॥ श्री ॥
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
‘‘ऐसी इसकी फलश्रुति…’’
श्रीमत्दासबोध के प्रत्येक छंद को श्रीसमर्थ ने श्रीमत्से लिखी है । इस ग्रंथ के श्रवण से ही ‘श्रीमत’ और ‘लोकमत’ की पहचान मनुष्य को होगी । ‘श्रीमत’ याने क्या यह समझेगा तभी ‘लोकमत’ समझ पायेंगे ।
श्रीमत्याने खुद भगवंत के वचन! सामर्थ्य देनेवाले, आत्मबुद्धि, सद्विद्या जागृत करने वाले वचन !! इन वचनों को भगवान दास के मुख से प्रकट करवाते हैं । इस श्रीमत के श्रवण से ही लोकमत की पहचान हो कर मन पर से देहबुद्धि का प्रभाव दूर होकर, सद्सद्विवेकबुसिद्ध जागृत होने से वह सन्मार्ग की ओर मुड़कर कर्तव्यरत होता है । ऐसा मनुष्य जीवन के नीतिमूल्यों का संवर्धन करने लगता है । इस कारण चमत्कार ऐसा होता है कि मनुष्य के मन से भावना की जकड़ छूटती है एवं वह मृत्युपर्यंत स्वहित की ओर ध्यान रखकर कर्तव्य करते रहता है । याने ‘स्वदेव-स्वधर्म-स्वदेव’ की शिक्षा उसे ‘‘श्रवण’’ से ही दी जाती है एवं इस कारण दे का उत्तम नागरिक तैयार होता है ।
अब ‘लोकमत’ याने क्या यह देखने से पूर्व हमें इस बात का स्मरण रखना चाहिये कि श्रवण में आने से पूर्व इस कलोमत का हमें कोई अता-पता ही नहीं था । इस कारण स्वयं की ओर, जग की ओर एळवं देव की ओर देखने का हमारा दृष्टिकोण गलत बन गया था । इसलिये विपरीत घटित होने पर हम किसी व्यक्ति को, दैव को या देव को दोष देते थे । अंतरमुख होने का बल हम में नहीं था । केवल सद्गुरु ने वह ‘श्रवणद्वारा’ हमें प्राप्त करवाया है ।
‘लोकमत’ याने जो बिनासायास सहज प्राप्त हुआ, वही जो लोगों का मत वह लोकमत!! लोक शब्द का अर्थ, जो पराए हैं ऐसे विकार! जिनसे सारासार विवेक नष्ट हो कर अज्ञानग्रस्त हो जाने से मनुष्य भावनावश होता है, जिससे विषय-वासना प्रबल होकर भोग-आसक्ति-कुकर्म की ओर वह प्रवृत्त होता है और इस कारण उसकी स्वहित की ओर पीठ होकर मनुष्य अधोगति के मार्ग पर चलने लगता है । इसका अर्थ यही कि, अधोगति देनेवाले जो मत, वही है ‘लोकमत’! ‘अब’ इससे मुक्ति केवल ‘श्रीमत्’ से ही होगी!! मात्र इसके लिए मनुष्य को श्रवण की ओर मुड़ना चाहिये और ऐसे मोड़ने के लिये मोड़ देनेवाला भी चाहिये । इस संदर्भ में एक उदाहरण ऐसा है, कि धनुर्धारी अर्जुन के मन का नियंत्रण भावना द्वारा लिये जाने के कारण, कर्तव्य भूलकर वह शस्त्र नीचे रख रहा है यह पाचन कर, उसे उससे परावृत्त करने के लिये, कर्तव्य में खड़ा करने के लिये, भगवंत ने उसे गीता कही । याने क्या किया? उसे श्रवण में लाकर, ‘श्रीमत्’ दिखाकर ‘लोकमत’ का निर्मूलन किया । उसकी भावना नष्ट कर उसे कर्तव्य में अडिग खड़ा किया । अंत:स्थित जो खल और चांडाल थे उनकी पकड़ से छूटने के लिये स्वधर्म सूर्य की पहचान उसे दी तथा उन्हीं विचारों से ‘युद्ध करवा लिया!’ अब यह सुनने के पश्र्चात्प्रश्न ऐसा आता है कि, यह गीता सुनाते समय इतर अनेक लोग वहां थे किंतु ‘इतरजनों’ को भगवत वचनों का श्रवण नहीं हुआ । मात्र जो सत्शिष्य था, भगवत्चवनों पर जिसका विश्र्वास था उसे ही यह श्रवण हुआ और ‘‘भगवत्वचन में अविश्र्वासी’’ जो थे वे अन्त तक ‘पतित’ ही रहे । इस कारण श्रीसमर्थ ने इस ग्रंथ का नाम केवल ‘दासबोध’ न रखते ‘श्रीमत्दासबोध’ रखा‘! उसी तरह इस ग्रंथ का आरंभ ‘मंगलाचरण’ से किये जाने के कारण इतिश्री भी ‘मंगलाचरण’ से ही की है । क्योंकि समर्थ को अभिप्रेत है कि, मनुष्यजीवन की शुरूआत अगर मंगल आचरण से हुई तभी इत्रतिश्री मंगलाचरण से होगी । इसके लिये समर्थ ने मुख्यत: ‘श्रीमत्’ पर जोर दिया । अर्थात्यह केवल ग्रंथ न होते हुए ‘ग्रंथराज श्रीमत्दासबोध’ है एवं सारे विश्र्व को अपने आगोश मे समा लेने का सामर्थ्य इसमें है । ‘हरिकथा’ ब्रह्मांड को भेदकर पार ले जाने की क्षमता इसमें है ।
‘‘जिससे परमार्थ होये । अंग में अनुताप चढे ।
भक्ति-साधन प्रिय लगे । उसका नाम ग्रंथ ॥
ग्रंथ अनेक रहते । नाना विधान फलश्रुति के ।
जिससे विरक्तिभक्ति न उपजे । वह ग्रंथ ही नहीं ॥’’
इस तरह श्रीसमर्थ ने स्पष्ट लिख रखा है । क्योंकि-
‘‘समर्थ समर्थ करायें । तभी फिर समर्थ कहलायें ।
त्रिलोक को ज्ञात होये । सामर्थ्य जिसका ॥’’
ऐसे सामर्थ्य पर यह ग्रंथ खड़ा है । इसमें प्रत्येक छंद ‘मुख्य आत्मनुभूति से’ एवं सभी ग्रंथों की सम्मति लेकर लिखा है । अर्थात्इस ग्रंथराज के गर्भ में अनेक आध्यात्मिक ग्रंथों के अंतर्गत सर्वांगीण निरूपण समाया हुआ है । परंतु श्रीदासबोध के दशकों का अद्वैत निरूपण मिले बिना याने दशक को फोड़कर उसमें छिपा हुआ गर्भित अर्थ विशद करके दिये बिना याने दशक को फोड़कर उसमें छिपा हुआ गर्भित अर्थ विशद करके दिये बिना उसका अंतरंग समझ में नहीं आयेगा । श्रीसमर्थ ने ऐसा यह अद्वितीय-अमूल्य ग्रंथ लिखकर अखिल मानव जाति के लिये संदेश दिया है :-
‘‘भगवद्भक्ति यह उत्तम । उस पर भी सत्समागम ।
काल सार्थक यही परम लाभ जाने ॥’’
इतना ही नहीं तो - ‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन इस में है । ‘बहुत लोगों को उपासना में लगाने’ का ‘सरल-सीधा-सुगम’ मार्ग इसमें दिखाया है । अगर मनुष्य उपासना में आया नहीं तो क्या होगा? उसका सम्पूर्ण जीवन मौजमजा-भोग में व्यतीत होकर ‘‘ये मन जो घडी राघव बिन गई । जनों में अपनी वह तूने हानि की’’ यह धोखा समर्थ ने पहचान लिया था ।
मनुष्य श्रवण में आया तभी उसे यह समझेगा कि संसार-प्रपंच-परमार्थ इन शब्दों के समर्थ को अभिप्रेत हुये अर्थ लोक समझे हैं वैसा न होकर भिन्न है । ‘संसार’ याने माता-पिता-पति-पत्नी-बच्चे-रिश्ते नाते--धंधा-उद्योग इत्यादी और ‘प्रपंच’ याने केवल स्वयं का देहप्रपंच! इसमें अष्टधा प्रकृति, विषय, वासना, कल्पना, कामना भावना का मेला लगा हुआ है और यह परिवार २४ घंटे पीठ पर लिये हम घूमते रहते हैं । अब परमअर्थ कहां है ? वह कैसे प्राप्त होगा? इसका उत्तर ऐसा - इस देहप्रपंच में परमअर्थ छिपा हुआ है और इसी परमअर्थ पर ही देहप्रपंच खड़ा है । इस कारण देहप्रपंच यदि ठीकठाक हुआ तो ही संसार सुखमय होगा और परमअर्थ भी प्राप्त होगा । यह होना चाहिये इस कारण समर्थ कहते हैं,
‘‘पहले प्रपंच करो सटीक । फिर लो परमार्थ विवेक ।
यहां न करों आलस । हे विवेकी जन ।
श्रीसमर्थ ने इस सम्पूर्ण ग्रंथ की रचना एवं शैली मुख्यत: श्रवण के ठोस नींव पर की है । इस कारण ‘श्रवण’ याने क्या? यह पहले समझ लेना चाहिये । कई बातें मनुष्य के कान में बिना सायास आती रहती हैं । ऐसे असंख्य बातों को वह सुनते रहता है । अर्थात केवल सुनना श्रवण नहीं है ! फिर जो करने से (श्रवण करने का फल) मनुष्य के अंतरंग में आमूलाग्र परिवर्तन होता है, सहजगुण जाकर क्रिया पलट होता है, और भक्ति-विरक्ति-प्रचीती प्राप्त होती है । अधोगति टलकर नाना दोषो का नाश कर, पतित को पावन होने का सामर्थ्य जिससे प्राप्त होता है वही है श्रवण! इसमें प्रचीति का उल्लेख इसलिये किया है कि ‘‘वैद्य मात्रा की स्तुति करे । मात्रा गुण कुछ भी न करे’’ ऐसा ना हो क्योंकि -
"श्रवण जैसा सार नहीं । श्रवण से परे साधन नहीं ।
श्रवण मनन का विचार । निजध्यास से साक्षात्कार ॥
नगद मोक्ष का उधार । बोलों ही नहीं ।
सुने बिन समझे ना । यह तो ज्ञात है जना ।
इस कारण मूल प्रयत्न । श्रवण पहले ॥
‘‘श्रवण भजन का आरंभ । श्रवण सबका सर्वारंभ ।’’ अर्थात ‘श्रवण’ ही परमार्थ का प्राण है । परमअर्थ से अगर श्रवण निकाल दिया तो शेष शून्य रहेगा । परंतु वही अगर श्रवण में आया तो क्या होगा?
‘‘श्रवण से हो उत्तम गति । श्रवण से मिले शांति ।
श्रवण से प्राप्त होये निवृत्ति । अचलपद ॥’’
मगर इसमें महत्त्व का सूत्र ऐसा है कि, यह श्रवण ‘निष्काम भजन से भगवंत जुड़े’ का ज्ञान रखकर ही किया जाना चाहिये । अत्यंत महत्वपूर्ण बात समर्थ ने सूचित कर रखी है कि -
‘‘अब श्रवण करने का फल । क्रिया पलटे तत्काल ।
टूटे संशय का मूल । एक साथ ॥’’
इसमें ‘अब’ यह शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है । इस शब्द में सर्व सार एकत्रित है । इसमें वर्तमान को अधिक महत्व दिया है । क्योंकि -
‘‘गत बातों को सुना । उससे क्या हांथ आया ।
कहते कि पुण्य प्राप्त हुआ । पर वह दिखे ना कि ॥’’
यह धोखा टालने के लिए समर्थ ने हमें सावधान किया है । अब इसी क्षण से श्रवण करो, प्रतिदिन करो, मृत्युपर्यंत करो, श्रवण करो ही करो । कारण -
‘‘सुने बिना समझा । सिखाए बिना सयानापन आया ।
ऐसा न देखा न सुना । भूमंडल में ॥’
यही सत्य है । कारण -
‘‘जहां नहीं श्रवणस्वार्थ । वहां कैसा हो परमार्थ ।
पहले किया वह सारा व्यर्थ । श्रवयण बिना होये ॥’’
संतपरम्परा ने जिस ‘ॐ भवती’ के पक्ष का रक्षण किया वही विरासत आगे बढ़ाने के लिये श्रोता को ‘उपासना की मुख्य दीक्षा’ प्राप्त कर, श्रवण की झोली कंधे पर लटकाकर मृत्यु तक ज्ञान-वैराग्य-सामर्थ्य की भिक्षा मांगनी चाहिये । उसी तरह स्वधर्म-स्वदेश एवं स्वदेस से परिचित होकर प्रयत्न-प्रबोध-प्रचीति के त्रिवेणी संगम पर नित्य स्नान करना चाहिये ।
‘स्वधर्म’ याने मानवधर्म! जिस धर्म के कारण रिश्तों पहचान होकर मनुष्य आचरन करना सीखे, जिससे उसके रिश्ते उसे ‘संकट’ में न लाये, क्योंकि ‘परस्त्री माता भगिनी समान’ की सीख मन में गांठ बांध कर आचरन करने की शिक्षा जिसमें है वह स्वधर्म! अन्य प्राणियों में ऐसे सम्बन्धों का अता-पता नहीं है क्यिंकि उन्हें उतना विवेक और वैखरी दी नहीं । मात्र ये अमूल्य उपहार परमेश्र्वर ने मनुष्य को दिये हैं । अर्थात्पशुसमान बर्ताव करने की छूट मनुष्य के लिये रखी ही नहीं है, इसलिये ‘उपासना’ को दृढतापूर्वक चलाकर भूदेव-संतों के प्रति नम्र होकर सत्कर्मों में आयु बिताते समय ‘सर्वांमुखी मंगल कहलवाने’ की उत्तम शिक्षा जिस में है वही है ‘स्वधर्म!!’ अब स्वदेश और स्वदेव याने क्या?
स्वदेश याने ‘‘नाना सुकृतों का फल । है यह नरदेह ही केवल ॥’’ इस देह की निर्मिति स्वयं परमेश्र्वर ने माता के गर्भ में ही है, मगर जन्मोपरांत ‘कुढ़ी बढ़े कुबुद्धि बढ़े ।’ के नियम से धीरे धीरे इसमें काम-क्रोध-लोभ-मद-मत्सर-दंभ-संशय-चिंता इन आठ विषयों का (विकारों का) प्रवेश हुआ । इसका अर्थ, बाद में जिनका आगमन हुआ ऐसे ये विषय देह में उपरे-पराये हैं क्योंकि यह घर (देह) बांधने के बाद, घर में नल-बिजली-फर्निचर जैसे सभी सुखसुविधा आने के बाद जो रहने के लिये आये वे विषय इस स्वदेश (देह) के स्वाधीनता को छीनकर उसे परतंत्र करते हैं । देह पर कब्जा जमाते हैं एवं देहप्रपंच बिगाड़ कर कुकर्म की ओर प्रवृत्त कर ‘स्वचक्र-परचक्र’ में उलझा कर यहां का वैभव ऐश्र्वर्य, शांति समाधान नष्ट कर पुण्याई का क्षय करते हैं और मनुष्य को 84 लाख योनि के फेरे में फंसाकर कायम परतंत्रता में रखते हैं । इस बात का विचार करने के लिये आज किसी के पास समय नहीं है । क्योंकि ‘‘मायादेवी की धांधली में । सूक्ष्म में कौन मन लगाये?’’ इस धोखे से बचना हो तो श्रीसमर्थ ने एक ही उपाय सुझाया है -
‘‘देह परमार्थ में लगाया । तभी इसका सार्थक हुआ ।
अन्यथा यह व्यर्थ ही गया ॥ नाना आघातों से मृत्युपथ पर ॥’’
यह परमलाभ प्राप्त करने के लिए स्वदेव का अर्थात अन्तरस्थित आत्माराम का अधिष्ठान चाहिये! अधिष्ठान नहीं हो तो सामर्थ्य नही। सामर्थ्य ही नहीं तो अभियान थम गया!! याने स्वदेव कौन सा? जो निर्गुण निराकार है, जो २४ घंटे जपा-अजपा यह मंत्र जपते इस देह का अखंड ध्यान धारण किये है, जिस चैतन्यशक्तिपर देह कें सभी व्यापार चलते हैं, जिसके कारण आवाहन (श्वास) विसर्जन (नि:श्वास) है । जो आते समय (आवाहन) दिखता नहीं या जाते समय (विसर्जन) दिखता नहीं । बिसर-जन (विषयों को बिसराना) यही जिसका ‘आवाहन’ है । सभी कार्य; वही करते हुये (यह भी आवाहन ही है) मैं यह सब करता हूँ ऐसा कभी प्रकट नहीं करता (यह विसर्जन है) - ‘‘युगो युगों सें अकेला एक । चलाये तीनों लोक ।’’ ऐसे जिसका अधिकार है, राम बनकर वह आया, कृष्ण बनकर भी वही आया, समर्थ रामदास के रूप में वही अवतरित हुआ और अब भी आपके-हमारे बीच जो कार्यरत है वही है ‘स्वदेव’!
३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को उपरोक्त शिक्षा दी । उन्होंने ही स्वधर्म-स्वदेश-स्वदेव का ध्वजसंकल्प कर, ध्वस्त हुए असंख्य संसार-प्रपंच पुन:स्थापित किये ।
श्रीसमर्थ कृपा से आज भी वही कार्य, अर्थात सभी वर्ग के स्त्री पुरुष एवं राष्ट्र के भावी आधारस्तंभ जो नन्हे बालक है उन्हें भी ‘बालभक्ति मार्गदर्शन’ द्वारा ‘‘अज्ञानमूल हरणं । जन्मकर्म निवारणं’’ के समर्थ उक्ति अनुसार अज्ञान-कुकर्म-कुविचार-कुसंग की पकड़ से अंत:करण-मन-बुद्धि-चित्त को स्वतंत्र कर, दीन दुखियों को अपने पास लेकर, उन्हें धीरज देने का, उनका डगमगाता हुआ आत्मविश्र्वास पुन: स्थिर करने का कार्य, उसी निष्का भूमिका में अखंड चल रहा है जिसके कारण सर्वत्र सत्कर्म-सद्विचार-सुख-शांति-समाधानघर-घर में स्थापित हो रहा है । क्योंकि ‘‘उपासना का श्रेष्ठ आश्रय’ लाखों लोगों को प्राप्त हुआ है ।
इसके आगे भी श्रीसमर्थ का यही कार्य ऐसा ही अखंड चालू रहनेवाला है । क्योंकि -
‘‘श्रवण से चूके अधोगती । मन को मिले विश्रांति । समाधान ॥’’
॥ जय जय रघुवीर समर्थ ॥
डॉ. श्री. नारायण विष्णू धर्माधिकारी
मु.पो. रेवदण्डा, ता. अलिबाग, जि. रायगड