ज्ञानदशक मायोद्भवनाम - ॥ समास पहला - देवदर्शननाम ॥
३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
श्रोता हों सावध । विमल ज्ञान बालबोध । गुरुशिष्यों का संवाद । अति सुगम श्रवण करें ॥१॥
अभ्यास करें यदि नाना शास्त्रों का । आयुष्य न पुरे सर्वथा । अंतरंग में संशय की व्यथा । बढती ही जाये ॥२॥
नाना तीर्थ एक से एक बढ़कर । सृष्टि में अपार । सुगम दुर्गम दुष्कर । पुण्यदायक ॥३॥
ऐसे सभी तीर्थ करे । ऐसा कौन रे संसार में । जीवन भर भी अगर घूमें । आयु न पुरे ॥४॥
नाना तप नाना दान । नाना योग नाना साधन । ये सभी देव के कारण । करते हैं ॥५॥
पाने के लिये देवाधिदेव । करे बहुविध श्रम । इनसे मिलता देव । यह सर्वमत ॥६॥
पाने के लिये भगवंत । नाना पथ नाना मत । उस देव का स्वरूप वह । कैसा है ॥७॥
बहुत देव सृष्टि में । उनकी गणना कौन करे । एक देव किसी तरह से । मिल सके ना ॥८॥
बहुविध उपासना । जिसकी जहां पूरी हो कामना । वह वहीं रहे अपना । मन सुदृढ कर ॥९॥
बहुदेव बहुभक्त । इच्छा से हुये आसक्त । बहु ऋषि बहु मत । अलग अलग ॥१०॥
बहुतों में चुनने से चुना जाये ना । एक निश्चय होये ना । शास्त्र झगडते मिले ना । निश्चित ठिकाना ॥११॥
बहुत शास्त्रों में बहुत भेद । मत मतों में विरोध । ऐसे करते विवाद । बहुत गये ॥१२॥
सहस्त्रों में कोई एक । देखे देव का विवेक । परंतु उस देव के कौतुक । समझे ना ॥१३॥
समझे ना कहते कैसे । अहंता लग जाती वहीं पे । देव अहंता गुण से । दूर रहता ॥१४॥
अब रहने दो यह कथन । नाना योग जिसके कारण । वह देव कौन से गुण । से प्राप्त होगा ॥१५॥
देव कहें किसे । उसे जानें कैसे । वही कथन सहजता से । कहता हूं ॥१६॥
जिसने बनाये चराचर । रचाया सृष्टि आदि व्यापार । सर्वकर्ता निरंतर । नाम जिसका ॥१७॥
उसने बनाई मेघमाला । चंद्रबिंब में अमृतकला । रविमंडल को तेज दिया । जिस देव ने ॥१८॥
जिसने मर्यादित किया सागर । जिसने स्थापित किया फणिवर । जिसके ही गुणों से नक्षत्र । अंतरिक्ष में ॥१९॥
चारों खानी चारों वाणी । चौरासी लक्ष जीवयोनि । जिसने निर्माण किये लोक तीन ही । उसका नाम देव ॥२०॥
ब्रह्मा विष्णु और हर । ये जिसके अवतार । वही देव यह निर्धार । निश्चय से ॥२१॥
मंदिर से उठकर देव । न बना सके सर्व जीव । उसने ही ब्रह्मकटाव । निर्माण किया न सुना कभी ॥२२॥
स्थान स्थान देवों की बस्ती। उनसे भी नहीं निर्मित क्षिति । चंद्र सूर्य तारा जीमूति । उनसे न बने ॥२३॥
सर्वकर्ता वही देव । देखें तो निरावयव । जिसकी कला लीला लाघव । न जानते ब्रह्मादिक ॥२४॥
यहां आशंका उठी । वह अगले समास में मिटी । अब सावधान वृत्ति करनी । चाहिये श्रोताओं ॥२५॥
आकाश अवकाश विस्तृत । कुछ भी नहीं शून्यवत । उससे निर्मल वायु तत्त्व । का जन्म हुआ ॥२६॥
वायु से उपजा अग्नि । अग्नि से हुआ पानी। ऐसी जिसकी करनी । हुई अघटित ॥२७॥
उदक से सृष्टि हुई । स्तंभ बिन खड़ी की। ऐसी विचित्र कला की । उसका नाम देव ॥२८॥
देव ने निर्माण किया क्षिति ये । उसके उदर में पाषाण रहते । उन्हें ही देव कहते । विवेकहीन ॥२९॥
जो सृष्टि निर्माणकर्ता । वह इस सृष्टि के पूर्व था । फिर उसकी यह सत्ता । निर्माण हुई ॥३०॥
पात्र के पूर्व से है कुम्हार । पात्र तो नहीं कुम्हार । वैसे पहले से ही है ईश्वर । पाषाण नहीं सर्वथा ॥३१॥
मृत्तिका की बनाई सेना । अलग रह गया कर्ता । कार्य कारण एकत्र किया । तो भी होगा नहीं ॥३२॥
तथापि होगा जो पंचभूतिक । निर्गुण नहीं कोई एक । कार्यकारण का विवेक । भूतों तक ही नहीं सीमित ॥३३॥
समस्त सृष्टि जो कर्ता । वह इस सृष्टि से भी पूर्व था । वहां संशय की वार्ता । करें ही नहीं ॥३४॥
कठपुतली की गुडियां । जिस पुरुष ने नचाया । वही कठपुतली हुआ । यह कथनी सत्य होगी कैसे ॥३५॥
छायाचित्रों की सेना । सृष्टि जैसी ही रचना । सूत्र हिलाये पर वह नाना - । व्यक्ति नहीं ॥३६॥
वैसे सृष्टिकर्ता देव । वह नहीं सृष्टिभाव । जिसने बनाये नाना जीव। वह जीव कैसे हों ॥३७॥
जो जो करना पड़े जिसे । वह सारा वो ही होगा कैसे। व्यर्थ ही बेचारे इस कारण से । पड़ते संदेह में ॥३८॥
सृष्टि ऐसे ही स्वभाव से । गोपुर निर्माण किये अच्छे से । मगर वह निश्चितरूप से । गोपुरकर्ता नहीं ॥३९॥
वैसे जिसने निर्माण किया जग । वह पूर्णतः अलग । कोई कहता मूर्खतावश । जग ही जगदीश ॥४०॥
एवं जगदीश वह अलग सा । जगनिर्माण उसकी कला । वह सभी से निराला । रहकर भी सभी में ॥४१॥
इस कारण भूतों का कर्दम । इससे अलिप्त आत्माराम । अविद्यागुण से मायाभ्रम । सत्य ही लगे ॥४२॥
मायोपाधि जगडंबर । है सर्व ही साचार। ऐसा यह विपरीत विचार । कहीं भी नहीं ॥४३॥
इसलिये जगत् मिथ्या सांच आत्मा । सभी से परे जो परमात्मा । अंतर्बाह्य अंतरात्मा । व्याप्त है ॥४४॥
उसे कहते हैं देव । अन्य वे सारे व्यर्थ । ऐसा है अंतर्भाव । वेदांत का ॥४५॥
पदार्थवस्तु नाशवंत । ये तो सभी को अनुभूत । इस कारण भगवंत । पदार्थ से भिन्न ॥४६॥
देव विमल और अचल । शास्त्र कहते सकल । उस निश्चल को चंचल । न कहें सर्वथा ॥४७॥
देव आया देव गया । देव उपजा देव मरा । ऐसे बोले तो दुरित क्या । कम होगे ॥४८॥
जन्म मृत्यु की वार्ता । देव को न लगे सर्वथा । देव अमर जिसकी सत्ता । उसकी मृत्यु कैसे होगी ॥४९॥
पैदा होना और मरना । आना जाना दुःख भोगना । यह सब देव का करना । वह है कारण से अलग ॥५०॥
अंतः करण पचप्राण । बहुतत्त्वी पिंडज्ञान । इन सबको है चलन । इस कारण ये देव नहीं ॥५१॥
एव कल्पनारहित । उसका नाम भगवंत । देवत्व की मात । वहां नहीं ॥५२॥
तब शिष्य ने आक्षेप किया । फिर कैसे ब्रह्मांड रचाया । कर्तापन से कारण आया । कार्य में ॥५३॥
द्रष्टा' दृश्य में द्रष्टापन से । रहे अनायास जैसे । कर्तापन निर्गुण का वैसे । गुण है ॥५४॥
ब्रह्मांडकर्ता कौन । कैसी उसकी पहचान । देव सगुण अथवा निर्गुण । कीजिये निरूपित मुझे ॥५५॥
वह ब्रह्मा ही कोई कहता। इच्छामात्र से सृष्टि रचाता । उससे परे सृष्टिकर्ता । कौन है ॥५६॥
अब रहने दीजिये यह कथन बहुत । आई कहां से माया समस्त । वह अब निरूपित । करना चाहिये स्वामी ॥५७॥
सुनकर ऐसे वचन । वक्ता कहे हो सावधान । अगले समास में निरूपण । करता हूं ॥५८॥
ब्रह्म में माया हुई कैसे । आगे निरूपित किया उसे । श्रोताओं वृत्ति सावध ऐसे । अब करनी चाहिये ॥५९॥
आगे यही निरूपण । विशद किया श्रवण । जिससे हो समाधान । साधकों का ॥६०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे देवदर्शननाम समास पहला ॥१॥
N/A
References : N/A
Last Updated : December 06, 2023
TOP