स्तवणनाम - ॥ समास पांचवा संतस्तवननाम ॥

इस ग्रंथ के श्रवण से ही ‘श्रीमत’ और ‘लोकमत’ की पहचान मनुष्य को होगी.


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
अब करूं वंदन सज्जन । जो परमार्थ के अधिष्ठान। जिनसे ही गूढज्ञान । प्रकट हो जनों में ॥१॥
जो वस्तु परम दुर्लभ । जिसका अलभ्य लाभ । वही होती सुलभ । संतसंग से ॥२॥
वस्तु प्रकट ही रहे । किसी को भी देखने पर न दिखे । नाना साधन सायासों से । न समझे कोई ॥३॥
जहां परीक्षावंत ठग गये । या फिर चक्षुधारक भी अंधे हुये । देखते देखते चूक गये । निजवस्तु को ॥४॥
जो न दिखे दीपक से । न मिलें विविध प्रकाश से । नेत्रांजन से भी न बसे । दृष्टि सम्मुख ॥५॥
सोलह कला १० पूर्ण शशि । न दिखलाये वस्तु है कैसी । तीव्र आदित्य कलाराशि । भी न दर्शाये वह ॥६॥
जिस सूर्य प्रकाश से । ऊर्ण तंतु भी दिखे । नाना सूक्ष्म पदार्थ भासे । अणुरेणादिक ॥७॥
कटा तृणाग्र वह भी दिखाता । पर वह वस्तु न दिखा पाता । वह जो प्राप्त करा देता । साधकों को ॥८॥
जहां आक्षेपों का हुआ अंत । प्रयत्न पाये प्रश्चाताप । जहां तर्क हो गये मंद । तर्क करते निजवस्तु का ॥९॥
मुडा विवेक वक्र होकर । शब्द गिरते हकलाकर । मन की शीघ्र गति जहां पर । काम न आये ॥१०॥
जो बोलने में विशेष । सहस्र मुखों का जो शेष वह भी थककर हुआ निःशेष । वस्तु वर्णन न कर पाता ॥११॥
वेदों ने प्रकाशित किया सभी । वेद रहित नहीं कुछ भी । वे वेद किसीको भी । दिखा न सके ॥१२॥
वही वस्तु संतसंग से । समझने लगी स्वानुभव से । उसकी महिमा कह सके वचनों से । ऐसा कौन ॥१३॥
विचित्र कला इस माया की । पर पहचान न बताये वस्तु की । मायातीत अनंत की । राह बताते संत ॥१४॥
वर्णन न हो सके वस्तु का । वही स्वरूप संतों का । इस कारण वचनों का । कार्य नहीं ॥१५॥
संत आनंद का स्थल । संत सुख ही केवल । नाना संतोष का मूल । वो यह संत ॥१६॥
संत विश्रांति की विश्रांति । संत तृप्ति की निजतृप्ति । अथवा भक्ति की फलश्रुति । वे यह संत ॥१७॥
संत धर्म का धर्मक्षेत्र । संत स्वरूप के सत्पात्र । अथवा पुण्य की पवित्र । पुण्यभूमि ॥१८॥
संत समाधि के मंदिर । संत विवेक का भांडार । अथवा यों कहिये नैहर । सायुज्य मुक्ति के ॥१९॥
संत सत्य के निश्चय । संत सार्थक की जय । संत प्राप्ति का समय । सिद्धरूप ॥२०॥
मोक्षश्रिया अलंकृत । ऐसे ये संत श्रीमंत । जीव दरिद्र असंख्यात । नृपति बनायें ॥२१॥
जो सामर्थ्य से उदार । अथवा जो अत्यंत दानशूर । उनसे भी ये ज्ञानविचार । दिया न जा सका ॥२२॥
महाराजा चक्रवर्ती । हो गये हैं होगे आगे भी । परंतु कोई सायुज्यमुक्ति । ना कर सकेगे प्रदान ॥२३॥
जो त्रिलोक में नहीं दान । वे करते संतासज्जन । उन संतों का महिमान । क्या कहकर बखाने ॥२४॥
त्रैलोक्य से भिन्न जो । न समझे वेदश्रुति जो प्रकट जिनसे हो जो । परब्रह्म अंतरंग में ॥२५॥
ऐसी संतों की महिमा । कितनी भी कहे कम रहेगी उपमा । जिनसे ही मुख्य परमात्मा । प्रकट होये ॥२६॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे संतस्तवननाम समास पांचवां ॥५॥

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Last Updated : November 27, 2023

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