पूर्णदशक - ॥ समास आठवां - देहक्षेत्रनिरूपणनाम ॥

इस ग्रंथके पठनसे ‘‘उपासना का श्रेष्ठ आश्रय’ लाखों लोगों को प्राप्त हुआ है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
विधिप्रपंचतरु बढ गया । बढते बढते विस्तीर्ण हुआ । फल आने पर विश्रांति पाया । बहुत प्राणी ॥१॥
नाना फल रसीले लगे । मधुरता आई नाना जिनसों में । मधुरता चखने निर्माण किये । नाना शरीर ॥२॥
उत्तम विषय निर्माण हुये । शरीर बिना ना भोग पाये । इस कारण निर्माण किया उपाय । नाना शरीरों में ॥३॥
ज्ञानइंद्रिय किये निर्माण । भिन्न भिन्न गुणों के किये निर्माण । एक शरीर से हुये संलग्न । परंतु अलग अलग ॥४॥
श्रोत्रइंद्रिय पर शब्द पडा । उसका चाहिये भेद समझना। ऐसा उपाय निर्माण किया । इंद्रियों में ॥५॥
त्वचा इंद्रियों मे शीतोष्ण भासे । सब कुछ दिखे चक्षु इंद्रियों से । इंद्रियों में गुण ऐसे । अलग अलग ॥६॥
जिव्हा में रस चखना । घ्राण में परिमल लेना । इंद्रियों में भेद किया । अलग अलग गुणों से ॥७॥
वायुपंचक में अंतःकरण पंचक । मिलाकर घूमे निःशंक । ज्ञानेंद्रियां कर्मेंद्रियां सकल । देखें सावकाश ॥८॥
कर्म इंद्रियों के उतावलेपन से । जीव विषयों को भोगे । जग में उपाय ऐसे । ईश्वर ने किया ॥९॥
विषय निर्माण हुये अच्छे से । शरीर के बिना भोगें कैसे । नाना शरीरों की उलझने । इस कारण ॥१०॥
अस्थि मांस के शरीर । उन में गुण प्रकार । शरीर समान यंत्र । अन्य नहीं ॥११॥
ऐसे शरीर निर्माण किये । विषयभोग से पालन किये । छोटे बडे निर्माण हुये । इसी प्रकार ॥१२॥
अस्थि मांस के शरीर ये । निर्माण किये जगदीश्वर ने । विवेक से कर के। गुण विचार ॥१३॥
अस्थि मांस का पुतला । जिसके ज्ञान से सकल कला । शरीरभेद निराला । ठाई ठाई ॥१४॥
यह भेद कार्य के कारण । उसका उदंड है गुण । सकल तीक्ष्ण बुद्धि बिन । क्या समझे ॥१५॥
सकल करना है ईश्वर को । इस कारण निर्माण किया भेदों को । उर्ध्वमुख होते ही भेद को । ठांव कहां ॥१६॥
सृष्टि करने के लिये अगत्य भेद । संहार में सहज ही अभेद । भेद अभेद यह संवाद । माया गुण से ॥१७॥
माया में अंतरात्मा । न समझे उसकी महिमा । हुआ चतुर्मुख ब्रह्मा । भी संदेह में पडे ॥१८॥
पग पग पर पेचीदे समस्यायें । घडी घडी तीक्ष्ण तर्क ये । मन की होती विवरण करते । विकल उतावली अवस्था ॥१९॥
आत्मत्त्व में लगता सर्व ही । निरंजन में कुछ भी नहीं । एकांत समय में समझकर देखो तो ही । अच्छा लगे ॥२०॥
देह सामर्थ्यानुसार । सकल करे जगदीश्वर । महान सामर्थ्य के अवतार । कहलाते हैं ॥२१॥
शेष कूर्म वराह हुये । इतने देह विशाल धारण किये। उनके कारण रचना चले । सकल सृष्टि की ॥२२॥
ईश्वर ने कितना सूत्र किया । सूर्यबिंब को दौडने लगाया। कुहरे से धरवाया। अगाध पानी ॥२३॥
पर्वत जैसे मेघ उठाते । सूर्यबिंब को आच्छादित करते । वहां तुरंत ही वायु की गति ये । प्रकट होती ॥२४॥
सांय सांय हवा चले । काल के सेवक जैसे । बादलों को मारकर मुक्त कराये। दिनकर को ॥२५॥
लगाते बिजली के तडके । प्राणीमात्र अवचित धाक में आये । गगन कडकडाकर टूटे । स्थलों पर ॥२६॥
इहलोक में एक मर्म किये । महद्भूत से महद्भूत सम्हाले । सकल समभाग से चले । सृष्टिरचना ॥२७॥
ऐसे अनंत भेद आत्मा के । सकल जानेंगे कैसे । विवरण करते करते मन के । टुकडे होते ॥२८॥
ऐसी मेरी उपासना । उपासक लायें अपने मन । अगाध महिमा चतुरानन । क्या जाने ॥२९॥
आवाहन विसर्जन । यही भजन का लक्षण । सकल जानते सज्जन । मैं क्या कहूं ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे देहक्षेत्रनिरूपणनाम समास आठवां ॥८॥

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Last Updated : December 09, 2023

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