अखंडध्याननाम - ॥ समास नववां - शाश्वतनिरूपणनाम ॥
‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन इस में है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
पिंड का देखा कौतुक । खोजा आत्मानात्मविवेक । पिंड अनात्मा आत्मा एक । सकल कर्ता ॥१॥
अनन्यता कही आत्मा से । वह प्रत्यय में दिखी विवेक से । अब समझनी चाहिये कैसे । है ब्रह्मांडरचना ॥२॥
आत्मानात्मविवेक पिंड में । सारासारविचार ब्रह्मांड में । पुनः पुनः विवरण से मिठास ये । लेनी चाहिये ॥३॥
पिंड कार्य ब्रह्मांड कारण । इसका करें विवरण । आगे यही निरूपण । कहा है ॥४॥
असार याने नाशवंत । सार याने शाश्वत । जिसका होगा कल्पांत । वह सार नहीं ॥५॥
पृथ्वी जल से हुई । आगे वह जल में मिली । जल की उत्पत्ति हुई । तेज से ॥६॥
वह जल तेज ने सोखा । महत्तेज ने उसे सुखाया । आगे तेज ही बचा । सावकाश ॥७॥
वायु से तेज उपजा । वायु ने तेज को झपटा । तेज जाने पर वायु का । व्याप चारों ओर ॥८॥
वायु गगन से हुआ । पुनः उसमें ही विलीन हुआ । ऐसा यह कल्पांत कहा । वेदशास्त्रों में ॥९॥
गुणमाया मूलमाया । परब्रह्म में पाती लय । उस परब्रह्म के विवरण के लिये । विवेक चाहिये ॥१०॥
सभी उपाधियों का अंत । वहा नहीं दृश्य खटपट । निर्गुण ब्रह्म घनत्व । सभी जगह ॥११॥
उदण्ड हुआ कल्पांत । फिर भी न होता उसका अंत । माया त्याग कर शाश्वत । पहचानें ॥१२॥
देव अंतरात्मा सगुण । सगुण से पायें निर्गुण । निर्गुणज्ञान से विज्ञान । होता है ॥१३॥
कल्पनातीत जो निर्मल । वहां नहीं मायामल । मिथ्यत्व से दृश्य सकल । होते रहता ॥१४॥
जो होता और तुरंत ही चला जाता । वह सब प्रत्यय में आता । आना जाना नहीं जहां । उसे विवेक से समझें ॥१५॥
एक ज्ञान एक अज्ञान । एक जानें विपरीत ज्ञान । यह त्रिपुटी होती जहां क्षीण । वही विज्ञान ॥१६॥
वेदांत सिद्धांत धादांत । इसकी देखें प्रचीत । निर्विकार सदोदित । जहां वहां ॥१७॥
इसे ज्ञान दृष्टि से देखें । देखकर अनन्य रहें । मुख्य आत्मनिवेदन जानें । इसका नाम ॥१८॥
दृश्य को दिखे दृश्य । मन को भासे वह भास । दृश्यभासातीत अविनाश । परब्रह्म वह ॥१९॥
देखने जाओ दूर दूर तक । परब्रह्म सबाह्यंतर्गत । अंत ही नहीं अनंत । बराबरी उसकी किससे ॥२०॥
चंचल वह स्थिर होये ना । निश्चल वह कदापि विचलित होये ना । बादल आते जाते गगन । को विचलन नहीं ॥२१॥
जो विकार से बढ़े टूटे । वहां शाश्वतता कैसी होये । कल्पांत होते ही बिगड़े । सब कुछ ॥२२॥
जो अंतरंग में ही भ्रमित हुये । मायासंभ्रम से संभ्रमित हुये । उनसे कैसे यह सुलझे । जटिल चक्र ॥२३॥
संकोच से व्यवहार सुलझे ना । संकोच से सिद्धांत समझे ना । संकोच से देव का आकलन होये ना । अंतर्याम में ॥२४॥
वैद्य की प्रचीति आये ना । और संकोच भी लांघ सकेना । तब फिर रोगी बचे ना । जानिये ऐसे ॥२५॥
जिसने राजा को पहचाना । वह राव भलते को कहे ना । जिसने देव को पहचाना । वह देवरूपी ॥२६॥
मायिक का संकोच जिसे । वह नीच क्या बोलेगा ऐसे । विचार देखें तो स्पष्ट इस प्रकार से । सब कुछ ॥२७॥
संकोच माया के इस पार । परब्रह्म वह उस पार । उस पार इस पार । निरंतर ॥२८॥
खोटों के कारण संकोच करना । भ्रमसे कुछ भी करना। ऐसे नहीं कि लक्षण । विवेक के ॥२९॥
खोटे सारे ही त्यागें । खरा प्रत्यय से पहचानें । माया त्यागकर समझें । परब्रह्म को ॥३०॥
उस माया के जो लक्षण । उनका ही आगे निरूपण । सुचित होकर विवरण । करना चाहिये ॥३१॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे शाश्वतनिरूपणनाम समास नववां ॥९॥
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Last Updated : December 09, 2023
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