पूर्णदशक - ॥ समास तीसरा - सूक्ष्मनामाभिधानाम ॥
इस ग्रंथके पठनसे ‘‘उपासना का श्रेष्ठ आश्रय’ लाखों लोगों को प्राप्त हुआ है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
मूल से अंतपर्यंत । विस्तार कहा नानाविध । पुनः विवरण से शांत कर । वृत्ति पीछे ले जायें ॥१॥
चारों वाणी चारों खानि । चौरासी लक्ष जीवयोनि । नाना प्रकार के प्राणी । आते जन्म लेते ॥२॥
सारे होते पृथ्वी से ही । नाश पाते पृथ्वी में ही । अनेक आते जाते परंतु अवनी । वैसी ही है ॥३॥
ऐसा यह अग्रभाग । दूसरा भूतों का विस्तार । तीसरा नामाभिधान उदंड । सूक्ष्मरूप से ॥४॥
स्थूल सारा त्याग दीजिये । सूक्ष्मरूप पहचानिये । गुणों से वारंवार देखिये । सूक्ष्म दृष्टि से ॥५॥
गुणों का रूप है ज्ञातृत्व अज्ञातृत्व । पहले ही देखें अभिप्राव । सूक्ष्मदृष्टि का लाघव । यहां से आगे ॥६॥
शुद्ध अज्ञान तमोगुण । शुद्ध ज्ञान सत्त्वगुण । ज्ञान अज्ञान रजोगुण । मिश्रित चलता ॥७॥
त्रिगुणों के रूप ऐसे । समझने लगे अचूकता से । गुणों के आगे कर्दम को कहिये । गुणक्षोभिणी ॥८॥
रज तम और सत्त्व । तीनों के जहां गूढत्व । वह जानिये महतत्त्व । कर्दमरूप ॥९॥
प्रकृतिपुरुष शिवशक्ति । अर्धनारीनटेश्वर कही जाती । पर इसकी स्वरूपस्थिति । कर्दमरूप ॥१०॥
सूक्ष्मरूप में गुणसौम्य । उसे कहिये गुणसाम्य। वैसे ही चैतन्य अगम्य । सूक्ष्मरूप में ॥११॥
बहुजिनसी मूलमाया । महाकारण ब्रह्मांड की काया। ऐसा सूक्ष्म अन्वय । देखें ही देखें ॥१२॥
चारों खानि पंचभूत । चौदह सूक्ष्म संकेत । जो देखना हो वह शोध । कर यहीं देखें ॥१३॥
यूं ही देखें तो बूझे ना । प्रयत्न करने पर भी समझेना । नाना प्रकार के जनों के मन । संदेह उठते ॥१४॥
चौदह पांच उन्नीस । उन्नीस चार तेईस । इसमें मूल चतुर्दश । देखें ही देखें ॥१५॥
जो बिबरण से समझा । बहां संदेह नहीं बचा । समझे बिना बडबडाना । है निरर्थक ॥१६॥
सकल सृष्टि का बीज । मूलमाया में रहे सहज । सारा ही समझने पर सज्ज । परमार्थ होता ॥१७॥
समझा मनुष्य वह बड़बड़ाये ना । निश्चय में अनुमान धरे ना । धांदली कदा करेना । परमार्थ में ॥१८॥
शब्दातीत को बोला गया। उसे वाच्यांश कहा गया । शुद्ध लक्ष्यांश लक्ष्यित करना । चाहिये विवेक से ॥१९॥
पूर्वपक्ष याने माया । सिद्धांत से पायेगी विलय । माया न रहने पर क्या । उसको कहें ॥२०॥
अन्वय और व्यतिरेक । यह पूर्वपक्ष का विवेक । सिद्धांत याने शुद्ध एक । दूसरा नहीं ॥२१॥
अधोमुख से भेद बढ़ते । ऊर्ध्वमुख से भेद टूटते । निसंगता से निर्गुण ये । महायोगी ॥२२॥
माया मिथ्या ऐसी समझी। फिर संकोचस्थिति क्यों आई । माया के संकोच से बिगडी । स्वरूपस्थिति ॥२३॥
खोटी माया के दबाव से । सत्य परब्रह्म छोड़ दे । मुख्य निश्चय हो तो घूमे । किस कारण ॥२४॥
पृथ्वी में बहुत जन । उनमें रहते सज्जन । मगर साधु को जानता कौन । साधु के सिवा ॥२५॥
इस कारण संसार त्यागें । फिर साधु का शोध लें । घूमते घूमते खोज निकाले । साधुजन ॥२६॥
उदंड खोजते जायें संत । मिलते प्रचीति के महंत । प्रचीति बिन स्वहित । होगा नहीं ॥२७॥
प्रपंच अथवा परमार्थ । प्रचीति बिन सारा व्यर्थ । प्रत्ययज्ञानी वह समर्थ । सभी में ॥२८॥
रातदिन देखें अर्थ । अर्थ देखें वह समर्थ । परलोक का निजस्वार्थ । वहीं बनता ॥२९॥
इसकारण देखा ही पुनः देखें । और खोजा हुआ ही पुनः खोजें । सारा समझने पर सहजता से । संदेह टूटते ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे सूक्ष्मनामाभिधाननाम समास तीसरा ॥३॥
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Last Updated : December 09, 2023
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