अखंडध्याननाम - ॥ समास चौथा - कीर्तनलक्षणनाम ॥
‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन इस में है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
कलियुग में कीर्तन करें । केवल कोमल कुशल गायें । कठिन कर्कश कंटीले त्यागें । एक ओर ॥१॥
खटखट छोड़ दे । खलखल खलों से ना करें । खरे खोटे से खौलने न दें । वृत्ति अपनी ॥२॥
गर्वगान गायें नहीं । गाते गाते गलें नहीं । गौप्य गूज गरजें नहीं। गुण गायें ॥३॥
घर्षण घिसनी खकारना । घसर घसरते खकारते गाना । घुम घुम के घुमना । योग्य नहीं ॥४॥
नाना नाम भगवंत के । नाना ध्यान सगुण के । नाना कीर्तन कीर्ति के । अद्भुत करें ॥५॥
चकचक कर चूकें ना । चाट छिछोरे विचलित करे ना । चर चर चुर चुर लगे ना । ऐसे करें ॥६॥
छल छल छलना करें नहीं । छलने के लिये छलें नहीं । छलने के बाद भी छलें नहीं । किसी एक को ॥७॥
जी जी जी जी कहें ना । जो जो जागे वे सभी पावन । जपते जपते जनों में जनार्दना । संतुष्ट करायें ॥८॥
झरे झरनों से झरता जल । झलके दूर से झिलमिलाता जल । झाडकर झलकते सकल । प्राणी वहां ॥९॥
आओ आओ कहना न पडे । आने के लिये उपाय न लगे । आने के लिये कुछ भी न लगे । सुबुद्ध को ॥१०॥
टक टक टक करें नहीं । टालमटोल में टिकें नहीं । टम टम टम टम लगायें नहीं । ऊबानेवाली ॥११॥
ठस ठोंबस की संगत ना करें । ठक ठक ठक ना करें । ठाट ठुमक से ना ठहरें । मूर्ति ध्यान में ॥१२॥
डिगडिग डिगडिग डिगे । डगमग डगमग काम आयें नहीं । डामाडोल से वर्तन में चूकें नहीं । पागलपन से ॥१३॥
ढीले डाल से दुलते चंवर । गुडा दुलना डोले नाचे । ढले ही ना ढेर जैसे । ऊबानेवाले ॥१४॥
नाना सटीक चतुर । नाना नम्र गुणागर । नान नेमक मधुर । तंत गायन ॥१५॥
ताल तंबूरा तानमान । तालबद्ध तंतुगायन । तूर्त तार्किक तन मन । से तल्लीन होते ॥१६॥
थर्थर थरकते रोमांच । थै थै थै स्वर उच्च । थिर थिर थिरकायें नाच । प्रेमल भक्तों का ॥१७॥
दक्ष दाक्षिण्य से भरा । बंद प्रबंध से भरापूरा । दमदम कर गूंजने लगा । जगदंतर ॥१८॥
धूर्त तूर्त दौडते आया । धिंग बुद्धि से धिंग हुआ । धिंगाने के धाक से बेरंग हुआ । रंग सारा ॥१९॥
नाना नाटक नियम से । नाना गर्दन झुके कौतुक से । नाना नियमक अनेक ऐसे । विद्यापात्र ॥२०॥
पाप भाग गया दूर । पुण्य अपार प्रकट हुआ उस पर । पुनरागत परा अंतरंग । में चटक लगे ॥२१॥
फुकट फाकट फंसाना नहीं । फालतू फुगडी घुमना नहीं । फीकी फुसकी व्यर्थ नहीं । कुटिलता निंदा ॥२२॥
बढ़िया बढ़िया बढ़िया कहते । बाबा बाबा उदंड करते । बडे बडप्पन देकर बुलाते । कथा के लिये ॥२३॥
भला भला भला लोगों में । भक्तिभाव से भव्य अनेकों में । भूषण भाविक लोगों में । परोपकार से ॥२४॥
मानें तभी मानिये मन से । मत्त न होयें ममता से । मैं मैं मैं मैं बहुत जन ऐसे । कहते हैं ॥२५॥
एक एक के पास जाकर । आऊं आऊं कहते हांथ धोकर । आओ आओ इस प्रकार । उनसे कहना ना पड़े ॥२६॥
राग रंग रसीला सुरंग । अंतरंग में संगीत राग । रत्नपरीक्षा होने पर लोग । रत्न के पीछे दौड़ते ॥२७॥
लालायित लुरते लोचन । लकलक चमके मन । लपलप लपते जन । पसंदी से ॥२८॥
वचन व्यर्थ कहे ना । विस्तार विवर में रहे ना । वक्तृत्व से शांत करे जन । विनीत होकर ॥२९॥
सारा सार समस्तों को । सिखा सिखा कर जनों को । साहित्य संगीत सज्जनों को । अच्छा लगे ॥३०॥
खरे खोटे खरे लगे । खर्खर खुर्खर टूट गये । खोटे खोटेपन से गये । खोटे होने के कारण ॥३१॥
सयाने शोधित कर पाये ना । शास्त्रार्थ श्रुति बोध होये ना । शुक शारिखा शमे ना । शब्द उसका ॥३२॥
हर्षित होकर जो हंसा । हा हा हो हो से भूला । हित होता ना उनका । परत्र का ॥३३॥
लक्ष्य अलक्ष्य पर लक्ष्य करें । लोचन से लक्षित करें । लांघकर लक्ष्य को अलक्ष्यें । विहंगममार्ग से ॥३४॥
क्षेत्र क्षेत्रज्ञ क्षोभित होता । क्षमा से क्षमा कर शांत करता । क्षमना क्षोभित क्षेत्रज्ञ वो । सभी जगह ॥३५॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे कीर्तनलक्षणनाम समास चौथा ॥४॥
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Last Updated : December 09, 2023
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