अथ गुरुपूजा । कन्यकोद्वाहकाले तु आनुकूल्य न विद्यते । ब्राह्मणस्योपनयने गुरोर्विधिरुदाहत : ॥३३॥
सुवर्णेन गुरुं कृत्वा पीतवस्त्रेण वेष्टयेत् । ऐशान्यां धवलं कुंभं धान्योपरि निधाय च ॥३४॥
मदनं मधुपुष्पं च पलाशं चैव सर्षपान् । मांशीगुडूच्यपामार्गो विंडगं शिखिनी वचा ॥३५॥
सहदेवी हरिक्रांता सर्बोंषधिशतावरी । तथैवा श्वत्थभंगांश्व पंचगव्यं जलं तथा ॥३६॥
या ओषधीति मंत्रेण सर्वास्त्वस्मिन्विनिक्षिपेत् । कुंभस्योपरिभागे तु स्थापयित्वा बृहस्पतिम् ॥३७॥
कृत्वाऽऽज्यभागपर्यंतं स्वशाखोक्तविधानत : । पूजयेत्पीतपुष्पाद्यैस्ततो होमं समाचरेत् ॥३८॥
अश्वत्थसमिधश्वाज्यं पायसं सर्पिषा युतम् । यवव्रीहितिला : साज्या मैत्रेणैव बृहस्पते : ॥३९॥
अष्टोत्तरशंत सर्वहोमशेषं समापयेत् । ततो होमावसाने तु पूजयेच्च वृहस्पतिम् ॥४०॥
पीतगंधैस्तथा पुष्पैर्धूपैर्दीपैश्व भक्तित : । दध्योदनं च नैवेद्यं फलतांबूलसंयुतम् ॥४१॥
अर्ध्यं दत्त्वा सुरेशाय जपहोम समर्पयेत् । पुत्रदारसमेतस्य अभिषेकं प्रमाचरेत् ॥४२॥
प्रतिमां कुंभवस्त्रं च आचार्याय निवेदयेत् ॥ ब्राह्मणान् भोजयेत्पश्वाच्छुभद : स्पान्न संशय : ॥४३॥ इति बृहस्पतिपूजा ॥
( गुरूपूजाप्रकार ) कन्याके विवाहकालमें और ब्राह्मणके यज्ञोपवीतमें यदि बृहस्पति अशुभ स्थानमें हो तो उसकी विधि लिखते विधि लिखते हैं ॥३३॥
सुवर्णकी गुरुकी मूर्ति बनाके पीतवस्त्रसे वेष्टन करे और धानके ऊपर सफेद कलश स्थापन करके मदन ( महुवे ) का पुष्प . पलाशपत्र , सरसों , जटामांसी , गिलोय , अपामार्ग ( ओंगा ), वायविडंग , शिखिनी , वच , सहदेई , कोयल , सर्वौंषधी , शतावरी , पीपलका पत्र , पंचगव्य , जल यह द्रव्य ( या ओषधि : ) इस मंत्र करके कलशमें डाले फिर कलशके ऊपर बृहस्पतिको स्थापन करके पूजा करे ॥३४॥३७॥
और अग्निस्थापनके अनंतर अपनी शाखा सूत्रके अनुसार आज्यभागपर्यंत घृतका होम करके फिर पीतपुष्प गंधादिकोंसे बृहस्पतिकी पूजा करे , तदनंतर पीपलकी समिध घृत पायस शाकल्यकी गुरुके मंत्र करके १०८ आहुति देवे और होमके अंतमें पीत गंध , पुष्प . धृप . दीप , दध्योदन , तांबूल , ऋतुफल आदिकोंकरके पूजा करे , फिर अर्ध्य देके जप होम अर्पण करे और पुत्र स्त्रीसहित जयमानका अभिषेक करे , और मूर्ति , कुंभ , वस्त्र आचर्यको देके ब्राह्मणभोजन करावे तो गुरु शुभफलका देनेवाला होता है ॥३८॥४३॥
अथ गुरोर्दानम् । अश्वं सुवर्णं मधु पीतवस्त्रं सवीतधान्यं लवण सपुष्पम् । सशर्करं तद्रजनीप्रयुक्तं दुष्टाय शांत्यै गुरवे प्रवीतम् ॥४४॥
अथोभयोश्चंद्रबलम् । आद्यश्चंद्र : श्रियं कुर्यान्मनस्तोषं द्वितीयके । तृतीये धनसंपत्तितुश्वर्थे कलहागम : ॥४५॥
पंचमे ज्ञानवृद्धि : स्यात षष्ठे संपत्तिरुत्तमा । सप्तमें राजसंमानो मरणं चाष्टमें तथा ॥४६॥
नवमे धर्मलाभश्व दशभे मनसेप्सितम् ॥ एकादशे सर्वलाभो द्वादशे हानिरेव च ॥४७॥
अथावश्यकेऽनिष्टचंद्रशांति : । कांस्यपात्रेऽथ संस्थाप्य सोमं रजतसंभवम् । श्वेतवस्त्रयुगच्छन्न श्वेतपुष्पै : प्रपूजितम् ॥४८॥
पादुकोपानहच्छत्र भोजनासनसंयुतम् । होमं घृततिलै : कुर्यात्सोमनाम्नाऽथ मंत्रवित् ॥४९॥
समिधोऽष्टोत्तरशतमष्टाविंशतिरेव वा । होतव्या मधुसर्पिर्श्र्यां दध्ना चैव घृतेन च ॥५०॥
दध्यन्नशिखरे कृत्वा ब्राह्मणाय निवेदयेत् ॥ मत्रेणानेन राजेंद्र सम्यग्भक्त्या समन्वित : ॥५१॥
महादेव जातिवल्लीपुष्पगोक्षीरपांडुर । सोम सौम्यो भवास्माकं सर्वदा ते नमो नम : ॥५२॥
एवं कृते महासौम्य : सोमस्तुष्टिकरो भवेत् । इति चंद्रशांति : । अथ चंद्रदानम् । घृतकलशं सितवस्त्रं दधि शखं मौक्तिकं सुवर्णं च । रजतं च प्रदद्याच्चद्रारिष्टोपशांतये त्वरितम् ॥५३॥ इति रव्यादिशुद्धिप्रकार : ।
( गुरुदान ) अश्व , सुवर्ण , शहद , पीतवस्त्र , पीतधान्य , लवण , पीतपुष्प , मिश्री , हलदी यह गुरुकी शांतिके अर्थ दान देना योग्य है ॥४४॥
( चन्द्रबल ) जन्मका चन्द्रमा श्रीप्राप्ति करे १ , दूसरा मन प्रसन्न करे २ , तीसरा धनकी संपत्ति करे ३ , चौथा कलह करे ४ ॥४५॥
पांचवां ज्ञानकी वृद्धि ५ , छठा , उत्तम संपत् ६ , सातवां राजमें संमान ७ , आठवां मृत्यु ८ ॥४६॥
नौवां धर्मलाभ ९ , दशवां मनके कार्य सिद्ध करे १० , ग्यारहवां सर्वलाभ ११ और बारहवां हानि करे १२ ॥४७॥
( चन्द्रपूजा ) यदि चन्द्रमा अशुभ ४।८।१२ स्थानोंमें हो तो कांसीके पात्रमें चन्द्रमाकी मूर्ति स्थापन करके सफेद वस्त्रसे वेष्टन करे और श्वेतचंदन , पुष्प आदि करके पूजे ॥४८॥
और पावडी , उपानह , छत्र , भोजन , आसन पास रक्खे फिर पलाशकी समिध , शहद , घृत , दहीसे आर्द्रा ( भिगो ) करके तिल घृतके सहित चन्द्रमाके मंत्र करके १०८ आहुति देवे ॥४९॥५०॥
और दही चावलके पुंजसहित मूर्तिका दान भक्ति करके ( महादेव ) इस मंत्रसे करे तो चन्द्रमा प्रसन्न होके शांति करे ॥५१॥५२॥
( चंद्रमाका दान ) घृतपूर्ण कलश , सफेद वस्त्र , दधि , शंख , मोती , सुवर्ण , चांदि यह दान देनेसे चंद्रमाका अरिष्टदोष शीघ्र ही दूर होता है ॥५३॥