नव चक्र चूडा़ नृपति मन साँवरौ,
राधिका तरुनिमनि पट्टरानी ।
सेस ग्रह आदि बैकुंठ परिजंत सब,
लोक थानैत ब्रज राजधानी ॥१॥
मेघ छ्यानवै कोटि बाग सींचत जहाँ,
मुक्ति चारौ तहाँ भरति पानी ।
सूर ससि पाहरु पवन जन इंदिरा,
चरनदासी भाट निगम बानी ॥२॥
धर्म कुतवाल सुक सूत नारद चारु,
फिरत चर चारि सनकादि ग्यानी ।
सत्तगुन पौरिया काल बँधुवा जहाँ,
कर्म बस काम रति सुख निसानी ॥३॥
कनक मरकत धरनि कुंज कुसुमिति महल,
मध्यकमनीय सयनीय ठानी ।
पल न बिछुरत दुऊ जात नहिं तहँ कोऊ,
ब्यास महलनि लिये पीकदानी ॥४॥