जाके उर उपजी नहिं भाई ।
सो क्या जाने पीर पराई ॥टेक॥
ब्यावर जाने पीरकी सार ।
बाँझ नार क्या लखै बिकार ॥१॥
पतिब्रता पतिकौ ब्रत जानै ।
बिभिचारिन मिल कहा बखानै व२॥
हीरा-पारख जौहरी पावै ।
मूरख निरखकै कहा बतावै ॥३॥
लागा घाव कराहे सोई ।
कोगतहार के दरद न कोई ॥४॥
रामनाम मेरा प्रान-अधार ।
सोई रामरस पावनहार ॥५॥
जन दरिया जानेगा सोई ।
(जाके) प्रेमक माल कलेजे पोई ॥६॥
२
जो धुनियाँ तौ भी मैं राम तुम्हारा ।
अधम कमीन जाति मतिहीना, तुम तौ हौ सिरताज हमारा ॥टेक॥
कायाका मंत्र सबद मन मुठिया, सुखमन ताँत चढ़ाई ।
गगनमँडलमें धनुआँ बैठा, मेरे सतगुर कला सिखाई ॥१॥
पाप पान हर कुबुध काँकड़ा, सहज सहज झड़ जाई ।
घुंडी-गाँठ रहन नहिं पावै, इकरंगी होय आई ॥२॥
इकरँग हुआ भरा हरि चोला, हरि कहै कहा दिलाऊँ ।
मैं नाहीं मेहनतक लोभी, बकसौ मौज भगति निज पाऊँ ॥३॥
किरपा कर हरि बोले बानी, तुम तौ हौ मम दास ।
दरिया कहै, मेरे आतम भीतर, मेलौ राम भगति बिस्वास ॥४॥
३
बाबल कैसे बिसरो जाई ।
यदि मैं पति सँग रल खेलूँगी, आपा धरम समाई ॥टेक॥
सतगुरु मेरे किरपा कीनी, उत्तम बर परणाई ।
अब मेरे साईंको सरम पड़ैगी लेगा ह्रदय लगाई ॥
थे जानराय, मैं बाली-भोली, थे निरमल, मैं मैली ।
थे बतलाओ, मैं बोल न जानूँ, भेद न सकूँ सहेली ॥
थे ब्रह्मभाव, मैं आतप कन्या, समझ न जानूँ बानी ।
दरिया कहै परि पूरा पाया, यह निश्चै कर जानी ॥
४
भैरव
कहा कहूँ मेरे पिउकी बात ।
जो रे कहूँ सोई अंग सुहात ॥टेक॥
जब मैं रही थी कन्या क्वाँरी ।
तब मेरे कर्म हता सिर भारी ॥१॥
जब मेरी पिउसे मनसा दौड़ी ।
सतगुरु आन सगाई जोड़ी ॥२॥
जब मैं पिउका मंगल गाया ।
तब मेरा स्वामी ब्याहन आया ॥३॥
हथलेवा कर बैठी संगा ।
तउ मोहि लीनी बायें अंगा ॥४॥
जनदरिया कहै मिट गई दूती ।
आपौ अरप पीवसँग सूती ॥५॥
५
रामनाम नहिं हिरदे धरा ।
जैसा पसुवा तैसा नरा ॥१॥
पसुवा नर उद्यम कर खावै ।
पसुवा तौ जंगल चर आवै ॥२॥
पसुवा आवै, पसुवा जाय ।
पसुवा चरै औ पसुवा खाय ॥३॥
रामनाम ध्याया नहिं माईं ।
जनम गया पसुवाकी नाईं ॥४॥
रामनामसे नाहीं प्रीत ।
यह ही सब पसुवोंकी रीत ॥५॥
जीवत सुखदुखमें दिन भरै ।
मुवा पछे चौरासी परै ॥६॥
जनदरिया जिन राम न ध्याया ।
पसुवा ही ज्यों जनम गँवाया ॥७॥