हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|रामदासकृत हिन्दी मनके श्लोक|ज्ञानदशक मायोद्भवनाम| ॥ समास छठवां - दुश्चितनिरूपणनाम ॥ ज्ञानदशक मायोद्भवनाम ॥ समास पहला - देवदर्शननाम ॥ ॥ समास पहला - देवदर्शननाम ॥ ॥ समास दूसरा - सूक्ष्मआशंकानाम ॥ ॥ समास तीसरा - सूक्ष्मआशंकानाम ॥ ॥ समास चौथा - सूक्ष्मपंचभूतनिरूपणनाम ॥ ॥ समास पांचवा - स्थूलपंचमहाभूत स्वरूपाकाशभेदो नाम ॥ ॥ समास छठवां - दुश्चितनिरूपणनाम ॥ ॥ समास सातवां - मोक्षलक्षणनाम ॥ ॥ समास आठवां - आत्मदर्शननाम ॥ ॥ समास नववां - सिद्धलक्षणनाम ॥ ॥ समास दसवां - शून्यत्वनिरसननाम ।! ज्ञानदशक मायोद्भवनाम - ॥ समास छठवां - दुश्चितनिरूपणनाम ॥ ३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी । Tags : hindimanache shlokramdasमनाचे श्लोकरामदासहिन्दी ॥ समास छठवां - दुश्चितनिरूपणनाम ॥ Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ श्रोता करें विनती वक्ता से । सत्संग की महिमा कैसे । मोक्षलाभ कितने दिनों में । यह मुझे निरूपित करें ॥१॥ धरने पर साधु की संगति । कितने दिनों में होती मुक्ति । यह निश्चय कृपामूर्ति । मुझ दीन को करायें ॥२॥ मुक्ति मिले तत्क्षण ही । निरूपण में विश्वास करते ही । दुश्चितपन से हानी । होती है ॥३॥ सुचितपन से दुश्चित । मन होता अकस्मात् । उसे करें शांत । किस तरह ॥४॥ मन के मोह को तोड़कर । श्रवण में बैठे मन लगाकर । सावधानी से घड़ी हर । काल सार्थक करें ॥५॥अर्थ प्रमेय ग्रंथांतर में। खोज कर लें अभ्यंतर में। दुश्चितपन आने पर भी करें । पुनः श्रवण ॥६॥ अर्थातर देखे बिन । व्यर्थ ही जो करे श्रवण । वह श्रोता नहीं पाषाण । मनुष्यवेष में ॥७॥ यहां श्रोता गये बुरा मान । हमें किया पाषाण । फिर भी उस पाषाण के लक्षण । सुनो सावधानी से ॥८॥आड़ा तेढा फोड़ा । पाषाण को सुंदर गढा । दूसरे ही क्षण देखा । तो वह वैसे ही रहता ॥९॥ टांकी से खपरी फोड़ी । वह वापस नहीं जुड़ी । मनुष्य की कुबुद्धि झाड़ी। फिर भी वह पुनः चिपके ॥१०॥कहने से गया अवगुण । पुनः जुड़ा अगले क्षण । महाभला इस कारण । पाषाणगोटा ॥११॥ जिसका झड़ेना अवगुण । वह पाषाण से भी न्यून। अलग ही जानिये पाषाण । कोटिगुना ॥१२॥ कोटिगुना कैसा पाषाण । उसके भी सुनें लक्षण । श्रोतां करें श्रवण । सावधान होकर ॥१३॥ माणिक मोती प्रवाल । पन्ना वैडूर्य वज्रनील । गोमेदमणी पारस केवल । पाषाण कहिये ॥१४॥ इनसे भी अलग बहुत । सूर्यकांत सोमकांत । नाना मोहरें सप्रचित । औषध के कारण ॥१५॥ इनसे भी अलग पाषाण भले । नाना तीर्थों में जो लगे । वापी कूप अंत में हुये । हरिहर मूर्ति ॥१६॥इसका देखने पर विचार । पाषाण जैसा नहीं सार । मनुष्य वह तो क्या पामर । पाषाण सम्मुख ॥१७॥फिर भी ऐसा नहीं पाषाण । जो अपवित्र निःकारण । उसके समान देह जान । दुश्चित अभक्तों की ॥१८॥अब रहने दो यह कथन । घात करता दुश्चितपन । दुश्चितपन के कारण । प्रपंच ना परमार्थ ॥१९॥दुश्चितपन से कार्य नष्ट होये । दुश्चितपन से चिंता बसे । स्मरण न रहे दुश्चितपन से। क्षण एक देखो तो ॥२०॥ दुश्चितपन से शत्रु की जीत । दुश्चितपन से जन्म मरण । दुश्चितपन के कारण। हानि होती ॥२१॥ दुश्चितपन से न हो साधन । दुश्चितपन से न हो भजन । दुश्चितपन से न हो ज्ञान । साधक को ॥२२॥दुश्चितपन से न हो निश्चय । दुश्चितपन से न हो जय। दुश्चितपन से होता क्षय । अपने स्वहित का ॥२३॥दुश्चितपन से न होता श्रवण । दुश्चितपन से न होता विवरण । दुश्चितपन से निरूपण । हांथ का निकल जाता ॥२४॥ दुश्चित बैठा सा दिखे । पर वह होकर भी न रहे । चंचल चक्र में पड़ा रहे । मन उसका ॥२५॥ पागल पिशाच निरतंर । अंधे गूंगे और बधिर । वैसा जानियें संसार । दुश्चित प्राणियों का ॥२६॥ सावध होकर भी उमजेना । श्रवण होकर भी सुने ना । ज्ञान रहकर भी समझेना । सारासार ॥२७॥ ऐसा जो दुश्चित आलसी । परलोक प्राप्ति उसे कैसी । जिसके जीव में अहर्निशी । आलस बसे ॥२८॥दुश्चितपन से छूटा जो । तो तुरंत ही आलस आया देखो । आलस के हांथो प्राणियो कों । फुरसत ही नहीं ॥२९॥ आलस से रह गया विचार । आलस से डूबा आचार । आलस से न हो मुखाग्र । कुछ भी ॥३०॥ आलस से न होता श्रवण । आलस से न हो निरूपण । आलस से परमार्थ की पहचान । मलिन हुई ॥३१॥आलस से नित्य नियम रह गया । आलस से अभ्यास डूब गया । आलस से आलस बढ़ गया । असंभाव्य ॥३२॥ आलस से गई धारणा धृति । आलस से मलिन हुई वृत्ति । आलस से विवेक की गति । मंद हुई ॥३३॥आलस से निद्रा बढ़ी । आलस से वासना फैली । आलस से शून्याकार हुई । सद्बुद्धि निश्चय की ॥३४॥दुश्चितपन के साथ आलस । आलस से निद्राविलास । निद्रा विलास से केवल नाश । आयुष्य का ॥३५॥निद्रा आलस दुश्चितपन । यही मूर्ख का लक्षण । इसके कारण निरूपण । उमजे ही नहीं ॥३६॥ यह तीनों लक्षण जहां । विवेक कैसे रहेगा वहां । अज्ञानी को इसके सिवा । सुख ही नहीं ॥३७॥ क्षुधा लगते ही खाया। खाकर उठा तो आलस आया । आलस आते ही सोया । सावकाश ॥३८॥ सोकर उठते ही दुश्चित । कभी नहीं सावचेत । वहां कैसे आत्महित । निरूपण में ॥३९॥ मर्कट के पास दिया रत्न । पिशाच के हांथ में निधान । दुश्चित के समक्ष निरूपण । का वही होता ॥४०॥अब रहने दो यह उपपत्ति । आशंका की कौन गति । कितने दिनों मे होती मुक्ति । सज्जन के संग में ॥४१॥ सुनो इसका प्रत्युत्तर । श्रोता होंयें निरूत्तर । संतसंग का विचार । ऐसा है ॥४२॥ लोहा पारस से लगता । बूंद सागर से मिलता । गंगा सरिता संगम होता । तत्क्षण ॥४३॥ सावध साक्षेपी और दक्ष । उसे तत्काल ही मोक्ष । इतरों को वह अलक्ष्य । लक्ष्य करते न बने ॥४४॥यहां शिष्यप्रज्ञा ही केवल । प्रज्ञावंत को न लगे समयकाल । अनन्य को तत्काल । मोक्षलाभ होता ॥४५॥प्रज्ञावंत और अनन्य । उसे न लगे एक क्षण । अनन्य भावार्थ बिन । प्रज्ञा खोटी ॥४६॥ प्रज्ञाबिन अर्थ न समझे । विश्वासबिन वस्तु न समझे । प्रज्ञा विश्वास से गले । देहाभिमान ॥४७॥देहाभिमान के अंत में । सहजही वस्तुप्राप्ति है । सत्संग से सद्गति में । विलंब नहीं ॥४८॥ सावधान साक्षेपी विशेष । प्रज्ञावंत और विश्वास । उसे साधनों का सायास । करना ही न पडे ॥४९॥ इतर भाविक और भोले । उन्हें भी साधनों से मोक्ष मिले । साधुसंग से तत्काल खुले । विवेकदृष्टि ॥५०॥पर वे साधन तोडें नहीं । निरूपण का उपाय । निरूपण से राह मिलती । सर्वत्रों को ॥५१॥ अब मोक्ष है कैसा । कैसे स्वरूप की दशा । उसके प्राप्ति का भरोसा । सत्संग से कब होता ॥५२॥ ऐसे निरूपण प्रांजल । आगे बोला गया सकल । श्रोताओं होकर निश्चल । अवधान दें ॥५३॥ अवगुण त्यागवाने के कारण से । न्याय निष्ठुर बोलना पडे । श्रोता कोप न धरें। ऐसे वचनों का ॥५४॥इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे दुश्चितनिरूपणनाम समास छठवां ॥६॥ N/A References : N/A Last Updated : December 06, 2023 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. 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