प्रीति न काहु कि कानि बिचारै ।
मारग अपमारग बिथकित मन, को अनुसरत निवारै ॥
ज्यों पावस सरिता जल उमगत, सनमुख सिंधु सिधारै ।
ज्यों नादहिं मन दिये कुरंगनि, प्रगट पारधी मारै ॥
हितहरिबंसहिं लग सारँग ज्यों, सलभ सरीरहिं जारै ।
नाइक, निपुन नवल मोहन बिनु, कौन अपनपौ हारै ॥