु दयालु, दीनहित, प्रभु, अभिअंतर-साखी ॥
१८१--०४---  ताते नाथ कहौं मैं पुनि-पुनि, प्रभु पितु, मातु, गोसाईं ।
१८१--०४---  भजनहीन नरदेह बृथा, खर-स्वान-फेरुकी नाईँ ॥
१८१--०५---  बन्धु-बचन सुनि श्रवन नयन-राजीव नीर भरि आए ।
१८१--०५---  तुलसिदास प्रभु परम कृपा गहि बाँह भरत उर लाए ॥
१८२--०१---  काहेको मानत हानि हिये हौ?
१८२--०१---  प्रीति-नीति-गुन-सील-धरम कहँ तुम अवलम्ब दिये हौ ॥
१८२--०२---  तात! जात जानिबे न ए दिन, करि प्रमान पितु-बानी ।
१८२--०२---  ऐहौं बेगि, धरहु धीरज उर कठिन कालगति जानी ॥
१८२--०३---  तुलसिदास अनुजहि प्रबोधि प्रभु चरनपीठ निज दीन्हें ।
१८२--०३---  मनहु सबनिके प्रान-पाहरु भरत सीस धरि लीन्हें ॥
१८३--०१---  बिनती भरत करत कर जोरे ।
१८३--०१---  दीनबन्धु! दीनता दीनकी कबहुँ परै जनि भोरे ॥
१८३--०२---  तुम्हसे तुम्हहि नाथ मोको, मोसे जन तुमको बहुतेरे ।
१८३--०२---  इहै जानि, पहिचानि प्रीति, छमिए अघ-औगुन मेरे ॥
१८३--०३---  यों कहि सीय-राम-पाँयनि परि लषन लाइ उर लीन्हें ।
१८३--०३---  पुलक सरीर, नीर भरि लोचन, कहत प्रेम-पन-कीन्हें ॥
१८३--०४---  तुलसी बीते अवधि प्रथम दिन जो रघुबीर न ऐहौ ।
१८३--०४---  तौ प्रभु-चरन-सरोज-सपथ जीवत परिजनहि न पैहौ ॥
१८४--०१---  अवसि हौं आयसु पाइ रहौङ्गो ।
१८४--०१---  जनमि कैकयी-कोखि कृपानिधि! क्यों कछु चपरि कहौङ्गो ॥
१८४--०२---  भरत भूप, सिय-राम-लषन बन, सुनि सानन्द सहौङ्गो ।
१८४--०२---  पुर-परिजन अवलोकि मातु सब सुख-सन्तोष लहौङ्गो ॥
१८४--०३---  प्रभु जानत, जेहि भाँति अवधिलौं बचन पालि निबहौङ्गो ।
१८४--०३---  आगेकी बिनती तुलसी तब, जब फिरि चरन गहौङ्गो ॥
१८५--०१---  प्रभुसों मैं ढीठो बहुत दई है ।
१८५--०१---  कीबी छमा, नाथ! आरतितें कही कुजुगुति नई है ॥
१८५--०२---  यों कहि, बार बार पाँयनि परि, पाँवरि पुलकि लई है ।
१८५--०२---  अपनो अदिन देखि हौं डरपत, जेहि बिष बेलि बई है ॥
१८५--०३---  आए सदा सुधारि गोसाईँ, जनतें बिगरि गई है ।
१८५--०३---  थके बचन पैरत सनेह-सरि, पर्यो मानो घोर घई है ॥
१८५--०४---  चित्रकूट तेहि समय सबनिकी बुद्धि बिषाद हई है ।
१८५--०४---  तुलसी राम-भरतके बिछुरत सिला सप्रेम भई है ॥
१८६--०१---  जबतें चित्रकूटतें आए ।
१८६--०१---  नन्दिग्राम खनि अवनि, डासि कुस, परनकुटी करि छाए ॥
१८६--०२---  अजिन बसन, फल असन, जटा धरे रहत अवधि चित दीन्हें ।
१८६--०२---  प्रभु-पद-प्रेम-नेम-ब्रत निरखत मुनिन्ह नमित मुख कीन्हें ॥
१८६--०३---  सिंहासनपर पूजि पादुका बारहि बार जोहारे ।
१८६--०३---  प्रभु-अनुराग माँगि आयसु पुरजन सब काज सँवारे ॥
१८६--०४---  तुलसी ज्यों-ज्यों घटत तेज तनु, त्यों-त्यों प्रीति अधिकाई ।
१८६--०४---  भए, न हैं, न होहिङ्गे कबहूँ भुवन भरत-से भाई ॥
१८७--राग--- रामकली
१८७--०१---  राखी भगति-भलाई भली भाँति भरत ।
१८७--०१---  स्वारथ-परमारथ-पथी जय जय जग करत ॥
१८७--०२---  जो ब्रत मुनिवरनि कठिन मानस आचरत ।
१८७--०२---  सो ब्रत लिए चातक-ज्यों सुनत पाप हरत ॥
१८७--०३---  सिंहासन सुभग राम-चरन-पीठ धरत ।
१८७--०३---  चालत सब राजकाज आयसु अनुसरत ॥
१८७--०४---  आपु अवध, बिपिन बन्धु, सोच-जरनि जरत ।
१८७--०४---  तुलसी सम-बिषम, सुगम-अगम लखि न परत ॥
१८८--०१---  मोहि भावति, कहि आवति नहि भरतजूकी रहनि ।
१८८--०१---  सजल नयन सिथिल बयन प्रभु-गुन-गन कहनि ॥
१८८--०२---  असन-बसन-अयन-सयन धरम गरुअ गहनि ।
१८८--०२---  दिन दिन पन-प्रेम-नेम निरुपधि निरबहनि ॥
१८८--०३---  सीता-रघुनाथ-लषन-बिरह-पीर     सहनि ।
१८८--०३---  तुलसी तजि उभय लोक   रामचरन-चहनि ॥
१८९--०१---  जानी है सङ्कर-हनुमान-लषन-भरत राम भगति ।
१८९--०१---  कहत सुगम, करत अगम, सुनत मीठी लगति ॥
१८९--०२---  लहत सकृत, चहत सकल, जुग जुग जगमगति ।
१८९--०२---  राम-प्रेम-पथतें कबहुँ डोलति नहिं, डगति ॥
१८९--०३---  रिधि-सिधि, बिधि चारि सुगति जा बिनु गति अगति ।
१८९--०३---  तुलसी तेहि सनमुख बिनु बिषय-ठगिनि ठगति ॥
१९०--राग--- गौरी
१९०--०१---  कैकयी करी धौं चतुराई कौन?
१९०--०१---  राम-लषन-सिय बनहि पठाए, पति पठए सुरभौन ॥
१९०--०२---  कहा भलो धौं भयो भरतको, लगे तरुन-तन दौन ।
१९०--०२---  पुरबासिन्हके नयन नीर बिनु कबहुँ तो देखति हौं न ॥
१९०--०३---  कौसल्या दिन राति बिसूरति, बैठि मनहिं मन मौन ।
१९०--०३---  तुलसी उचित न होइ रोइबो, प्रान गए सँग जौ न ॥
१९१--०१---  हाथ मीञ्जिबो हाथ रह्यो ।
१९१--०१---  लगी न सङ्ग चित्रकूटहुतें, ह्याँ कहा जात बह्यो ॥
१९१--०२---  पति सुरपुर, सिय-राम-लषन बन, मुनिब्रत भरत गह्यो ।
१९१--०२---  हौं रहि घर मसान-पावक ज्यों मरिबोइ मृतक दह्यो ॥
१९१--०३---  मेरोइ हिय कठोर करिबे कहँ बिधि कहुँ कुलिस लह्यो ।
१९१--०३---  तुलसी बन पहुँचाइ फिरी सुत, क्यों कछु परत कह्यो ?॥
१९२--०१---  हौं तो समुझि रही अपनो सो ।
१९२--०१---  राम-लषन-सियको सुख मोकहँ भयो, सखी! सपनो सो ॥
१९२--०२---  जिनके बिरह-बिषाद बँटावन खग-मृग जीव दुखारी ।
१९२--०२---  मोहि कहा सजनी समुझावति, हौं तिन्हकी महतारी ॥
१९२--०३---  भरत-दसा सुनि, सुमिरि भूपगति, देखि दीन पुरबासी ।
१९२--०३---  तुलसी राम कहति हौं सकुचति, ह्वैहै जग उपहाँसी ॥
१९३--०१---  आली! हौं इन्हहिं बुझावौं कैसे ?
१९३--०१---  लेत हिये भरि भरि पतिको हित, मातुहेतु सुत जैसे ॥
१९३--०२---  बार-बार हिहिनात हेरि उत, जो बोलै कोउ द्वारे ।
१९३--०२---  अंग लगाइ लिए बारेतें करुनामय सुत प्यारे ॥
१९३--०३---  लोचन सजल, सदा सोवत-से, खान-पान बिसराए ।
१९३--०३---  चितवत चौङ्कि नाम सुनि, सोचत राम-सुरति उर आए ॥
१९३--०४---  तुलसी प्रभुके बिरह-बधिक हठि राजहंस-से जोरे ।
१९३--०४---  ऐसेहु दुखित देखि हौं जीवति राम-लखनके घोरे ॥
१९४--०१---  राघौ! एक बार फिरि आवौ ।
१९४--०१---  ए बर बाजि बिलोकि आपने, बहुरो बनहि सिधावौ ॥
१९४--०२---  जे पय प्याइ, पोखि कर-पङ्कज, बार-बार चुचुकारे ।
१९४--०२---  क्यों जीवहिं, मेरे राम लाड़िले! ते अब निपट बिसारे ॥
१९४--०३---  भरत सौगुनी सार करत हैं, अति प्रिय जानि तिहारे ।
१९४--०३---  तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे, मनहु कमल हिम-मारे ॥
१९४--०४---  सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन, कहियो मातु-सँदेसो ।
१९४--०४---  तुलसी मोहि और सबहिनतें इन्हको बड़ो अँदेसो ॥
१९५--०१---  काहूसों काहू समाचार ऐसे पाए ।
१९५--०१---  चित्रकूटतें राम-लषन-सिय सुनियत अनत सिधाए ॥
१९५--०२---  सैल, सरित, निरझर, बन, मुनि-थल देखि-देखि सब आए ।
१९५--०२---  कहत सुनत सुमिरत सुखदायक, मानस-सुगम सुहाए ॥
१९५--०३---  बड़ि अवलम्ब बाम-बिधि-बिघटित बिषम बिषाद बढ़ाए ।
१९५--०३---  सिरिस-सुमन-सुकुमार मनोहर बालक बिन्ध्य चढ़ाए ॥
१९५--०४---  अवध सकल नर-नारि बिकल अति, अँकनि बचन अनभाए ।
१९५--०४---  तुलसी राम-बियोग-सोग-बस, समुझत नहिं समुझाए ॥
१९६--०१---  सुनी मैं सखि! मङ्गल चाह सुहाई ।
१९६--०१---  सुभ पत्रिका निषातराजकी आजु भरत पहँ आई ॥
१९६--०२---  कुँवर सो कुसल-छेम अलि! तेहि पल कुलगुर कहँ पहुँचाई ।
१९६--०२---  गुर कृपालु सम्भ्रम पुर घर घर सादर सबहि सुनाई ॥
१९६--०३---  बधि बिराध, सुर-साधु सुखी करि, ऋषि-सिख-आसिष पाई ।
१९६--०३---  कुम्भजु-सिष्य समेत सङ्ग सिय, मुदित चले दोउ भाई ॥
१९६--०४---  बीच बिन्ध्य रेवा सुपास थल बसे हैं परन-गृह छाई ।
१९६--०४---  पन्थ-कथा रघुनाथ पथिककी तुलसिदास सुनि गाई ॥

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Last Updated : January 22, 2014

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