विवाहप्रकरणम्‌ - श्लोक १८२ ते २१७

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ देशभेदादिना गोधूलिमुख्यता । प्राच्यानां च कलिङ्गानां मुख्यं गोधूलिकं स्मृतम्‌ । गांधर्वादिविवाहेषु वैश्योद्वाहे च योजयेत्‌ ॥१८२॥

रात्रौ लग्नं यदा नास्ति तदा गोधूलिकं शुभम्‌ ॥ शूद्रादीनां बुधा : प्राहुर्न द्विजानां कदाचना ॥१८३॥

लग्नशद्धिर्यदा नास्ति कन्या यौवनशालिनी । तदा वै सर्ववर्णानां लग्नं गोधूलिकं शुभम्‌ ॥१८४॥

अथ गोधूलिकलग्ने ग्रहबलम्‌ । यत्र चैकादशश्वंद्रो ११ द्वितीयो २ वा तृतीयक : ३ । गोधूलिक : स विज्ञेय : शेपा धूलिमुखा : स्मृता : ॥१८५॥

यह गोधूलिकलग्न पूर्वके देशोंमें तथा कलिंग देशमें और गांधर्व आदि वाहोंमें और वैश्योंके विवाहोंमें अति श्रेष्ठ है ॥१८२॥

ब्राह्मणोंके तो रात्रिमें शुद्ध लग्न नही हो तब लेना चाहिये और शूद्रोंके तो गोपूलिक लग्नमें ही विवाह करना शुभ है ॥१८३॥

यदि लग्न शुद्ध नहीं मिले और कन्या समर्थ हो जावे तो ब्राह्मण आदि सूंपूर्ण वर्णोंके लिये भी गोधूलिक लग्न शुभ है ॥१८४॥

गोधूलिक लग्नसे चन्द्रमा ११ । २ । ३ स्थानोंमें हो तत्त्व श्रेष्ठ गोधूलिक होता है नहीं तो अन्य धूलिमुख जानना ॥१८५॥

अथ गोधूल्यां भंगदा ग्रहास्त्याज्या : दोपाश्च ॥ अष्टमे ८ जीवभौमौ च बुधश्व भार्गवाऽष्टमे । लग्ने षष्ठा ६ षृग ८ श्वंद्रो गोधूलेर्नाशकस्तदा ॥१८६॥

षष्ठे ६ ऽष्टमे ८ मूर्त्तिगते १ शशांके गोधूलिके मृत्युमुपैति कन्या । कुजेऽष्टमे ८ मूर्त्तिगते १ ऽथवाऽस्ते ७ वरस्य नाशं प्रवदंति गर्गा : ॥१८७॥

पष्ठाष्टमे ६ । ८ चंद्रजचंद्रजीवे क्षोणीसुत वा भुगुनंदने वा । मूत्तें १ च चंद्रे नियमेन मृत्युगोंधूलिकं स्वादिह वर्ज्जनीयम्‌ ॥१८८॥

कुलिकं क्रांतिमाम्यं च लग्ने १ पष्ठाऽष्टमे ६ । ८ शशी । तदा गोधूलिकस्त्याज्य : पंचदोपैश्व दूषित : ॥१८९॥

अथ विवाहांगकार्यमुहूर्त : । कार्यं विवाहकार्यांगं विवाहोदितभे जनै : । विबलं च विधुं हित्वा त्रि ३ षष्ठ ६ नवमं ९ दिनम्‌ ॥१९०॥

विशाखां भरणीं चित्रां ज्येष्ठाख्यामश्विनीं शतम्‌ । आर्द्राचतुष्टयं ४ हित्वा कुर्याद्वैवाहिकं विधिम्‌ ॥१९१॥

( गोधूलिकालमें त्याज्य ग्रह और दोष ) गोधूलिक लग्नसे आठवे ८ गुरु , मंगल बुध , शुक्र हो और १ । ६ । ८ चन्द्रमा हो तो गोधूलिक अशुभ होता है ॥१८६॥

६।८।१ इन स्थानोंमें चन्द्रमा हो तो कन्या मरजावे और ८।१।७ मंगल हो तो वरकी मृत्यु हो यह गर्गका वाक्य है ॥१८७॥

चन्द्रमा , बुध , गुरु , मंगल , शुक्र ६ । ८ हो और लग्नमें चंद्रमा हो तो निश्वय मृत्यु होवे ॥१८८॥

कुलिकयोग , क्रांतिसाम्य दोष तथा १ । ६ । ८ चन्द्रमा हो तो पंच दोषोंकरके दूषित गोधूलिक लग्न अशुभ है और त्यागने योग्य है ॥१८९॥

( विवाहके पहके होनेवाला कर्म ) विवाहसे पहले होनेवाला कर्म विवाह आरंभ [ बान बैठाना , हलदी हाथ करना साहा पूजना , आदि कर्म ] विवाहके नक्षत्रोंमें और श्रेष्ठ चन्द्रमामें तथा विवाहसे पहले ३।६।९ दिन त्यागके शुभ दिनमें करने चाहिये ॥१९०॥

परंतु विशाखा . भ . चि . ज्ये . अश्वि . श . आ . पु . पु . आश्ले . इन नक्षत्रोंको त्यागके विवाहकार्य करना शुभ है ॥१९१॥

अथ शुभदिने कर्तव्यकार्यम्‌ । हेरंबपूजनं तैलं सकलं चांकुरार्पणम्‌ । भूषणं ककणाद्यं च वेदिकामडपादिकम्‌ ॥१९२॥

अथ तैलाभ्यंगे विशेष : । तैलाश्र्यंगे रवौ ताप : सोमे शोभा कुजे मृति : । बुधे धनं गुरौ हानि : शुक्रे दु : खं शनौ सुखम्‌ ॥१९३॥

अथ वारदोषपरिहार : । रवौ पुष्पं गुरौ दूर्वा भौमवारे च मृत्तिका । शुक्रे तु गोमयं दद्यात्तैलाश्र्यगे न दोषभाक्‌ ॥१९४॥

अथ त्तैलादिलापने दिनसख्या । मेषादिराशिजातानां कुर्यात्तैलादिलापनम्‌ । शैल ७ दिक १० बाण ५ सप्तां ७ ग ६ इषु ५ पंचे ५ षव : ५ शरा : ५ । बाण ५ शैला ७ स्त्रय ३ श्वैव क्रमात्कैश्विदितीरितम्‌ ॥१९५॥

अथ विवाहवेदिका मंडपस्तंभनिवेशनं च । चतुरस्त्रां करोच्छ्रां च चतुर्हस्तां सुवेदिकाम्‌ । वेश्मनी वामभागे च कुर्यात्स्तंभोपशोभिताम्‌ ॥१९६॥

सूर्यौऽङ्गना ६ सिंह ५ घटेषु ७ शैवे स्तंभोऽलि ८ कोदंड ९ मृगेषु १० वायौ । मीना ११ ज १ कुंभे ११ निऋतौ बिवाहे स्थाप्योऽग्निकोणे वृष २ युग्म ३ कर्के ४ ॥१९७॥

( शुभदिनमें करनेयोग्य काम ) गणेशपूजन , तैलाभ्यंग , अंकुरार्पण , भूषण , कंकण आदिका धारण , विवाहवेदी मंडप आदि संपूर्ण कार्य शुभ दिनमें करे ॥१९२॥

आदित्यवारको तेल लगावे तो ज्वर आवे , सोमवारको शोभा , मंगलको मृत्यु , बुधको धनप्राप्ति , गुरुकी हानि , शुक्रको दु : ख और शनिवारको तैल लगावे तो सुख होवे ॥१९३॥

आदित्यवारको तेलमें पुष्प डालके तैल लगानेमें दोष नहीं , गुरुवारको दूर्वा , मंगलको मृत्तिका , शुक्रको गोमय डालके लगावे तो दोष नहीं है ॥१९४॥

मेष आदि राशिवालोंको क्रमसे ७।१०।५।७।६।५।५।५।५।५।७।३ इतने दिन पहले तैलाभ्यंग करना शुभ है ॥१९५॥

विवाहके अर्थ चतुरस्त्र ( चार कोणबाली ) एक हाथ ऊँची चार ४ हाथ लम्वी घरके वामभागमें स्तंभोंकरके शोभित वेदी बनानी चाहिये ॥१९६॥

विवाहके मंडपका स्तंभ , सूर्य कन्या ६ , सिंह ५ , तुलाका ७ , हो तो ईशान कोणमें स्थापन करे और ८ । ९ । १० का हो तो वायुकोणमें धरे , १२ । १ । ११ हो तो निऋति कोणमें , और २ । ३ । ४ का सूर्य हो तो अग्निकोणमें स्तंभ धरना शुभ है ॥१९७॥

अथ विवाहानंतरं मडपोद्वासनम्‌ । मंडपोद्वासनं षष्ठं हित्वा कुर्यात्समेऽहनि । पंचमे सप्तमे वाऽपि शुभर्क्षे शुभवासरे ॥१९८॥

अथ विवाहानंतरं वधुप्रवेश : । लग्नादह्नि समे पत्तसप्तकेऽप्यथ षोडशात । ततस्त्वापंचमाद्वर्षादीजाहे मासि वत्सरे ॥१९९॥

यथेच्छं तु ततो वध्वा : प्रवेश : शुभद ; स्मृत : । श्रवणद्वितये २ मूलेऽनुगधारोहिनीमृगे ॥२००॥

हस्तत्रये ३ मघापुष्ये त्र्युत्तरे ३ रेवतीद्वये २ । प्रवेश : शुभदो वध्वा : सोमे शुक्रे गुरो शनौ ॥२०१॥

अथ प्रथमाब्दे मासविशेषेण वध्वा निवासदोष : । उद्वाहात्प्रयमे ज्येष्ठे यदि पत्युगृहे वसेत्‌ । पत्युज्येंष्ठं तदा हंति पौषे तु श्वशुरं तथा ॥२०२॥

श्वश्रूं साऽऽषाढमासे तु चाधिमासे स्वक पतिम्‌ । आत्मानं तु क्षये मासि तातं तातगृहे मधौ ॥२०३॥

( विवाहके बाद मण्डपोद्वासन ) विवाहके अनंतर छठा ६ दिन त्यागके सम दिनमें अथवा पांचवें ५ सातवें ७ दिनमें शुभ नक्षत्र वारको मंडप उठाना श्रेष्ठ है ॥१९८॥

( वधूप्रवेश ) विवाहके अनंतर विवाहसे सम दिनमें अथवा पांचवें ५ या सातवें ७ दिनमें सोलह १६ दिनके भीतर अथवा पांच बरसतक विषम १।३।५ संख्याके बरस मास दिनोंमें वधूप्रवेश करे तो शुभ है ॥१९९॥

पांच बरसके उपरांत अपनी इच्छासे कोईसे बरसमें कर लेना शुभ है , परंतु श्र . ध . मू . अनु . रो . मृ . ह . चि . स्वा . म . पुष्य उत्तरा ३ , रे . अश्वि . इन नक्षत्रोंमें सोम . शुक्र . गुरु . शनि वारोंमें वधूप्रवेश करना चाहिये ॥२००॥२०१॥

( प्रथमवर्षमें मासविशेषसे वधूके निवासमें दोष ) यदि विवाहसे प्रथम ज्येष्ठमें स्त्री पतिके घरमें रहे तो अपने ज्येष्ठको मारती है , और पौषमें रहे तो समुरेको , आषाढमें रहे तो सासूको , अधिक मासमें रहे तो अपने पतिको मारती है , और क्षयमासमें रहे तो अपने आत्माका नाश करती है , यदि चैत्रमें अपने पिताके घरमें रहजावे तो पिताको मारती है ॥२०२॥२०३॥

अथ द्विरागमनम्‌ । विवाहाद्विषमे वर्षे कुंभमेषालिगे रवौ । बलिन्यर्के विधो जीवे शुभाहे चाश्विनीमृगे ॥२०४॥

रेवतीरोहिणीपुष्ये त्र्युत्तरे श्रवणत्रये । हस्तत्रये पुनर्वस्वोस्तथा मूलानुराधयो : ॥२०५॥

कन्या ६ मीन १२ तुले ७ युग्मे ३ वृषे २ प्रोक्तबलान्विते । लग्ने पद्मदलाक्षीणां द्विराणमनमिष्यते ॥२०६॥

भौमार्किवर्जिता वारा गृह्यन्ते च द्विरागमे । षष्ठी ६ रिक्ता ४।९।१४ द्वादशी च १२ साऽमावास्या च वर्जिता ॥२०७॥

अथ मासेषु विशेष : । मार्गफाल्गुनवैशाखे शुक्लपक्षे शुभे दिने । गुर्वादित्यविशुद्धौ स्त्यान्नित्यं पत्नीद्विरागमें ॥२०८॥

चैत्रे पौषे हरिस्वप्ने गुरोरस्ते मलिम्लुचे । नवोढागमनं नैव कृते पंचत्वमाप्नुयात्‌ ॥२०९॥

अथ संमुखशुक्रादौ निषिद्धम्‌ । अस्तं गते भृगो : पुत्रे तथा संमुखमागते । नष्टे जीवे निरंशे वा नैव सचालयेद्वधूम‌ ॥२१०॥

गर्भिण्या बालकेनापि नवबध्वा द्विरागमे । पदमेकं न गतव्यं शुक्रे समुखदक्षिणे ॥२११॥

गुर्विणी स्रवते गर्भ बालोऽपि मरण व्रजेत । नवा वधूर्भवेद्वंध्याशुके संमुखदक्षिणे ॥२१२॥

( द्विरागमनमु , ) विवाहसे विषम १।३।५ बरसमें और कुंभ ११ मेष १ के सूर्यमें और वरकन्याको सूर्य , चंद्रमा , गुरु बलवान्‌ होनेसे शुभ दिनमें द्विरागमन ( मुकलावा ) श्रेष्ठ है ॥२०४॥

अश्वि . मृ . रे . रो . पुष्य . उ . ३ , श्र . ध . श ह . चि . स्वा . पून . मू . अनु . यह नक्षत्र शुभ हैं ॥२०५॥

कन्या ६ , मीन १२ , तुला ७ मिथुन ३ , वृष २ इन बलयुक्त लग्नोंमें स्त्रियोंका द्विरागमन करना ॥२०६॥

मंगल , शनिके विना संपूर्ण वार शुभ हैं , ६।४।९।१४।१२।३० यह तिथि निषिद्ध हैं , ॥२०७॥

( मासोंमें विशेष ) मार्ग , फाल्गु , वैशाख शुक्लपक्ष शुभदिन श्रेष्ठ हैं , गुरु आदित्यकी शुद्धि देखना चाहिये ॥२०८॥

चैत्र , पौष , देवशयनके मास , गुरुका अस्त , अधिकमासमें यदि स्त्री पतिके घर जावे तो मृत्यु हो ॥२०९॥

( संमुख शुक्रादिमें निषिद्धकाल ) शुक्र अस्त हो अथवा सम्मुख हो या गुरुका अस्त होवे या गुरु अंशहीन हो नो द्विरागमन नहीं करना ॥२१०॥

यदि शुक्र सम्मुख होवे तो गमिंणी स्त्री या बालकसहित स्त्री और नवीन ( मुकलावावाली ) स्त्री चलनेके लिये एक पैंड भी नहीं रवरवे और शुक्र यदि दक्षिणभागमें होवे तो भी नहीं जान चाहिये ॥२११॥

यदि शुक्रके सम्मुख या दहनेमें गर्मिणी जावे तो गर्भ गिरजावे , बालकको लेकर जावे तो बालक मरे , द्विरागमनमें नवीन स्त्री जावे तो वंध्या होवे ॥२१२॥

अथ प्रतिशुक्रदोषापवाद : । एकग्रामे पुरेवाऽपि दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे । विवाहे तीर्थयात्रायां प्रतिशुक्रो न विद्यते ॥२१३॥

पौष्णादावग्निपादांतं यावत्तिष्ठति चन्द्रमा : ॥ तावच्छुक्रो भवेदंध : सम्मुखं गमन शुभम्‌ ॥२१४॥

पित्रागारे यदि स्त्रीणां स्तनपुष्पोद्नमो भवेत्‌ ॥ गमनं प्रति शुक्रेऽपि प्रशस्तं पतिवेश्मनि ॥२१५॥

( प्रतिशुक्र दोषापवाद ) परंतु एक ग्राममें या नगरमें या राजके बिगडनेमें और दुर्भिक्षमें , विवाहमें तीर्थंयात्रामें सम्मुख शुक्रका दोष नहीं है ॥२१३॥

रेवतीसे कृत्तिकाके प्रथम चरणतक मेषके चंद्रमामें शुक्र अंधा रहता है सो सम्मुख गमन करनेमें दोष नहीं है ॥२१४॥

पिताके घरमें यदि कन्या रजस्वला हो जावे तो पतिके घर जाती हुईको शुक्रका दोष नहीं है ॥२१५॥

अथ त्रिरागमनम्‌ । आदित्यहस्तेऽन्त्यमृगा श्विमैत्रे तथा श्रविष्ठास्वषि वातपित्रे । बध्वास्तृतीये गमने प्रशस्तं स्याद्योगिनीशूलतमीविशुद्धौ ॥२१६॥

विवाहे गुरुशुद्धिश्व भृगुशुद्धिर्द्विरागमे । त्रिर्गमे राहुशुद्धिश्च चद्रशुडिश्चतुर्गमे ॥२१७॥

इति श्रीरत्नगढनगरनिवासिना पंडितगौडश्रीवतुर्यीलालशर्मणा विरचिते

मुहूत्तप्रकाशे अद्‌मुतनिबन्धे षष्ठं विवाहप्रकरणम्‌ ॥६॥

( त्रिरागमनमु , ) स्त्रियोंको तीसरीवार जानेमें आदित्यवार ह . रे . मृ . अश्वि . अनु . श्र . स्वा . म . यह नक्षत्र श्रेष्ठ हैं , परन्तु गमनकालमें योगिनी दिशाशूल देखने चाहिये ॥२१६॥

विवाहमें कन्याको गुरुकी शुद्धि और द्विरागमनमें शुक्रका बल , त्रिरागमनमें राहुकी शुद्धि और चतुर्थागमनमें केवल चंद्रमाकी गुद्धि देखनी चाहिये ॥२१७॥

इति मुहूर्त्तप्रकाशे षष्ठं विवाहप्रकरणम्‌ ॥६॥

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Last Updated : November 11, 2016

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