विवाहप्रकरणम्‌ - श्लोक ९२ ते १०८

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ पातफलम्‌ । पातेन पतितो ब्रह्मा पातेन पतितो हरि : । पातेन पतित ; शम्भुस्तस्मात्पातं विवर्जयेत्‌ ॥९२॥

अथ युतिदोष : । गृहे यत्र भवेच्चन्द्रो ग्रहस्तत्र यदा भवेत्‌ । युतिदोषस्तदा ज्ञेयो विना शुक्रं शुभाशुभम्‌ ॥९३॥

अथ युतिफलम्‌ । दारिद्रयं रविणा कुजेन मरणं सौम्येन न स्यु : प्रजा दौभाग्यं गुरुणा सितेन सहिते चन्द्रे च सापत्नकम्‌ । प्रव्रज्याऽर्कसुतेन सेंदुजग्रुरौ वांछंति केचिच्छुभं द्वया २ द्यैर्मृत्युग्सदूग्रहै : शशियुतैर्दीर्घमवास : शुभै : ॥९४॥

अथ युतिदोषापवाद : । स्वक्षेवग : स्वोच्चगो वा मित्रक्षेत्रगतो विधु : । युतिदोषाय न भवेद्दम्पत्यो : श्रेयसे तदा ॥९५॥

अथ वेधदोष । एकरेखास्थितैर्वेधो दिननाथा दिभिर्ग्रहै : ॥ विवाहे तत्र मासं तु न जीवति कदाचन ॥९६॥

अश्विनी पूर्वफाल्गुन्या भरणी चानुराधया । अभिजिच्चापि रोहिण्या कृत्तिका च विशाखया ॥९७॥

मृगश्चोत्तरषाढेन पूर्वाषाढा तथाऽऽर्दया । पुनर्वसुश्व मूलेन तथा पुष्यश्व ज्येष्ठया ॥९८॥

धनिष्ठया तथाऽऽश्लेषा मघाऽपि श्रवणेन च । रेवत्युत्तरफाल्गुन्या हस्तेनोत्तरभाद्रपात्‌ ॥९९॥

स्वात्या शनभिषा विद्धा चित्रया पूर्वभाद्रपात्‌ । विद्धान्येतानि वर्ज्यानि विवाहे भानि कोविदै : ॥१००॥

( पातफ ) पातदोष करके ब्रह्मा , विष्णु , महेश भी पतित हो गये इस वास्ते , पातदोष वर्जना योग्य है ॥९२॥

( युतिदोष ) जिस राशिपर चंद्रमा हो और उसी राशिपर जो ग्रह हो तो उसीका शुक्रके विना शुभ अशुभ युतिदोष होता है ॥९३॥

( युतिफल ) रविके चन्द्रमा हो तो दरिद्र हो और मंगलके साथ हो तो मृत्यु हो , बुधके साथ हो तो सन्तान नष्ट हो , गुरुके साथ हो तो दौर्भाग्य ह और शुक्रके साय हो तो सपन्नी ( सौत ) का दुःख हो . शनिके साथ चन्द्रमा , हो तो संन्यासिनी हो जावे और कई आचार्य बुध गुरुके सात्थ चन्द्रमाको शुभ कहते हैं और दो २ या तीन ३ पापग्रह चन्द्रमाके साथ होवें तो मृत्यु करे और शुभ ग्रह होवें तो परदेशका वास करें ॥९४॥

( युतिदोषापवाद ) यदि चंद्रमा कर्कका हो या वृषका हो या अपने मित्रकी राशि ५।३।६ पर हो तो युतिदोष नही है , कन्यावरको शुभ करता है ॥९५॥

( वेधदोष ) विवाहनक्षत्रके सम्मुख एक रेखापर सूर्य आदि जो ग्रह हो तो उसीका वेध जानना इस वेधमें यदि विवाह करे तो एक मास भी वर या कन्या नहीं जीवे ॥९६॥

यह वेध अश्विनी पूर्वाफाल्गुनीका होता है और भरणी अनुराधाका . रोहिणी अभिजित्‌का , कृत्तिका विशाखाका ॥९७॥

मृगशिर उत्तराषाढाका . आर्द्रा पूर्वाषाढाका , मूल पुनर्वसुका , ज्येष्ठा पुष्यका ॥९८॥

आश्लेषा धनिष्ठाका , श्रवण मघाका , रेवती उत्तराफाल्गुनीका , हस्त उत्तराभाद्रपदका , स्वाती शतभिषाका , चित्रा पूर्वाभाद्रपदका होता है सो वेधयुक्त नक्षत्र विवाहमें वर्जना चाहिये ॥९९॥१००॥

अथ वेधफलम्‌ । रविवेधे च वैधव्यं कुजवेधे कुलक्षय : । बुधवेधे भवेद्वघ्या प्रव्रज्या गुरुवेधता : ॥१०१॥

अपुत्रा शुक्रवेधे च सोरे चंद्रे च दु : खिता । परपुंसि रता राहौ केतो स्वच्छन्दचारिणी ॥१०२॥

( वेधफल ) रविका वेध हो तो कन्या विधवा हो , मंगलका होवे तो कुलनाश हो , बुधका हो तो वंध्या हो , गुरुका हो तो स्यामण ( साधुनि ) हो ॥१०१॥

और शुक्रका वेध हो तो पुत्ररहित हो , चंद्रमा या शनिका वेध हो तो दुःखी हो , राहुका वेध हो तो परपुरुषोंमें रत हो और केतुका वेध हो तो कन्या अपने मनमत्ते चले ॥१०२॥

अथावश्यके वेधापवाद : । लग्ने शुभग्रहो वाऽथ लग्नेशी लाभगोऽथवा , सौम्यैर्द्दष्टो युतो वाऽपि कलहोरा शुभस्य वा ॥१०३॥

वेधदोषस्तदा न स्याद्विवाहादौ सतां मतम्‌ ॥ अथजामित्रम्‌ । चतुर्दशं च १४ नक्षत्र जामित्रं लग्नभात्स्मृतम्‌ ॥१०४॥

शुभयुक्तं तदिच्छंति पापयुक्तं विवर्जयेत्‌ । चन्द्रचांद्रिशुक्रजीवा जामित्रे शुभकारका : ॥१०५॥

स्वर्भानुभानुमन्दारा जामित्र न शुभप्रदा : । चंद्राद्वा लग्नतो वाऽपि ग्रहा वर्ज्याश्व सप्तमे । तत्र स्थिता ग्रहा नून व्याधिवैधव्यकारका : ॥१०६॥

अथ बुधपंचकम्‌ ॥ धार्यास्तिथि १५ र्मास १२ दशा १० ष्ट ८ वेदा : ४ संक्रांतितो यातदिनैश्व योज्या : ग्रहै ९ र्विभागो यदि पंच ५ शेषं रोग १ स्तथाऽग्नि २ नृप ३ चौर ४ मृत्यु : ५ ॥१०७॥

अथ बाणानां सशल्यता ॥ यद्यर्कवारे किल रोगपंचकं सोमे च राज्यं क्षितिजे च वह्नि : ॥ शनौ च मृत्यु : सुरमंत्रिचौर्य्यं विवाहकाले परिवर्जनीयम्‌ ॥१०८॥

( आवश्यकमें वेधापवाद ) यदि लग्नमें शुभ ग्रह हो या लग्नका पति ग्यारहवें ११ हो या शुभ ग्रह लग्नपतिको देखता हो या शुभ ग्रहकी होरा हो तो अतिजरूरतमें वेधका दोष नहीं है यह श्रेष्ठ पुरुषोंका मत है ॥१०३॥

( जामित्रदोष ) विवाहके नक्षत्रसे चौदहवां १४ नक्षत्र जामित्रसंज्ञक है सो शुभ ग्रहोंकरके सहित हो तो शुभ जानना और पापग्रहोंकरके युक्त हो तो अशुभ होता है अर्थात्‌ चंद्र , बुध , शुक्र , बृहस्पति यह जामित्रमें शुभकारक हैं ॥१०४॥१०५॥

और राहु , सूर्य . शनि , मंगल यह अशुभ हैं और चन्द्रमासे या लग्नसे सातवें ७ स्थानमें ग्रह वर्जना चाहिये , यदि ग्रह हो तो रोग वैधव्यकारक होता है ॥१०६॥

( बुधपंचक बाणका विचार ) १५ । १२ ।१० । ८ । ४ इन अंकोंमें संक्रांतिके गये हुए दिन क्रमसे जुदे जुदे मिलावे और सम्पूर्ण जगह नौका भाग देवे , जहा पांच ५ बचे सो ही क्रमसे , रोग १ , अग्नि २ , नृप ३ , चौर ४ , मृत्यु ५ बाण जानना अर्थात्‌ १५ अंकमें ८ । १७ । २६ सूर्यके अंश मिलनेसे रोगबाण होता है , और १२ में २ । ११ । २० । २९ अंश मिलनेसे अग्निबाण , और १० में ४ । १३ । २२ मिलनेसे नृपबाण , तथा ८ में ६।१५।२४ मिलनेसे चौर और ४ अंकमें १।१०।१९।२८ गत सूर्यके अंश मिलनेसे मृत्युबाण होता है ॥१०७॥

( बाणोंके भरे रीते ( खाली ) का विचार ) यदि आदित्यवारको रोगबाण लगे तो भरा जानना और सोमवारको राजबाण , मंगल बारको अग्निबाण , शनिवारको मृत्युबाण और गुरुवारको चौरवाण भरा होता है सो विवाहमें अशुभ है ॥१०८॥

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Last Updated : November 11, 2016

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