स्तवणनाम - ॥ समास छठवां श्रोतेस्तवननाम ॥
इस ग्रंथ के श्रवण से ही ‘श्रीमत’ और ‘लोकमत’ की पहचान मनुष्य को होगी.
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
अब वंदन करूं श्रोता जन । भक्त ज्ञानी संत सज्जन । विरक्त योगी गुणसंपन्न । सत्यवादी ॥१॥
सत्त्व के सागर एक बुद्धि के आगर एक । श्रोते खानि एक । नाना शब्दरत्नों के ॥२॥
जो नाना अर्थामृत के भोक्ता । जो वक्त पर वक्तों के भी वक्ता । नाना संशयों के छेदन कर्ता । निश्र्चई पुरुष ॥३॥
जिनकी धारणा अपार । जो ईश्वर के अवतार । अथवा प्रत्यक्ष सुरवर । बैठे हैं जैसे ॥४॥
अथवा ये ऋषेश्वरों की मंडली । शांत स्वरूप सत्त्व बलशाली । जिनसे सभामंडली । की परम शोभा ॥५॥
हृदय में वेदगर्भ का विलास । मुख में सरस्वती का विलास । साहित्य बोलते ही भास । होता देवगुरू का ॥६॥
जो पवित्रता में वैश्वानर । जो स्फूर्ति किरणों के दिनकर । ज्ञातागुण से दृष्टि के समक्ष । ब्रह्मांड न आता ॥७॥
जो अखंड सावधान । जिन्हें त्रिकाल का ज्ञान । सर्वकाल निराभिमान । आत्मज्ञानी ॥८॥
जिनके दृष्टि से निकल गया । ऐसे कुछ भी बचा न रहा । पदार्थमात्र पर लक्ष्य किया । मन जिन्होंने ॥९॥
जो जो भी करे स्मरण । उसका उन्हें पूर्व से ही ज्ञान । वहां कैसा अनुवाद कथन । ज्ञाता बनकर करे ॥१०॥
परंतु ये गुणग्राहक । इस कारण कहता हूं निःशंक । भाग्य पुरुष क्या एक । नहीं करते सेवन ॥११॥
सदा करते सेवन दिव्यान्न । परिवर्तन के लिये सादा अन्न । वैसे ही मेरे वचन । पराकृत से ॥१२॥
अपने शक्ति अनुसार । भाव से पूजें परमेश्वर । परंतु पूजो नहीं यह विचार । कहीं भी नहीं ॥१३॥
वैसे मैं एक वाक्दुर्बल । श्रोता परमेश्वर ही केवल । इसकी पूजा असंबद्ध वाचाल । करना चाहूं ॥१४॥
व्युत्पत्ति नहीं कला नहीं । चातुर्य नही प्रबंध नहीं । भक्ति ज्ञान वैराग्य नहीं । मधुरता नहीं वचनों की ॥१५॥
ऐसा मेरा वाग्विलास । निःशंक कहता हूं सावकाश । भाव का भोक्ता जगदीश । इस कारण ॥१६॥
आप श्रोता जगदीशमूर्ति । वहां कितनी मेरी व्युत्पत्ति । बुद्धिहीन अल्पमति । करता हूं धृष्टता ॥१७॥
समर्थ का पुत्र मूर्ख जगत में । मगर सामर्थ्य है उसके अंग में । आप संतों से धृष्टता मैं । करता हूं इस कारण ॥१८॥
व्याघ्र सिंह भयानक । देखकर भयचकित लोक । तो भी उनके शावक निःशंक । उनके सम्मुख खेलते ॥१९॥
वैसा मैं संतों का अंकित । बोलता आप संतों के साथ । तो भी मेरी चिंता आपका चित्त । करेगा ही निश्चित ॥२०॥
सदोष कहे अगर अपने ही स्वजन । तो उसका करना पडता संपादन । परंतु कुछ ना करना पडा कथन । न्यून वह पूर्ण कीजिये ॥२१॥
यह तो प्रीति का लक्षण । सहजता से करे मन । वैसे आप संतसज्जन । मां बाप विश्व के ॥२२॥
जानकर जीव में मेरा आशय । अब उचित वही कीजिये । आगे कथा पर अवधान दीजिये । कहे दासानुदास ॥२३॥
इति श्रीदासबोधे गुरूशिष्यसंवादे श्रोतेस्तवननाम समास छठवां ॥६॥
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Last Updated : November 27, 2023
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