मयमतम् - अध्याय १५

The Mayamatam is a vastusastra. Mayamatam gives indications for the selections of a proper orientation, right dimensions, and appropriate materials.


स्तम्भलक्षण

स्तम्भ के लक्षण - मैं (मय ऋषि) अन्य लक्षणों के साथ स्तम्भों की लम्बाई, चौड़ाई, आकृति एवं उनके अलङ्करण आदि का संक्षेप मे सम्यक्‍ रूप से क्रमशः वर्णन कर रहा हूँ ॥१॥

स्थाणु, स्थूण, पाद, जङ्घा, चरण, अङ्‌घ्रिक, स्तम्भ, तलिप एवं कम्प (स्तम्भ के) पर्यायवाची शब्द है ॥२॥

स्तम्भमान

स्तम्भ का प्रमाण - बारह तल के भवन में भूतल पर बनने वाले स्तम्भ की ऊँचाई आठ हाथ एक बित्ता (साढ़े आठ हाथ) होनी चाहिये । प्रत्येक तल पर एक-एक बित्ता कम करते हुये सबसे ऊपर के तल पर तीन हाथ ऊँचाई होनी चाहिये ॥३॥

अथवा स्तम्भ की ऊँचाई का मापन दिये गये माप से (दूसरे ढंग से) करना चाहिये । अधिष्ठान की ऊँचाई का दुगुना माप स्तम्भ का रखना चाहिये ॥४॥

(बारह तल के भवन में) स्वयम्भू के अनुसार स्तम्भ की ऊँचाई अधिष्ठान के दुगुने से अधिक होनी चाहिये । भूतल के स्तम्भ का विस्तार अट्ठाईस मात्रा (अङ्गुल-माप) होना चाहिये ॥५॥

प्रत्येक तल मे उपर्युक्त माप से दो-दो अङ्गुल कम करते हुये ऊपर के तल में स्तम्भ की चौडाई का माप प्राप्त होता है । अथवा स्तम्भ की ऊँचाई का दसवाँ, नवाँ या आठवाँ भाग उसकी चौड़ाई का माप होना चाहिये ॥६॥

अथवा स्तम्भ का विस्तार आधा, तीन भाग कम अथवा चतुर्थांश कम रखना चाहिये । भित्ति-स्तम्भ के विस्तार से भित्ति-विष्कम्भ का विस्तार दुगुना, तीन गुना, चार गुना, पाँच गुना या छः गुना रखना चाहिए । स्तम्भ-स्थापन-विधि के ज्ञाता अधिष्ठान के ऊपर स्तम्भ के स्थापन के समय होम करने का विधान बतलाते है ॥७-८॥

स्तम्भ के भेद - प्रतिस्तम्भ के प्रति के ऊपर एवं उत्तर (भित्ति) के नीचे निर्मित किया जाता है । जन्म (अधिष्ठान का एक भाग) के ऊपर स्तम्भ को स्थापित किया जाता है एवं उसकी चौड़ाई उसकी ऊँचाई के तीसरे भाग के बराबर होती है ॥९॥

(निखातस्तम्भ के लिये) गहरा गर्त बनाकर उसके ऊपर तल का निर्माण किया जाता है (पुनः स्तम्भ-स्थापन होता है) । पादुक से लेकर उत्तर-भित्ति के मध्य में स्थित इस स्तम्भ का निखातस्तम्भ कहते है ॥१०॥

अधिष्ठान से प्रारम्भ होकर उत्तरभित्ति के मध्य में स्थिर स्तम्भ को झषाल स्तम्भ कहते है । यह स्तम्भ मूल की अपेक्षा ऊर्ध्व भाग में छः-बारह भाग कम चौड़ा होता है ॥११॥

(बारह मञ्जिल के भवन में) भूतल में स्तम्भ की चौड़ाई उसकी ऊँचाई का छठवाँ भाग होना चाहिये । ऊपर के तलों में भी स्तम्भों की ऊँचाई एवं चौड़ाई में यही अनुपात होना चाहिये ॥१२॥

मुल से लेकर ऊपर तक चौकोर तथा कुम्भ एवं मण्डि से युक्त स्तम्भ को ब्रह्मकान्त कहा जाता है तथा आठ कोण वाले स्तम्भ को विष्णुकान्त कहते है ॥१३॥

षट्‍कोण वाला स्तम्भ इन्द्रकान्त संज्ञक होता है । सोलह कोण वाला स्तम्भ सौम्य कहलाता है । (कोण वाले स्तम्भों मे) मूल में चौकोर होता है । इसके पश्चात्‍ अष्टकोण, षोडशकोण अथवा वृत्ताकार होता है । इसकी संज्ञा पूर्वास्त्र होती है । वृत्ताकार स्तम्भ यदि कुम्भ एवं मण्डि से युक्त हो तो उसकी संज्ञा रुद्रकान्त होती है ।॥१४-१५॥

यदि स्तम्भ की लम्बाई विस्तार से दुगुनी हो, मध्य में अष्टकोण एवं ऊपर तथा नीचे चौकोर हो तथा कुम्भ एवं मण्डि से रहित हो तो उसे 'मध्ये अष्टास्त्र' कहा जाता है ॥१६॥

रुद्रच्छन्द संज्ञक स्तम्भ (मूल से क्रमशः ऊपर की ओर) चतुष्कोण, अष्टकोण एवं वृत्ताकार होता है । पद्मासन संज्ञक स्तम्भ के मूल में पद्मासन की रचना की जाती है, जिसका प्रमाण डेढ़ दण्ड अथवा दो दण्ड ऊँचा एवं उसका दुगुना चौड़ा होता है । इसके ऊर्ध्व भाग में इच्छानुसार आकृति अथवा मण्डि का निर्माण करना चाहिये । ॥१७-१८॥

भद्रक संज्ञक स्तम्भ के मूल में पद्मासन, चक्रवाक की आकृति से युक्त दो मण्डि एवं मध्य में भद्र निर्मित होता है ॥१९॥

जिसके मूल में व्याल, गज, सिंह, एवं भूत आदि (अन्य प्राणी) अलंकृत हो एवं ऊपर इच्छानुसार आकृति का निर्माण किया गया हो, उस स्तम्भ को उसके अलङ्कार के अनुसार संज्ञा दी जाती है ॥२०॥

जिस स्तम्भ पर लम्बाई में हाथे का सूँड़ निर्मित हो एवं कुम्भ तथा मण्डि से युक्त हो, उसे शुण्डपाद स्तम्भ कहते है ॥२१॥

शुण्डपाद में जब पूरे स्तम्भ में मोतियाँ उत्कीर्ण होती है तो उसे पिण्डिपाद कहते है । (चित्रखण्ड संज्ञक स्तम्भ के) अग्र भाग (ऊपरी भाग) में दो दण्ड से चौकोर निर्मित होता है । उसके नीचे आधे दण्ड से अष्टकोण पद्म होता है । उसके नीचे एक दण्ड माप का सोलह कोण पद्म तथा उसके नीचे एक दण्डप्रमाण का चौकोर मध्य पट्ट होता है । इसके पश्चात्‌ (नीचे) पहले के सदृश षोडश कोण पद्म निर्मित होता है । मूल में शेष भाग चौकोर होता है । इस स्तम्भ को चित्रखण कहते है । इसी में यदि मध्य पट्ट अष्टकोण हो तो उसे श्रीखण्ड स्तम्भ कहते है ॥२२-२३-२४-२५॥

उपर्युक्त स्तम्भ में यदि मध्य पट्ट सोलह कोण हो तो उसकी संज्ञा श्रीवज्र होती है । (क्षेपण स्तम्भ के) अग्र भाग की आकृति चौकोर होती है । जिसमें तीन पट्ट से युक्त क्षेपण निर्मित होता है, उसे क्षेपण स्तम्भ कहते है । इसके पट्ट पत्र आदि से अलंकृत होते है । उसके नीचे तीन अथवा चार भाग मे शिखा का मान रक्खा जाता है । सभी स्तम्भ पोतिका से युक्त एवं विभिन्न प्रकार की आकृतियों से सुसज्जित होते है ॥२६-२७॥

दण्डलक्षण

दण्ड का लक्षण - स्तम्भ के अग्र (ऊर्ध्व) भाग की चौड़ाई को दण्ड कहते है । भवन के सभी भागों का प्रमाण दण्डमान से मापा जाता है ॥२८॥

कलश के लक्षण - कलशों के नाम क्रमशः श्रीकर, चन्द्रकान्त, सौमुख्य एवं प्रियदर्शन है । इनका माप (चौड़ाई में) सवा दण्ड, डेढ़ दण्ड, पौने दो दण्ड तथा दो दण्ड एवं इसके दुगुना ऊँचा होता है ॥२९-३०॥

स्तम्भ के ऊर्ध्व भाग से पोतिका, खण्ड, मण्डि, कुम्भ, स्कन्ध, पद्म एवं मालास्थान का क्रमशः निर्माण करना चाहिये ॥३१॥

कुम्भ की ऊँचाई के नौ भाग करने चाहिये । इसमें एक भाग से धृग, चार भाग से कमल, एक भाग से कण्ठ, एक भाग से मुख, एक भाग से पद्म, आधा भाग से वृत्त एवं आधा भाग से दो हीरकों का निर्माण करना चाहिये । हीरकों का व्यास स्तम्भ की चौड़ाई के बराबर एवं मुख उसके कर्ण तक विस्तृत होना चाहिये ॥३२-३३॥

कर्ण फलक के बराबर चौड़ा होना चाहिये एवं कर्ण के बराबर कुम्भ का विस्तार रखना चाहिये अथवा फलक का विस्तार चार दण्ड या तिन दण्ड होना चाहिये ॥३४॥

अथवा साढ़े तीन दण्ड विस्तार होना चाहिये एवं उसकी ऊँचाई तीन दण्ड रखनी चाहिये । ऊँचाई को तीन बराबर भागों में बाँटना चाहिये । ऊर्ध्व भाग की निर्मिति (उत्सन्धि) एक भाग से करनी चाहिये ॥३५॥

एक भाग से वेत्रं एवं एक भाग से अन्दर की ओर मुड़ा पद्म होना चाहिये । वह कुम्भ स्तम्भ की आकृति के समान वेत्र से नागवक्त्र के आकार का होना चाहिये ॥३६॥

स्तम्भ के विस्तार के समान धृक्‌, कण्ठ एवं वीरकाण्ड का विस्तार रखना चाहिये । सभी स्तम्भों का वीरकाण्ड चौकोर होना चाहिये ॥३७॥

उसकी (वीरकाण्ड की) ऊँचाई से पौन भाग कम (एक चौथाई अथवा) एक दण्ड ऊँचा स्कन्ध होना चाहिये । उसके नीचे उसके आधे माप का पद्म होना चाहिये, जो पत्रों से अलंकृत हो । उसके नीचे माला-स्थान होना चाहिये, जो दण्डप्रमाण ऊँचा हो ॥३८॥

पोतिका

पोतिका (स्तम्भ का ऊपरी भाग, जो स्तम्भ से बाहर निकला हो) का विस्तार स्तम्भ के विस्तार के बराबर होना चाहिये एवं उसकी ऊँचाई भी विस्तार के बराबर होनी चाहिये ॥३९॥

उत्तम पोतिका की चौड़ा पाँच दण्ड एवं उसकी ऊँचाई की आधी होनी चाहिये । कनिष्ठ पोतिका की चौड़ाई तीन दण्ड एवं मध्यम पोतिका की चौड़ाई तीन भाग कम चार दण्ड होनी चाहिये । (स्तम्भ का) पूर्वोक्त प्रमाण मण्डी एवं कुम्भ के साथ चार गुना हो जाता है ॥४०-४१॥

(मण्डी, कुम्भ आदि से रहित) केवल स्तम्भ का माप तिन गुना होता है । सभी पादों का यथोचित माप वर्णित किया गया है ॥४२॥

पोतिका की ऊँचाई के तीसरे या चौथे भाग के बराबर पोतिका के ऊपर अग्रपट्टिका निर्मित होती है । इसका छायामान आधा, दो-तिहाई अथवा तीन-चौथाई होना चाहिये ॥४३॥

तीन भाग अथवा चौथे भाग में तरङ्ग-स्थान (लहरों की रचना) होना चाहिये । यह क्षुद्र-क्षेपण, मध्य पट्ट एवं पट्टो से अलंकृत होना चाहिये ॥४४॥

सभी लहरें सम एवं एक-दुसरे से हीन नही होती है । इनका अग्र भाग एवं निष्क्राम (प्रथम छोर से अन्तिम छोर) अपने विस्तार का आधा अथवा तीसरे भाग के बराबर होना चाहिये ॥४५॥

इसके ऊर्ध्व भाग में सर्प की कुण्डली के सदृश मुष्टिबन्ध होना चाहिये, जो नालियों के सहित समतल एवं नाटकों (नाट्य चित्रो) से युक्त हो ॥४६॥

पोतिका के ऊर्ध्व भाग में भूत (जीव-जन्तु), गज, मकर एवं व्याल आदि का अलङ्करण होना चाहिये । पोतिका का मध्य पट्ट दोनों पार्श्वों मे स्तम्भ के समान विस्तृत होना चाहिये ॥४७॥

जिस पोतिका की अग्रस्थ पट्टिका (ऊपरी पट्टी पर) रत्‍नजटित लता अङ्कित हो अथवा अनेक प्रकार के चित्रों से जिसकी सज्जा की गई हो, उसे चित्रपोतिका कहते है ॥४८॥

विभिन्न प्रकार के पत्रों से अलंकृत पोतिका को पत्रपोतिका कहते हैं । जिस पोतिका में सागर के लहरों के सदृश लहरें निर्मित हो, वह तरङ्गिणी पोतिका होती है । इन लहरों की संख्या चार, छः, आठ, दश या बारह होनी चाहिये । अथवा बहुत सी सम संख्याओं में लहरे होनी चाहिये, जो एक-दूसरे से आगे बढ़ती हुई हो ॥४९-५०॥

स्तम्भ के विषय में विशेष - भित्ति के स्तम्भ का निर्गम इस प्रकार होना चाहिये - यदि चतुष्कोण हो तो चौथाई, अष्टकोण हो तो आधा तथा वृत्ताकार हो तो तीन चौथाई ॥५१॥

स्तम्भान्तर दो हाथ से लेकर चार हाथ तक कहा गया है । छः-छः अङ्गुल की वृद्धि करते हुये इसके नौ भेद कहे गये हैं ॥५२॥

सभी स्थानों पर सभी भवनों मे यथोचित अंश (उपर्युक्त मापों में से) ग्रहण कर स्तम्भ एवं स्तम्भान्तर में प्रयोग करना चाहिये ॥५३॥

यदि स्तम्भ-स्थापन नियमानुकूल न हो तो वह भूमि एवं भवन (तथा उसके स्वामी) का विनाश करने वाला होता है । अनुकूल स्तम्भ-स्थापन कल्याण प्रदान करता है ॥५४॥

जितना विस्तृत काष्ठस्तम्भ होता है, उतना विस्तृत, उसका आधा, दुगुना या तीन गुना विस्तृत प्रस्तरस्तम्भ हो सकता है; किन्तु इसका प्रयोग केवल देवालय में होना चाहिये, मनुष्यालय मे नही होना चाहिये ॥५५॥

प्राचीन मनीषियों ने सभी स्तम्भों को ईट, प्रस्तर अथवा काष्ठ से निर्मित कहा है । देवगृहोंमे स्तम्भ की संख्या सम अथवा विषम हो सकती है; किन्तु मनुष्यों के गृह में स्तम्भों की संख्या विषम होनी चाहिये ॥५६॥

जिस प्रकार आजुसूत्र (मापसूत्र) हो, उसी के अनुसार अन्तःस्तम्भ एवं बहिःस्तम्भ का निर्माण करना चाहिये । उसी के अनुसार गृह की भित्ति के मध्य शालाओं की भी स्थिति होनी चाहिये ॥५७॥

यह माप देवालयों मे स्तम्भ के बाहर से लिया जाता है । (किन्तु) शयन एवं आसन के निर्माण में पाद (पाये = स्तम्भ) के अन्दर से लिया जाता है । (प्रासादों के निर्माण में ऊँचाई का माप) कुछ विद्वानों के अनुसार उपान से शिरःप्रदेश तक माप लेना चाहिये तथा कुछ के मतानुसार मापन कार्य प्रासाद की स्तूपी तक होना चाहिये । ॥५८॥

सभी स्थानों पर प्रासादों की ऊँचाई का माप इसी प्रकार लेना चाहिये, ऐसा मुनियों का मत है । सभागार एवं मण्डप में स्तम्भों के बाहर से अथवा स्तम्भ के मध्य से माप-सूत्र ले जाना चाहिये ॥५९॥

भवनों में मानसूत्र बाहर (भित्ति अथवा स्तम्भ के बाहर) से, भीतर से एवं मध्य से प्रयुक्त होना चाहिये । इस प्रकार का (विविध प्रकार से मानसूत्र का) प्रयोग सभी सम्पदाओं को प्रदान करने वाला होता है । इसके विपरीत (मानसूत्र द्वारा भली-भाँति मापन न करने पर) होने पर गृहस्वामी के लिये विपत्तिकारक होता है, ऐसा शास्त्रों का मत है ॥६०॥

द्रव्यपरिग्रहः

पदार्थों का संग्रह - स्तम्भ एवं उत्तर (स्तम्भ के ऊपर निर्मित भित्ति) आदि अङ्गों में प्रयुक्त होने वाले द्रव्य काष्ठ, प्रस्तर एवं ईटे है ॥६१॥

वृक्षलक्षण

वृक्ष के लक्षण - (भवनों में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ के गुण-धर्म इस प्रकार है-) स्निग्धसार (ठोस एवं चिकना), महासार (अत्यन्त दृढं) न ही बहुत पुराना तथा न ही अपरिपक्व हो, टेढ़ा न हो तथा वृक्ष में किसी प्रकार का चोट एवं दोष न हो; ऐसा वृक्ष गृहनिर्माण में ग्रहण करने योग्य होता है ॥६२॥

पवित्र स्थल, पर्वत, वन एवं तीर्थों मे स्थित, देखने में सुन्दर तथा मन को आकृष्ट करने वाले वृक्ष सभी प्रकार की सम्पत्ति एवं समृद्धि प्रदान करने वाले होते है, इसमेम सन्देह नही है ॥६३॥

स्तम्भ में प्रयोग के योग्य वृक्ष इस प्रकार है - पुरुष, कत्था, साल, महुआ, चम्पक, शीशम, अर्जुन, अजकर्णी, क्षीरिणी, पद्म, चन्दन, पिशित, धन्वन, पिण्डी, सिंह, राजादन, शमी एवं तिलक । इसी प्रकार निम्ब, आसन, शिरीष, एक, काल, कट्‌फल, तिमिस, लिकुच, कटहल, सप्तपर्णक, भौमा एवं गवाक्षी के वृक्ष भी ग्रहण करने योग्य होते है ॥६४-६५-६६॥

शिलालक्षणम्‍

शिला के लक्षण - शुभ शिला एक रंग की, दृढ़, (किन्तु छूने पर) चिकनी, छूने पर अच्छी लगने वाली, भूमि में गड़ी होने पर पूर्वमुख अथवा उत्तर की ओर मुख वाली होती है ॥६७॥

इष्टकालक्षण

ईटो के लक्षण - इष्टकाये स्त्रीलिङ्ग, पुँल्लिङ्ग, एवं नपुंसक लिङ्ग की होती है । इन्हे दोषहीन, घनी (जिसमें मिट्टी खूब दबा कर बैठायी गई हो), आग मे चारो ओर समान रूप से पकी हो, (बजाने पर) सुन्दर स्वर वाली, दरार, टूटन तथा छिद्ररहित होनी चाहिये । (ये लक्षण) स्त्रीलिङ्ग, एवं पुँल्लिङ्ग (दोनो) इष्टकाओं के लिये कहे गये है ॥६८-६९॥

इस प्रकार के इन पदार्थो से निर्मित भवन निश्चित रूप से धर्म, अर्थ एवं काम के सुख को प्रदान करने वाला होता है ॥७०॥

वर्ज्या वृक्षाः

त्याज्य वृक्ष - गृहनिर्माण में त्याज्य वृक्ष इस प्रकार है - देवालय के निकट स्थित वृक्ष, शस्त्रादि से आहत वृक्ष, आकाशीय बिजली से जला हुआ वृक्ष, वन की अग्नि से जला हुआ तथा प्रेतस्थल पर उगा हुआ वृक्ष (भवन के काष्ठ के लिये) ग्राह्य नही होता है ॥७१॥

प्रधान मार्ग पर उगा हुआ वृक्ष, ग्राम में उत्पन्न वृक्ष, घट के जल से सिञ्चित वृक्ष तथा पक्षियों एवं पशुओं से सेवित वृक्ष गृहनिर्माण के लिये ग्राह्य नही होता है ॥७२॥

वायु द्वारा तोड़ा गया, गजों द्वारा तोड़ा गया, समाप्त जीवन वाला, चण्डालवर्ग के लोगों को शरण देने वाला तथा जिस वृक्ष के नीचे (चण्डालवर्ग को छोड़ कर) अन्य सभी वर्ग के लोग शरण लेते हो (इस वर्ग के वृक्ष भी भवन के लिये अग्राह्य होते है) ॥७३॥

दो वृक्ष आपस में लिपटे हुये हो, टूटे हो, दीमक लगे हो, उस वृक्ष से घनी लता लिपट हो तथा उस वृक्ष पर पक्षियों के घोसले हो इस प्रकार के वृक्ष भवन के लिये अग्राह्य होते है ॥७४॥

जिस वृक्ष के सभी अङ्गो पर अङ्कुर निकले हो, भ्रमरो तथा कीटों से दोषयुक्त, विना समय फलने वाले तथा श्मशान के समीप उगे वृक्ष (गृहनिर्माण के लिये) ग्राह्य नही होते है ॥७५॥

सभागार एवं चैत्य (ग्राम का पूजनीय स्थल) के समीप तथा देवालय के समीप उगे वृक्ष तथा वापी, कूप एवं तालाब आदि निर्माण-स्थलों पर उगे वृक्ष भी (भवन निर्माण के लिये) ग्राह्य नही होते है ॥७६॥

अग्राह्य वृक्षादि से निर्मित पदार्थ (जब भवन मे प्रयुक्त होते है तो) सभी प्रकर की विपत्तियों के कारक बनते है । इसलिये प्रयत्नपूर्वक शुद्ध पदार्थों को ही लेना चाहिये ॥७७॥

प्रस्तर का प्रयोग देवालय, ब्राह्मण, राजा तथा पाषण्डियों (विधर्मी) के गृह में होना चाहिये; किन्तु वैश्य एवं शूद्र के भवन में नही करना चाहिये ॥७८॥

यदि उस प्रकार का (वैश्य एवं शूद्र के भवन में शिलाप्रयोग) भवन निर्मित किया गया तो वह धर्म, काम एवं अर्थ का नाश करता है । एक पदार्थ से निर्मित भवन की संज्ञा 'शुद्ध' दो द्रव्य से निर्मित भवन 'मिश्र' तथा तीन द्रव्य-मिश्रित पदार्थ से निर्मित भवन की संज्ञा 'सङ्कीर्ण' होती है । पहले वर्णित नियमों के अनुसार निर्मित भवन सम्पत्ति प्रदान करता है ॥७९-८०॥

वृक्षसंग्रहण

काष्ठ हेतु वृक्ष का संग्रह - (गृहनिर्माण हेतु काष्ठ के संग्रह के लिये) पदार्थों की कामना रखने वाले (गृहस्वामी) को शुभ कृत्य करके सर्वद्वारिक नक्षत्र में शुभ (शुक्ल) पक्ष में एवं शुभ मुहूर्त मे वन की ओर प्रस्थान करना चाहिये ॥८१॥

अच्छे लक्षणों वाले शकुनों एवं मङ्गलध्वनि के साथ वनदेवताओं एवं सभी अभीष्ट वृक्षों की गन्ध, पुष्प, धूप, मांस, खिचड़ी, दूध, भात, मछली एवं विविध प्रकार की भोज्य सामग्रियों से पूजा करनी चाहिये ॥८२-८३॥

(वृक्षों में निवास करने वाले) भूतों (प्रेत, पिशाच, ब्रह्म आदि) के लिये क्रूर बलि (रक्त, मांस आदि) देकर अपने कार्य के अनुकूल वृक्ष का चयन करना चाहिये । ये वृक्ष जड़ से शिरोभाग तक सीधे, गोलाकार एवं अनेक शाखाओं से युक्त होने चाहिये ॥८४॥

उपर्युक्त वृक्ष 'पुरुष' होते है । जो वृक्ष मूल में स्थूल एवं ऊर्ध्व भाग में पतले होते है, वे 'स्त्री' वृक्ष हैं तथा जिनका मूल कृश एवं ऊर्ध्व भाग स्थूल हो, वे वृक्ष 'षण्ड' (नपुंसक) होते है ॥८५॥

'मुहूर्तस्तम्भ' (शिलान्यास के स्थान पर स्थापित होने वाला स्तम्भ) पुरुष वृक्ष का होना चाहिये । गृह के अन्य भागों के लिये पुरुष, स्त्री एवं षण्ड तीनों वृक्षों का प्रयोग हो सकता है ॥८६॥

(काष्ठानयन के लिये गये व्यक्ति को) बुद्धिमान एवं पवित्र व्यक्ति (स्थपति) को वृक्ष के नीचे पूर्व दिशा में कुश बिछा कर एवं अपने दाहिने भाग में परशु रख कर रात्रि में वही शयन करना चाहिये ॥८७॥

इसके पश्चात्‍ रात्रि (शेष रहने पर) शुद्ध जल पीकर पश्चिमाभिमुख होकर सुन्दर वेष धारण कर हाथ में परशु लेकर स्थपति को इस प्रकार मन्त्रपाठ करना चाहिये ॥८८।

अयं मन्त्रः-

इस वृक्ष से भूत-प्रेत, देवता, गुह्यक आदि दूर हो जायँ । हे वृक्षों! आपको सोम देवता बल प्रदान करें ॥८९॥

हे वृक्षों, देवों एवं उनके साथ गुह्यकों! (हमारा) कल्याण हो । मैं अपना (इन काष्ठों से गृहनिर्माणरूपी) कार्य सिद्ध करना चाहता हूँ । आप दूसरे स्थान पर निवास ग्रहण करें ॥९०॥

इस प्रकार मन्त्र बोल कर पवित्र स्थपति वृक्षों को प्रणाम करके दूध, तेल एवं घी से परशु (फरसा, कुल्हाड़ी) के मुख (धार) को भली)भाँति तेज करे ॥९१॥

(परशु को तेज करके) उस अभीष्ट वृक्ष के पास उसे काटने के लिये जाना चाहिये । उस वृक्ष के मूल से एक हाथ छोड़कर तीन बार (परशु द्वारा) छेद कर उसका निरीक्षण करना चाहिये ॥९२॥

कटे स्थान से यदि जल बहे तो वह वृक्ष गृहस्वामी को वृद्धि प्रदान करता है । यदि दूध का स्त्राव हो तो पुत्रों की वृद्धि प्रदान करने वाला तथा रक्त का (लाल वर्ण का स्त्राव) स्त्राव गृहस्वामी को मृत्यु प्रदान करने वाला होता है । ऐसे वृक्ष को प्रयत्नपूर्वक छोड़ देना चाहिये ॥९३॥

कटे वृक्ष के गिरने के समय यदि सिंह, शार्दूल एवं गज के स्वर सुनाई पड़े तो शुभ होता है । इसके विपरीत विद्वानों ने रोदन, हँसने, आक्रोशपूर्ण एवं गुञ्जन के स्वर को निन्दनीय कहा है ॥९४॥

वृक्ष यदि पूर्व या उत्तर दिशा की ओर अभिमुख होकर गिरे तो दोनो दिशायें शुभ होती है । अन्य दिशाओं में वृक्ष का पतन विपरीत परिणाम प्रदान करता है ॥९५॥

यदि साल, अश्मरी एवं अजकर्णी वृक्षों का ऊर्ध्व भाग गिरे तो शुभ; किन्तु यदि पतन होते समय ऊपरी भाग नीचे एवं पृष्ठ या मूल भाग ऊपर होकर गिरे तो गृहस्वामी के बन्धु-बान्धवों एवं परिचारोंका विनाश होता ॥९६॥

काटने के पश्चात्‍ अन्य वृक्षो के मध्य गिरता हुआ वृक्ष यदि अन्य वृक्षों के शीर्ष भाग से सहारा पाकर गिरने से रुक जाता है तो गृहस्वामी का विनाश होता है तथा जड़ के सहारे रुकने पर गृहस्वामी के अस्वास्थ्य का कारण बनता है ॥९७॥

यदि वृक्ष का मध्य भाग टूट जाय तो वृक्ष काटने वाले का नाश होता है तथा शीर्ष भाग के टूटने पर सन्तति का नाश होता है । वृक्षों का एक-दूसरे पर गिरना (एक वृक्ष के ऊपर दूसरे कटे वृक्ष का गिरना) प्रशस्त होता है । वृक्षों के दोनों भागों को बराबर काटना चाहिये ॥९८॥

(कटे वृक्ष के दोनों छोरों को बराबर काट कर) काष्ठ को चौकोर एवं सीधा बनाना चाहिये तथा उसे मुहूर्तस्तम्भ के लिये ग्रहण करना चाहिये । तत्पश्चात्‍ उस काष्ठ को श्वेत वस्त्र से ढँककर स्यन्दन (रथ, गाड़ी) मे रखना चाहिये ॥९९॥

देवों, ब्राह्मणों, राजाओं एवं वैश्यों का काष्ठ शकट (गाड़ी) द्वारा ले लाया जाना चाहिये तथा बुद्धिमान व्यक्ति को शूद्र के गृह का काष्ठ पुरुष के कन्धों द्वारा ढ़ोकर ले जाना चाहिये ॥१००॥

वृक्षों (काष्ठों) को लिटा कर दोनों पार्श्वों से शकट में रखना चाहिये । स्थपति द्वारा चुने गये वृक्षों को प्रशस्त द्वारा द्वारा (कर्ममण्डप में) प्रवेश कराना चाहिये ॥१०१॥

कर्ममण्डप (कार्यशाला) में वृक्षों का प्रवेश कराकर उन्हें बालू पर लिटा देना चाहिये । उनका शीर्ष भाग पूर्व अथवा उत्तर की ओर होना चाहिये । इनके सूखने तक इनकी रक्षा करनी चाहिये ॥१०२॥

छः मासों तक इन वृक्षों को अपने स्थान से नहीं हिलाना चाहिये । इसी प्रकार सभी इन्द्रकीलों (कीलों) को भी प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना चाहिये ॥१०३॥

अन्य धातु आदि पदार्थों का संग्रह करके उन्हें भी इसी प्रकार करना चाहिये । ॥१०३॥

मुहूर्त्तस्तम्भ

मुहूर्त-स्तम्भ - देवों एवं द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के मुहूर्तस्तम्भ (का काष्ठ) क्रमशः इस प्रकार होता है- कार्तमाल, खदिर, खादिर, मधूक एवं राजादन । इनका विस्तार एवं लम्बाई क्रमशः इस प्रकार वर्णित है ॥१०४-१०५॥

इनकी ऊँचाई (या लम्बाई) बारह, ग्यारह, दश या नौ वितस्ति (बित्ता) एवं विस्तार भी इतने ही अंगुल का होता है । इसके अग्र भाग (शीर्ष भाग) का विस्तार दश भाग कम होता है ॥१०६॥

गर्त में रहने वाले मूल भाग की चौड़ाई पाँच, साढ़े चार, चार या तीन बित्ता होनी चाहिये । अथवा स्तम्भ की ऊँचाई एवं चौड़ाई भवन के तल के अनुसार रखनी चाहिये ॥१०७॥

झषालाङ्‌घ्रि स्तम्भ में सभी स्थानों पर गर्त का परित्याग करना चाहिये ॥१०७॥

अश्वत्थ (पीपल), उदुम्बर (गूलर), प्लक्ष (पाकड़), वट (बरगद), सप्तपर्ण, बिल्व (बेल), पलाश, कुटज, पीलु, श्लेष्मातकी (लिसोढ़ा), लोध्र, कदम्ब, पारिजात, शिरीष, कोविदार (कचनार), तिन्त्रिणी, महाद्रुम, शिलीन्ध्र, सर्पमार, शाल्मली (सेमल), सरल (चीड़), किंशुक, अरिमेद, अभया, अक्ष, आमलकद्रुम, कपित्थ (कैथा), कण्टक, पुत्रजीव, डुण्डुक, कारस्कर, करञ्ज, वरण, अश्वमारक, बदर, बकुल, पिण्डी, पद्मक, तिलक, पाटली, अगरु तथा कपूर के वृक्षों का प्रयोग गृहनिर्माण मे नही करना चाहिये । ये सभी वृक्ष देवों के योग्य है; लेकिन मनुष्यों लिये अनर्थकारक होते है । इसलिये मनुष्यों के गृह-निर्माण के लिये इनको प्रयत्‍नपूर्वक नहीं ग्रहण करना चाहिये अर्थात्‍ इन वृक्षकाष्ठों का परित्याग कर देना चाहिये ।॥१०८-१०९-११०-१११-११२-११३॥

इष्टकासंग्रहणम

ईंटों का संग्रह - (मृत्तिका चार प्रकार की होती है-) ऊषर (लोनी, नमकीन), पाण्डुर (सफेद), कृष्ण-चिक्कण (काली और चिकनी) एवं ताम्रपुल्लक (लाल वर्ण की खिली हुई) ॥११४॥

मृत्तिकायें चार प्रकार की होती है । इनमें ताम्रपुल्लक मृत्तिका इष्टकादि के लिये ग्रहण करने योग्य होती है । इसमें कंकड़, पत्थर, जड़ एवं अस्थि के टुकड़े नही होने चाहिये; साथ ही इसमें महीन बालू होना चाहिये ॥११५॥

यह मृत्तिका एक रंग की एवं छूने में सुखद होनी चाहिये । लोष्ट (टाइल्स) एवं ईट के निर्माण के लिये (गर्त में) घुटने के बराबर जल में मिट्टी डालनी चाहिये ॥११६॥

मिट्टी एवं पानी को अच्छी तरह से मिलाकर पैरों से चालीस बार उनका मर्दन करना चाहिये । इसके पश्चात्‍ क्षीरद्रुम, कदम्ब, आम, अभया एवं वृक्ष के छाल के जल से एवं त्रिफला के जल से सिञ्चित कर तीस बार मर्दन करना चाहिये अर्थात्‍ पैरों से सानना चाहिये ॥११७॥

(उपर्युक्त विधि से तैयार की गई मिट्टी से) चार, पाँच, छः या आठ अङ्गुल चौड़ी, चौड़ाई की दुगुनी लम्बी तथा चौड़ाई की चतुर्थांश, आधा अथवा तीसरे भाग के बराबर मोटी ईटो का निर्माण करना चाहिये । इनकी मोटाई एक छोर से दूसरे छोर तक बराबर होती है । ईटों को पूर्ण रूप से सुखाकर पुनः इन्हें समान रूप से पकाया जाता है ॥११८-११९॥

इसके पश्चात्‍ एक, दो, तीन या चार मास बीत जाने पर बुद्धिमान (स्थपति) को ईटों को यत्‍नपूर्वक जल में डाल कर पुनः जल से निकालना चाहिये । जब ईटे सूख जायँ तब इच्छित निर्माणकार्य मे इनका प्रयोग करना चाहिये ॥१२०॥

इस प्रकार विधिपूर्वक वृक्ष (काष्ठ), ईट एवं शिला आदि लेकर भवननिर्माण करना चाहिये । श्रेष्ठ जन ऐसे भवन को समृद्धिदायक कहते है । जो पदार्थ निन्दित है अथवा दूसरे भवन से लिये गये है (पुरने भवन से निकले ईट, काष्ठ आदि), उनसे निर्मित भवन नष्ट हो जाते है तथा (गृहस्वामी के लिये) विपत्ति के कारण बनते है, ऐसा प्राचीन जनों का मत है ॥१२१॥

स्तम्भों की लम्बाई, मोटाई एवं आकारों का वर्णन उनके अलङ्कार एवं सज्जासहित क्रमानुसार किया गया है । मनुष्यों एवं देवों के गृह में विधिपूर्वक इनका प्रयोग सम्पत्ति प्रदान करता है, ऐसा मय द्वारा वर्णित है ॥१२२॥

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Last Updated : January 20, 2012

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