जो मेरै तन होते दोय ।
मैं काहू तें कछु नहिं कहतौ,
मोतें कछु कहतौ नहिं कोय ॥१॥
एक जु तन हरि-बिमुखनके
सँग रहतो देस-बिदेस ।
बिबिध भाँति के जग-दुख सुख जहँ,
नहीं भगति-लवलेस ॥२॥
एक जु तन सत्संग रंग रँगि,
रहतौ अति सुख पूर ।
जनम सफल कर लेतौ ब्रज बसि,
जहँ ब्रज जीवनमूर ॥३॥
द्वै तन बिन द्वै काज न ह्वैहैं,
आयु सु छिन-छिन छीजै ।
नागरिदास एक तनते अब,
कहौ कहा करि लीजै ॥४॥