पूर्णदशक - ॥ समास पांचवां - चत्वारजिनसनाम ॥

इस ग्रंथके पठनसे ‘‘उपासना का श्रेष्ठ आश्रय’ लाखों लोगों को प्राप्त हुआ है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
यहां से वहां तक देखने पर । सुनो जिनस चत्वार । एक चौदह पांच चार । ऐसे हैं ॥१॥
परब्रह्म निराला सकलों से । परब्रह्म भिन्न सकलों से । अलग नाना कल्पनाओं से । परब्रह्म वह ॥२॥
परब्रह्म का विचार । नाना कल्पनाओं से पार । निर्मल निश्चल निर्विकार । अखंड है ॥३॥
परब्रह्म से कुछ भी तुले ना । यह एक मुख्य जिनसाना । दुसरा जिनस नाना कल्पना । मूलमाया ॥४॥
नाना सूक्ष्मरूप । सूक्ष्म और कर्दमरूप । मूल के संकल्प का आरोप । मूलमाया ॥५॥
हरिसंकल्प मूल का । आत्माराम सकलों का । संकेत नामाभिधान का । इस प्रकार ॥६॥
निश्चल में चंचल चेता । इसकारण चैतन्य कहा । गुणसमानत्त्व से हुआ । गुणसाम्य ऐसा ॥७॥
अर्धनारीनटेश्वर । वही षड्गुणैश्वर । प्रकृतिपुरुष का विचार । शिवशक्ति ॥८॥
शुद्धसत्त्व गुण की प्रस्तुति । अर्धमात्रा गुणक्षोभिणी । आये तीनों गुणों की करनी । प्रकट हुई ॥९॥
मन माया अंतरात्मा । चौदह जिनसों की सीमा । विद्यमान ज्ञानात्मा । इतनी जगह ॥१०॥
ऐसा दूसरा जिनस । अभिधान से चतुर्दश । अब तीसरा जिनस । पंचमहाभूत ॥११॥
यहां देखें तो ज्ञातृत्व थोडा । आदिअंत यह रोकडा । खानि को शीघ्र ही निरूपित किया । वह चौथा जिनस ॥१२॥
चारों खानि अनंत प्राणी । ज्ञातृत्व की घनता बढी । चारो जिनस यहीं पर ही । संपूर्ण हुये ॥१३॥
बीज बोया थोडा सा । आगे उसका उदंड होता । वैसे हुआ आत्मा का । खानि वाणी प्रकट होते ही ॥१४॥
ऐसी सत्ता प्रबल हुई। थोडी सत्ता की उदंड हुई । मनुष्य वेष में सृष्टि भोगी । नाना प्रकार से ॥१५॥
प्राणी मारकर श्वापद भागे । अज्ञानी को क्या समझे । नाना भोग भोगने पडते । मनुष्य देह में ॥१६॥
नाना शब्द नाना स्पर्श । नाना रूप नाना रस । नाना गंध जो विशेष । नरदेह जाने ॥१७॥
अमूल्य रत्न नाना वस्त्र । नाना यान नाना शस्त्र । नाना विद्या कला शास्त्र । नरदेह जाने ॥१८॥
पृथ्वी सत्ता से व्याप्त हुई । जगह जगह पर मर्यादित की । नाना विद्या कला की । नाना धारणा ॥१९॥
दृश्य सारा ही देखें । स्थान मान सम्हालें । सारासार पूछें । नरदेह होने पर ॥२०॥
इहलोक और परलोक । नाना प्रकारों का विवेक । विवेक और अविवेक । मनुष्य जाने ॥२१॥
नाना पिंड ब्रह्मांड रचना । नाना मूल की कल्पना । नाना प्रकारों की धारणा । मनुष्य जाने ॥२२॥
अष्टभोग नौरस । नाना प्रकारों का विलास । वाच्यांश लक्ष्यांश सारांश । मनुष्य जाने ॥२३॥
मनुष्य ने सब को समझा । उस मनुष्य को देव ने पाला । ऐसा यह सारा समझा । नरदेहयोग से ॥२४॥
नरदेह परम दुर्लभ । जिससे प्राप्त हो अलभ्य लाभ । दुर्लभ भी सुलभ । होता है ॥२५॥
अन्य देह यह क्लेशदायक । नरदेह बडा लाभदायक । परंतु चाहिये विवेक । की रचना जाड ॥२६॥
यहां जिसने आलस किया । उसने सर्वस्व डुबाया । देव को नहीं पहचाना । विवेकबल से ॥२७॥
नर वही नारायण । अगर प्रत्यय से करें श्रवण । मननशील अंतःकरण । सर्वकाल ॥२८॥
जो स्वयं ही तैरना जाने । उसे काछा से लगना न पडे । स्वतंत्ररूप में खोजें । सब कुछ ॥२९॥
सकल खोजकर रहा । उसे संदेह कैसा । आगे विचार कैसा हुआ । जिसका वही जाने ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे चत्वारजिनसनाम समास पांचवां ॥५॥

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Last Updated : December 09, 2023

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