ज्ञानदशक मायोद्भवनाम - ॥ समास आठवां - आत्मदर्शननाम ॥

३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
पीछे हुआ निरूपण । परमात्मा वह तू ही है जान । उस परमात्मा के लक्षण । वे हैं ऐसे ॥१॥
जन्म नहीं मृत्यु नहीं। आना नहीं जाना नहीं । बद्ध मोक्ष दोनो नहीं । परमात्मा को ॥२॥
परमात्मा निर्गुण निराकार । परमात्मा अनंत अपार । परमात्मा नित्य निरंतर । जैसे का वैसा ॥३॥
परमात्मा सभी में व्यापक । परमात्मा अनेकों में एक । परमात्मा का विवेक । अतर्व्य है ॥४॥
ऐसी परमात्मा की स्थिति । कहते हैं वेद श्रुति । भक्ति से होती परमात्मा प्राप्ति । इसमें संशय नहीं ॥५॥
उस भक्ति के लक्षण । भक्ति नवविधा भजन । नवविधा भजन से पावन । हुये बहुत भक्त ॥६॥
उस नवविधा में सार । आत्मनिवेदन श्रेष्ठतर । उसका करें विचार । स्वानुभव से स्वयं ॥७॥
अपने स्वानुभव से । स्वयं को निवेदन करें । आत्मनिवेदन यह जानें । है ऐसा ॥८॥
महत्पूजा के अंत में । देव को मस्तक अर्पण करते । वैसी यह निकट भक्ति है । आत्मनिवेदन की ॥९॥
स्वयं को निवेदन करते । ऐसे भक्त थोडे रहते । परमात्मा मुक्ति उन्हें । देते तत्काल ॥१०॥
स्वयं को कैसे निवेदन करें । कहां जाकर गिरें । अथवा मस्तक काटकर रखें। देव के सम्मुख ॥११॥
सुनकर वचन ऐसे । वक्ता बोले सर्वज्ञता से । श्रोता एकाग्र चित्त से। सावधान हों ॥१२॥
आत्मनिवेदन के लक्षण । पहले देखें मैं कौन। फिर परमात्मा निर्गुण । उसे पहचानें ॥१३॥
देवभक्त का शोधन । करने पर होता आत्मनिवेदन । देव है पुरातन । भक्त देखे ॥१४॥
देव को जब पहचाननें जाता । वहां होती तद्रूपता । देवभक्तविभक्तता । मूलतः ही नहीं ॥१५॥
विभक्त नहीं इस कारण भक्त । बद्ध नहीं इस कारण मुक्त । अयुक्त नहीं बोलना युक्त । शास्त्राधार से ॥१६॥
देवभक्तों का अगर देखें मूल । होता भेद का निर्मूल । एक परमात्मा सकल । दृश्य से अलग ॥१७॥
उससे होते ही मिलन । नहीं रहता दूजापन । देवभक्त का भिन्नपन । हुआ निरसित ॥१८॥
आत्मनिवेदन के अंत में ही । जो भी होती अभेद भक्ति । उसका नाम सायुज्यमुक्ति । सत्य जानें ॥१९॥
जो संतों के शरण गया । अद्वैतनिरुपण से बोधित हुआ । फिर उसे यदि अलग किया । तो भी होगा नहीं ॥२०॥
नदी मिली सागर से । उसे चुनकर अलग करें कैसे । लोहा सोना होता फिर उसे । कालिमा न आती ॥२१॥
वैसे भगवंत में मिल गया । वह अलग कभी नहीं हुआ । देव स्वयं भक्त हुआ । विभक्त नहीं ॥२२॥
देव भक्त मूलतः एक । जिसे समझा यह विवेक । साधुजनों को मोक्षदायक । वही एक ॥२३॥
अब रहने दो कहना ये । देव देखें भक्तपन से । उससे उसका ऐश्वर्य दृढ होये । तत्काल शरीर में ॥२४॥
देह ही होकर रहियें । उससे देहदुःख सहन कीजिये । देहातीत होते ही पाइये । परब्रह्म वह ॥२५॥
देहातीत कैसे होना । कैसे परब्रह्म को पाना । ऐश्वर्य के लक्षण बताना । है कौन से जी ॥२६॥
ऐसे श्रोताओं ने आक्षेप किया । उसका उत्तर क्या कहा गया । वही अब निरूपित किया । सावधानी से सुनो ॥२७॥
देहातीत वस्तु जो । वही तुम परब्रह्म जानो । देहसंग तुझ विदेही को । सहन न होगा ॥२८॥
जिसकी बुद्धि हो ऐसे । वेद बखानते जिसे । नाना शास्त्रों को खोजने से । समझ में न आये ॥२९॥
ऐश्वर्य जो ऐसे तत्त्वता । देहबुद्धि छोडने पर दृढ होता । देह मैं ऐसा भाव जो रखता । अधोगति ॥३०॥
इस कारण साधुवचन । न मानें अप्रमाण । मिथ्या मानो तो दूषण । आने लगता ॥३१॥
साधुवचन वह कैसे । कैसे धरें विश्वास से । एक बार स्वामी ऐसे । मुझे निरूपित करें ॥३२॥
सोहं आत्मा स्वानंदघन । अजन्मा वह तूही जान । यही साधु के वचन । सुदृढ धरें ॥३३॥
महावाक्य का अंतरंग । तू ही ब्रह्म निरंतर । इस वचन का बिसर । पड़े ही नहीं ॥३४॥
देह का होगा अंत । तब मैं पाऊंगा अनंत । ऐसे कथन को निभ्रांत । मानें ही नहीं ॥३५॥
कोई मूर्ख कहता ऐसे । माया नष्ट होगी कल्पांत में । फिर ब्रह्मप्राप्ति हमें । अन्यथा नहीं ॥३६॥
माया का होगा कल्पांत । अथवा देह का आयेगा अंत । तब पाऊंगा निस्तब्ध । परब्रह्म मैं ॥३७॥
यह कहना अप्रमाण । ऐसा नहीं समाधान । समाधान के लक्षण । अलग ही हैं ॥३८॥
सेना सारी ही मर जाये । फिर राज्यपद प्राप्त होये । सेना रहते ही राज्य करें । यह समझे ना ॥३९॥
माया रहकर भी नहीं । देह रहते भी विदेही । ऐसा समाधान कुछ ही सही । पहचानें ॥४०॥
राज्यपद हांथ में आया । तब परिवार ने क्या किया । परिवार को देखा तो राज्य गया । यह तो होता नहीं ॥४१॥
प्राप्त होने पर आत्मज्ञान । वैसे दृश्य देहभान । दृष्टि पडने पर समाधान । जायेगा नहीं ॥४२॥
मार्ग में जड़ सर्पाकार । देखकर भयभीत हुआ अपार । समझने पर वहां का विचार । फिर उसे मारना क्या ॥४३॥
वैसी माया भयानक । विचार देखने पर मायिक । फिर उसकी धाक । किस कारण धरें ॥४४॥
देखकर मृगजल के पूर । कहे कैसे जाऊं उस पार । समझने पर वहां का विचार । संकट कैसा ॥४५॥
देखकर स्वप्न भयानक । स्वप्न में लगे परम धाक । जागृति आने पर साशंक । किसलिये होंयें ॥४६॥
तथापि माया कल्पना से दिखे । स्वयं कल्पनातीत है। वहां उद्वेग कैसे । निर्विकल्प को ॥४७॥
अंत जो मति वही गति । ऐसा कहते है सर्वत्र ही। तुझे अंत में तेरी प्राप्ति । सहज ही हुई ॥४८॥
चार देहों का अंत । और जन्ममूल का प्रांत । अंतप्रांत से अलिप्त । वह तू आत्मा ॥४९॥
जिसकी ऐसी है मति । उसे ज्ञान से आत्मगति । गति और अवगति । से अलग ही वह ॥५०॥
मति कुंठित हुई वेदों की । वहां गति और अवगति कैसी । आत्मशास्त्रगुरूप्रचीति की । ऐक्यता आई ॥५१॥
जीवपन की मिटी भ्रांति । वस्तु की आई आत्मप्रचीति । प्राणी पाया उत्तम गति । सद्गुरूबोध से ॥५२॥
सद्गुरू बोध जब हुआ । चार देहों का अंत हुआ । उससे निजध्यास लगा । सस्वरूप में ॥५३॥
उस निजध्यास से प्राणी । अंत में हुआ ध्येय ही । सायुज्यमुक्ति का धनी । हो कर बैठा ॥५४॥
दृश्य पदार्थ के हटते ही । सारा तत्त्व आत्मा ही । सूक्ष्म विचार से देखते ही । दृश्य कभी था ही नहीं ॥५५॥
मिथ्या मिथ्यत्व से देखा । मिथ्यापन से अनुभव आया । श्रोताओं चाहिये सुनना । इसका नाम है मोक्ष ॥५६॥
सद्गुरूवचन हृदय से धरे । वही मोक्ष का अधिकारी है । श्रवण मनन किया वही दोहराये । अत्यादर से ॥५७॥
जहां मिटते दोनो पक्ष । वहां लक्ष्य ना अलक्ष्य । इसका नाम जानिये मोक्ष । नेमस्त आत्मा ॥५८॥
जहां ध्यानधारणा होती समाप्त । कल्पना निर्विकल्प में होती लुप्त । केवल ज्ञप्तिमात्र रहे शेष । सूक्ष्म ब्रह्म ॥५९॥
भवमृगजल सूख गये । झूठे बंधन छूट गये । अजन्मा को मुक्त कर दिये । जन्मदुःख से ॥६०॥
निःसंग की संगव्याधि । विदेही की देहबुद्धि । विवेक से तोड़ी उपाधि । निःप्रपंच की ॥६१॥
अद्वैत का तोड़ा द्वैत । एकांत को दिया एकांत । अनंत को दिया अंत । अनंत का ॥६२॥
जागृति को जगाया । जागे को सावध किया । निजबोध को प्रबोधित किया । आत्मज्ञान ॥६३॥
अमृत को किया अमर । मोक्ष को मुक्ति का घर । संयोग को निरंतर । योग किया ॥६४॥
निर्गुण को निर्गुण किया । सार्थक का सार्थक हुआ । बहुत दिनों बाद मिलन हुआ । अपने से अपना ॥६५॥
टूटा द्वैत का परदा । अभेद से भेद को तोडा । भूतपंचक की बाधा । का हुआ निरसन ॥६६॥
हुआ साधन का फल । किया निश्चल को निश्चल । निर्मल का गया मल । विवेकबल से ॥६७॥
था सन्निध वह चूक गया । जिसका उसे प्राप्त हुआ । स्वयं को देखते ही मिट गया । जन्मदुःख ॥६८॥
दुष्ट स्वप्न से घबरा गया । ब्राह्मण नीच याति पाया । अपना ही स्वयं को मिल गया । जागृत होने पर ॥६९॥
ऐसा जिसे हुआ ज्ञान । उस पुरुष के लक्षण । अगले समास में निरूपण । कहा गया है ॥७०॥
इति श्रीदासबोध गुरुशिष्यसंवादे आत्मदर्शननाम समास आठवां ॥८॥

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Last Updated : December 06, 2023

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