अखंडध्याननाम - ॥ समास तीसरा - कवित्वकलानिरूपणनाम ॥
‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन इस में है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
कवित्वशब्दसुमनमाला । अर्थपरिमल निराला । उससे संतषट्पदकुल । होते आनंदित ॥१॥
ऐसी माला अंतःकरण में । पिरोकर पूजा रामचरणों में । ओंकार तंतु अखंडता में । खंडित ही ना हो ॥२॥
परोपकार के कारण । कवित्व अवश्य करना । उस कवित्व के लक्षण । कहे जाते ॥३॥
जिससे हो भगवद्भक्ति । जिससे हो विरक्ति । ऐसे कवित्व की युक्ति । बढायें पहले ॥४॥
क्रिया के बिन शब्दज्ञान । उसे ना मानते सज्जन । इस कारण देव प्रसन्न । अनुताप से करें ॥५॥
देव के रहते प्रसन्न । वाणी से निकलते जो जो वचन । वे रहते अति श्लाघ्य वचन । इसका नाम प्रासादिक ॥६॥
ढीठ पाठ प्रासादिक । ऐसे कहते अनेक । तो यह त्रिविध विवेक । कहता हूं ॥७॥
ढीठ याने ढिठाई से किया । जो जो अपने मन में आया । हठपूर्वक कवित्व रचाया । इसे कहते ढीठ ॥८॥
पाठ याने अनुवाद । बहुत देख लिये ग्रंथांतर । उनकी नकल फिर । स्वयं ने उतारी ॥९॥
शीघ्र ही कवित्व जोड़ दिया । दृष्टि देखा वर्णन किया । भक्ति विरहित जो किया । उसका नाम ढीठपाठ ॥१०॥
कामिक रसिक शृंगारिक । वीर हास्य प्रास्ताविक । कौतुक विनोद अनेक । इसका नाम ढीठपाठ ॥११॥
मन हुआ कामाकार । वैसे ही निकलते उद्गार । ढीठपाठ से भव पार । मिलता नहीं ॥१२॥
होने को उदर शांति । करनी पडती नरस्तुति । वहां किये जो व्युत्पत्ति । इसका नाम ढीठपाठ ॥१३॥
कवित्व ना हो ढीठपाठ । कवित्व ना हो खटपट । कवित्व ना हो उद्धट । पाखंड मत ॥१४॥
कवित्व ना हो वादांग । कवित्व ना हो रसभंग । कवित्व ना हो रंग भंग । दृष्टांतहीन ॥१५॥
कवित्व ना हो फैलाव केवल । कवित्व ना हो बकबक । कवित्व ना हो कुटिल । लक्ष्य बनाकर ॥१६॥
हीन कवित्व न रहें । कहा हुआ ही न कहें । छंद भंग न करें । मुद्राहीन ॥१७॥
व्युत्पत्तिहीन तर्कहीन । कलाहीन शब्दहीन । भक्तिज्ञानवैराग्यहीन । कवित्व ना हो ॥१८॥
भक्ति हीन जो कवित्व । उसे ही जानें उज्जड मत । रुचिहीन वक्तृत्व । ऊबानेवाला ॥१९॥
भक्ति बिन जो अनुवाद । उसे ही जानें विनोद । प्रीति बिना संवाद । होता है कब ॥२०॥
अस्तु ढीठ पाठ है ऐसे । झूठी अहंता के उन्माद जैसे । अब प्रासादिक वह कैसे । कहे जाते ॥२१॥
वैभव कांता कांचन । जिसे लगे कि ये वमन । अंतरंग में लगा ध्यान । सर्वोत्तम का ॥२२॥
जिसे घडी हर घडी । लगे भगवंत से प्रीति । चढ़ती बढ़ती रूचि । भगवद्भजन की ॥२३॥
जो भगवद्भजन के बिन । जाने ना दे एक क्षण । सर्वकाल अंतःकरण | रंगा भक्ति रंग से ॥२४॥
जिसके अंतरंग में भगवंत । अचल रहा हो शांत । वह सहज ही करे जो बात । वह ब्रह्मनिरूपण ॥२५॥
अंतरंग में बैठा गोविंद । उसे लगा भक्तिछंद । भक्ति बिन अनुवाद । अन्य नहीं ॥२६॥
अंतरंग में हो रूचि जैसे । वैखरी कहती वैसे । करुणा कीर्तन करे भाव से । नाचे प्रेमोन्नत होकर ॥२७॥
भगवंत से लगा जो मन । उसे न रहता देहभान । शंका लज्जा कर पलायन । दूर ही रहती ॥२८॥
वह प्रेम रंग से रंगा । वह भक्ति मद से मत्त हुआ । उसने अहंभाव को रौंदा । पैरों तले ॥२९॥
गाता नाचता निःशंक । उसे कैसे दिखते लोक । दृष्टि में त्रैलोक्यनायक । आ बसा ॥३०॥
ऐसा भगवंत में जो रंगा । और कुछ ना उसको लगे । स्वइच्छा से कहने लगा । ध्यान कीर्ति प्रताप ॥३१॥
नाना ध्यान नाना मूर्ति । नाना प्रताप नाना कीर्ति । उसके समक्ष नरस्तुति । तृणतुल्य लगे ॥३२॥
अस्तु ऐसा जो भगवद्भक्त । जो इस संसार से विरक्त । उसे मानते मुक्त । साधुजन ॥३३॥
उसकी भक्ति का कौतुक । इसका नाम प्रासादिक। सहज बोलते ही विवेक । प्रकट होये ॥३४॥
सुनो कवित्वलक्षण । किया जो वही करुं निरूपण । जिससे शांत हो अंतःकरण । श्रोताओं के ॥३५॥
कवित्व हो निर्मल । कवित्व हो सरल । कवित्व हो प्रांजल । अन्वययुक्त ॥३६॥
कवित्व में हो भक्ति बल । कवित्व में हो निराला अर्थ । कवित्व हो अलग । अहंता से ॥३७॥
कवित्व में हो कीर्ति बढ़कर । कवित्व हो रम्य मधुर । कवित्व हो भरपूर । प्रताप विषयक ॥३८॥
कवित्व हो सरल । कवित्व हो अल्परूप । कवित्व हो सुरूप । चरणबद्ध ॥३९॥
मृदु मंजुल कोमल । भव्य अद्भुत विशाल । गौल्य माधुर्य रसीला । भक्ति रस से ॥४०॥
अक्षरबद्ध पदबद्ध । नाना चातुर्य प्रबंध । नाना कौशल्ययुक्त छंदबद्ध । धाटी मुद्रा अनेक ॥४१॥
नाना युक्ति नाना बुद्धि । नाना कला नाना सिद्धि । नाना अन्वय साधे । नाना कवित्व ॥४२॥
नाना साहित्य दृष्टांत । नाना तर्क वितर्क युक्त । नाना सम्मति सिद्धांत । पूर्व पक्ष से ॥४३॥
नाना गति नाना व्युत्पत्ति । नाना मति नाना स्फूर्ति । नाना धारणा नाना धृति । इसका नाम कवित्व ॥४४॥
शंका आशंका प्रत्युत्तर । नाना काव्य शास्त्राधार । टूटे संशय निर्धार । से करते ही निर्धार ॥४५॥
नाना प्रसंग नाना विचार । नाना योग नाना विवर । नाना तत्त्वचर्चासार । इसका नाम कवित्व ॥४६॥
नाना साधन पुरश्चरण । नाना तप तीर्थाटन । नाना संदेह निरसन । इसका नाम कवित्व ॥४७॥
जिससे अनुताप उपजे । जिससे लौकिक लजाये । जिससे ज्ञान उपजे । उसका नाम कवित्व ॥४८॥
यह ज्ञान प्रबल हो जिससे । यह वृत्ति शांत हो जिससे । समझे भक्तिमार्ग जिससे । उसका नाम कवित्व ॥४९॥
जिससे देहबुद्धि टूटे । जिससे भवसिंधु सूखे । जिससे भगवंत प्रकटे । उसका नाम कवित्व ॥५०॥
जिससे सद्बुद्धि उपजे । जिससे पाखंड भग्न होये । जिससे विवेक जागे । उसका नाम कवित्व ॥५१॥
जिससे सद्वस्तु भासे । जिससे भ्रम निरसन होये । भिन्नत्व नष्ट हो जिससे । उसका नाम कवित्व ॥५२॥
जिससे हो समाधान । जिससे टूटे संसार बंधन । जिसे मानते सज्जन । इसका नाम कवित्व ॥५३॥
ऐसे कवित्वलक्षण । कहने में वे असाधारण । परंतु कुछ एक निरूपण । किया समझाने के लिये ॥५४॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे कवित्वकलानिरूपणनाम समास तीसरा ॥३॥
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Last Updated : December 09, 2023
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