रसिक अनन्य हमारी जाति ।
कुलदेवी राधा, बरसानौ खेरौ,
ब्रजबासिन सों पाँति ॥१॥
गोत गोपाल, जनेऊ माला,
सिखा सिखंडि, हरि-मंदिर भाल ।
हरिगुन नाम बेद धुनि सुनियत,
मूँज पखावज कुस करताल ॥२॥
साखा जमुना, हरि-लीला षटकरम,
प्रसाद प्रान धन रास ।
सेवा बिधि-निषेध जड़ संगति,
बृत्ति सदा बृंदाबन बास ॥३॥
समृति भागवत, कृष्ण नाम संध्या,
तरपन गायत्री जाप ।
बंसी रिषि जजमान कलपतरु
ब्यास न देत असीस सराप ॥४॥
ऐसे ही बसिये ब्रजबीथिन ।
साधुनके पनवारे चुनि चुनि, उदर पोषियत सीथिन ॥१॥
घूरनमेंके बीनि चिनगटा रच्छा कीजै सीतन ।
कुंज-कुंज प्रति लोटि लगै उड़ि रज ब्रजकी अंगीतन ॥२॥
नितप्रति दरस स्याम-स्यामाको नित जमुना जल पीतन ।
ऐसेहि ब्यास रुचै तन पावन ऐसेहि मिलत अतीतन ॥३॥
जैये कौनके अब द्वार ।
जो जिय होय प्रीति काहूके दुख सहिये सौ बार ॥
घर-घर राजस-तामस बाढ़यो, धन-जोबनकौ गार ।
काम-बिबस ह्वै दान देत नीचनकों होत उदार ॥
साधु न सूझत बात न बूझत ये कलिके ब्यौहार ।
ब्यासदास कत भाजि उबरियै परियै माँझीधार ॥
कहा-कहा नहिं सहत सरीर ।
स्याम-सरन बिनु, करम सहाइन जनम-मरनकी पीर ॥
करुनावंत साधु-संगति बिनु, मनहि देय को धीर ।
भगति भागवत बिनु, को मेटै, सुख दै दुखकी भीर ॥
बिनु अपराध चहूँ दिसि बरषत पिसुन बचन अति तीर ।
कृष्ण-कृपा कवचीतें उबरै पावै तबही सीर ॥
चेतहु भैया बेगि बढ़ी कलिकाल नदी गंभीर ।
ब्यास बचन बलि बृंदाबन बसि, सेवहु कुंज कुटीर ॥
भजौ सुत, साँचे स्याम पिताहि ।
जाके सरन जात ही मिटिहै दारुन दुखकी दाहि ॥
कृपावंत भगवंत सुने मैं छिनि छाड़ौ जिनि ताहि ।
तेरे सकल मनोरथ पूजैं जो मथुरा लौं जाहि ॥
वै गोपाल दयाल दीन तू, करिहैं कृपा निबाहि ।
और न ठौर अनाथ दुखिन कौं मैं देख्यौ जग माँहि ॥
करुना बरुनालयकी महिमा मोपै कही न जाहि ।
ब्यासदासके प्रभुको सेवत हारि भई कहु काहि ? ॥