मयमतम्‌ - अध्याय २५

मयमतम्‌ नामक ग्रंथमे संपूर्ण वास्तुशास्त्रकी चर्चा की गयी है। संपूर्ण वास्तु निर्माणमे इस ग्रंथको प्रमाण माना गया है।


मण्डप का विधान - देवों, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों के अनुकूल मण्डपों का वर्णन उचित रीति से किया जा रहा है ॥१॥

मण्डपयोग्यदेश

मण्डप के अनुकूल स्थान (मण्डपों का स्थान) प्रासाद (देवालय) के अग्र भाग में, पुण्यक्षेत्र (तीर्थस्थल) में, आराम (उद्यान, पार्क) में, ग्राम आदि वास्तुक्षेत्र के बीच में, चारो दिशाओं एवं दिशाओं के कोणों में, गृहों के बाहर, भीतर, मध्य में एवं सामने होता है ॥२॥

मण्डप की आवश्यकता

(मण्डप के प्रयोजन इस प्रकार है-) वास के लिये मण्डप, यज्ञ-मण्डप, अभिषेक आदि उत्सवों के अनुरूप मण्डप, नृत्य के लिये मण्डप, वैवाहिक कार्य के लिये मण्डप, मैत्र (सामूहिक उत्सव, कार्यक्रम) एवं उपनयन संस्कार के योग्य मण्डप, आस्थान-मण्डप (राजा की सभा अथवा देवों के जन-सामान्य के दर्शन हेतु विशेष अवसरों पर निर्मित मण्डप), बलालोनक-मण्डप (सैन्य कार्यसम्बन्धी मण्डप), सन्धिकार्यार्हक मण्डप (जिस मण्डप में सन्धि आदि से सम्बन्धित कार्य सम्पन्न हो), क्षौर मण्डप (जहाँ मुण्डन आदि कार्य सम्पन्न हो) तथा भुक्तिकर्मसुखान्वित मण्डप (जहाँ समूहभोज एवं सुख उठाया जाय) ॥३-५॥

मण्डपों के नाम - अब उन मण्डपों के नामों का क्रमशः विधिपूर्वक उल्लेख किया जा रहा है । ये सोलह चतुष्कोण मण्डप है, जो देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के लिये होते है । (उनके नाम इस प्रकार है) - मेरुक, विजय, सिद्ध, पद्मक, भद्रक, शिव, वेद, अलंकृत, दर्भ, कौशिक, कुलधारिण, सुखाङ्ग, गर्भ, माल्य तथा माल्याद्भुत ॥६-७॥

धन, सुभूषण, आहल्य, स्त्रुगक, कोण, खर्वट, श्रीरूप एवं मङ्गल- ये आठ आयाताकार मण्डप देवता आदि के एवं राजाओं के अनुकूल होते है तथा वैश्य एवं शूद्रोम के अनुकूल मण्डपों के नाम इस प्रकार है - मार्ग, सौभद्रक, सुन्दर, साधारण, सौख्य, ईश्वरकान्त, श्रीभद्र तथा सर्वतोभद्र ॥८-१०॥

इनके स्तम्भों के भक्तिमान (विभाजन का प्रमाण) लम्बाई एवं चौडाई, इनके अधिष्ठान, आकार, प्रपा (निर्मिति विशेष), मध्यम रङ्ग, अलङ्कार, स्तम्भों के पक्ष (स्तम्भों की योजना) एवं उनकी आकृति- इन सभी का वर्णन अब मैं (मय ऋषि) करता हूँ ॥११-१२॥

भक्तिमान

भक्ति का प्रमाण, प्रमाणयोजना - डेढ़ हाथ से प्रारम्भ कर छः-छः अगुल बढ़ाते हुये पाँच हाथ तक पन्द्रह प्रकार के स्तम्भ-मान प्राप्त होते है । इसकी लम्बाई का मान चौड़ाई के भक्तिमान से ग्रहण किया जाता है । चौड़ाई से ग्रहण किये गये लम्बाई के मान के लिये चौड़ाई को एक, दो, तीन, चार या पाँच भाग में बाँटना चाहिये एवं लम्बाई को एक भाग अधिक होना चाहिये । अपने विस्तार के भक्तिमान से तीन-तीन अंगुल बढ़ाते हुये एक हाथ तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार लम्बाई के आठ प्रमाण प्राप्त होते है । इससे प्रमाणयोजना बनानी चाहिये तथा सभी लम्बे मण्डप इसी भक्तिमान से निर्मित होने चाहिये ॥१३-१६॥

स्तम्भमान

स्तम्भ-प्रमाण - ढाई हाथ से प्रारम्भ कर छः-छः- अंगुल बढ़ाते हुये आठ हाथ तक स्तम्भ की ऊँचाई ले जानी चाहिये । इस प्रकार स्तम्भ के तेईस प्रमाण बनते है । अथवा तीन-तीन अंगुल बढ़ाते हुये स्तम्भ का मान प्राप्त होता है ॥१७॥

स्तम्भ का विस्तार (घेरा) आठ अंगुल से प्रारम्भ कर आधा अंगुल बढ़ाते हुये उन्नीस अंगुल तक ले जाना चाहिये । इस स्तम्भ के मूल का विस्तार प्राप्त करने के लिये उसकी ऊँचाई के ग्यारह, दस, नौ या आठ भाग करने चाहिये एवं उसमें से एक कम करने पर (दस, नौ, आठ, सात भाग) मूल के विस्तार या परिधि का होता है ॥१८-१९॥

अधिष्ठानोत्सेध

अधिष्ठान की ऊँचाई - सामान्यतया सभी वास्तुओं मे स्तम्भ की ऊँचाई के आधे प्रमाण से अधिष्ठान का मान रक्खा जाता है । अथवा स्तम्भ की ऊँचाई के पाँच भाग करने पर अधिष्ठान दो भाग के बराबर रक्खा जाता है या स्तम्भ की ऊँचाई के तीन भाग करने पर एक भाग के बराबर अधिष्ठान रक्खा जाता है ॥२०-२१॥

उपपीठोत्सेध

उपपीठ की ऊँचाई - अधिष्ठान उपपीठ से युक्त या केवल अधिष्ठान (उपपीठरहित अधिष्ठान) होना चाहिये । उपपीठ ऊँचाई में अधिष्ठान के बराबर, उसका दुगुना या तीन गुना होता है । अथवा उसकी ऊँचाई उसी प्रकार रखनी चाहिये, जैसी उपपीठविधान के प्रसंग में वर्णित है । उपपीठ की ऊँचाई इच्छानुसार या आवश्यकतानुसार रखनी चाहिये । उपपीठ, तल (अधिष्ठान), स्तम्भ एवं प्रस्तर की सज्जा के विषय में पहले कहा जा चुका है । शेष यथावसर करना चाहिये ॥२२-२४॥

मण्डप का लक्षण - अधिष्ठान, उसके ऊपर स्तम्भ एवं प्रस्तर- इन तीन वर्गो से युक्त, कपोत एवं प्रति से युक्त निर्माण को मण्डप कहा जाता है ॥२५॥

मण्डपशब्दार्थ

मण्डप शब्द का अर्थ - मण्ड अर्थात अलङ्करण । उसकी जो रक्षा करता है, उसे मण्डप कहते है ।

प्रपालक्षण

प्रपा का लक्षण - सभी वर्णों के अनुकूल प्रपा के सामान्य स्वरूप का वर्णन करता हूँ । इसके स्तम्भ भूतल से प्रारम्भ होते है एवं इनके ऊपर उत्तर होते है । उत्तर (स्तम्भ के ऊपर भित्ति), उसके ऊपर ऊर्ध्ववंश (प्रधान वंश, छाजन के लट्ठे) होते है । इनके साथ प्राग्वंश (प्रधान वंश से जुड़े पूर्व की ओर जाने वाले अंश), अनुवंश (सहायक वंश) आदि होते है । प्रपा का आच्छादन नारियल के पत्ते तथा अन्य पत्तों से किया जाता है ॥२६-२७॥

स्तम्भों की लम्बाई पूर्ववर्णन के अनुसार रखनी चाहिये । स्तम्भ का विष्कम्भ (स्तम्भ का घेरा) चार, छः, आठ या दस अंगुल होना चाहिये । यह मान सारदारु (ठोस काष्ठ) से निर्मित स्तम्भ का कहा गया है । वंश-निर्मित स्तम्भ का मान भी यही है । जहाँ जैसी आवश्यकता हो, वहाँ वैसा निर्माण करना चाहिये ॥२८-२९॥

स्तम्भ की ऊँचाई के दस, नौ, आठ, सात, छः या पाँच भाग करना चाहिये ।

रङ्गलक्षण

रङ्ग का लक्षण - (पूर्ववर्णित भाग के बराबर) वेदिका की ऊँचाई होनी चाहिये । एक भाग से मध्य भाग में रङ्ग निर्मित करना चाहिये । स्तम्भ की ऊँचाई के चार भाग करने पर एक भाग से मसूरक (अधिष्ठान), दो भाग से स्तम्भ की लम्बाई एवं एक भाग से प्रस्तर निर्मित करना चाहिये ॥३०-३१॥

भवन-योजना सम संख्या मे हो या विषम संख्या में हो, रङ्ग की विशालता दो भाग या एक भाग रखनी चाहिये । आठ स्तम्भों से युक्त अथवा चार स्तम्भों से युक्त रङ्ग का निर्माण प्रपा आदि के समान करना चाहिये ॥३२॥

रङ्ग सभी अंगो से युक्त एवं मिश्रित पदार्थो से युक्त होता है । शाला, सभागार, प्रपा एवं मण्डपों के मध्य में- इन चार स्थलों पर रङ्ग का निर्माण होता है । इसका मान तीन प्रकार का कहा गया है ॥३३-३४॥

मालिकामण्डप

मालिका-मण्डप - मण्डप के ऊपर का तल मालिका मण्डप होता है । यदि मण्डप के दो तल हो तो वह शिखरयुक्त होता है । दोनों तलों के मध्य में स्थित भाग को प्रतिमध्य कहते है ॥३५॥

मेरुक

मेरुक - मेरुक मण्डप चौकोर, चार स्तम्भों से युक्त, एक भाग (भक्ति) माप का तथा आठ नासिकाओं से युक्त होता है । इसे ब्रह्मासन कहा गया है ॥३६॥

विजय - विजय संज्ञक मण्डप दो बक्ति से युक्त एवं चतुष्कोण होता है । यह आठ स्तम्भों एवं आठ नासियों से अलंकृत होता है । यह अधिष्ठान से युक्त एवं मध्य स्तम्भ से रहित होता है । विवाह के लिये नौ स्तम्भों से युक्त प्रपा निर्मित होनी चाहिये ॥३७-३८॥

सिद्ध

सिद्ध - सिद्ध संज्ञक मण्डप तीन भक्ति (प्रमाण की इकाई) वाला, चतुष्कोण, सोलह स्तम्भ से युक्त, सोलह नासिकाओं से युक्त एवं मध्य में आँगन से युक्त होना चाहिये, जिसके ऊपर मध्यभाग में कूट हो सकता है । चारो दिशाओं में चार द्वार हो । बाहरी द्वारों कोचार तोरणों से अलंकृत करना चाहिये । यह मण्डप देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के यज्ञ-कार्य के अनुकूल होता है । यह सिद्ध नामक मण्डप सभी कार्यों के अनुकूल कहा गया है ॥३९-४१॥

यागमण्डप

यज्ञमण्डप - बुद्धिमान स्थपति को मण्डप के भीतरी भाग को इक्यासी भागों में बाँटना चाहिये । मध्य के नौ भागों में वेदी होती है । चारो ओर तीन भाग छोड़कर मध्य में चौकोर, योनि के आकार का, अर्धचन्द्रकार, त्रिकोण, वृत्ताकार, षट्‍कोण, पद्मपुष्प के आकार का या अष्टकोण कुण्ड पूर्व दिशा से प्रारम्भ करते हुये निर्मित करना चाहिये ॥४२॥

कुण्डलक्षण

कुण्ड का लक्षण - (कुण्ड के लिये) एक हाथ चौड़ा तथा एक हाथ गहरा चौकोर गड्ढा निर्मित करना चाहिये । यदि इसे तीन मेखला से युक्त करना हो तो तीन सूत्र या दो मेखला से युक्त करना हो तो दो सूत्र खींचना चाहिये । इन मेखलाओं की ऊँचाई सात, पाँच या तीन अंगुल रखनी चाहिये ॥४३॥

उपर्युक्त मेखलाओं की चौड़ाई क्रमशः चार, तीन एवं दो अंगुल रखनी चाहिये । योनि की आकृति गज के ओष्ठ के समान निर्मित करना चाहिये । इसकी चौड़ाई, लम्बाई एवं गहराई क्रमशः चार, छः एवं एक अंगुल रखनी चाहिये तथा इसे अग्नि की ओर होना चाहिये ॥४४॥

कुण्ड के मेखलाओं की ऊँचाई चार, तीन या दो अंगुल होनी चाहिये । अथवा कुण्ड की गहराई एक बित्ता हो एवं एक मेखला से युक्त हो । सभी कुण्डों की योनि कोने में नही होनी चाहिये ॥४५॥

कुण्ड का केन्द्र (नाभि) कमल के समान होना चाहिये । इसकी आकृति वृत्त के समान होनी चाहिये । इसका व्यास चार, पाँच या छः अंगुल होना चाहिये तथा इसकी ऊँचाई चार या तीन भाग होनी चाहिये ॥४६॥

योनिकुण्ड

योनि की आकृति का दण्ड - कुण्ड के पूर्व भाग को पाँच भागों में बाँटना चाहिये । कोण से आधा भाग ग्रहण कर (सीधी रेखा द्वारा उत्तर एवं दक्षिण के) मध्य भाग को जोड़ना चाहिये । इसके पश्चात् (उत्तर, पश्चिम) कोण को गोलाई से घेरना चाहिये । इसी प्रकार दूसरी ओर भी करना चाहिये अर्थात् दक्षिण-पश्चिम के कोण को भी गोलाई से घेरना चाहिये । इस प्रकार दो सूत्रों के प्रयोग से योनि की आकृति निष्पन्न होती है ॥४७॥

अर्धचन्द्रकुण्ड

अर्धचन्द्रकार कुण्ड - कुण्ड के व्यास के दसवे भाग में ऊपर एवं नीचे (बिन्दु बनाना चाहिये । उस बिन्दु से) ज्यासूत्र (सीधी रेखा) खींचना चाहिये । इस मान से अर्धचन्द्राकार रेखा खींचनी चाहिये । इस प्रकार वास्तुविद्या के ज्ञाता को अर्धचन्द्रकुण्ड निर्मित करना चाहिये ॥४८॥

त्र्यस्त्रकुण्ड

त्रिकोण कुण्ड - चौकोर क्षेत्र के व्यास के आठ भाग में छः भाग करके तीन सूत्रों से त्र्यस्त्र कुण्ड निर्मित होता है ।

वृत्तकुण्ड

वृत्ताकार कुण्ड - त्रिकोण कुण्ड का वर्णन किया जा चुका है । क्षेत्र को अट्ठारह भागों में बाँटना चाहिये । वृत्ताकार कुण्ड इस प्रकार निर्मित करना चाहिये (सुत्र इस प्रकार घुमाना चाहिये), जिससे कि कुण्ड एक भाग बाहर रहे ॥४९॥

छः कोण का कुण्ड - (चतुष्कोण) कुण्ड के क्षेत्र को पाँच भागों में बाँटना चाहिये । एक वृत्त इस प्रकार खींचना चाहिये, जिससे उसकी परिधि उन पाँच भागों से अधिक हो । इसके पश्चात् प्रत्येक भाग में मत्स्य की आकृति निर्मित करनी चाहिये । इस प्रकार छः सूत्रों के द्वारा षट्‌कोण कुण्ड निर्मित होता है ॥५०॥

पद्माकार कुण्ड - पूर्ववर्णित विधि से वृत बनाकर उसके मध्य में एक वृत्त निर्मित करना चाहिये । इसके पश्चात् मध्य से प्रारम्भ करते हुये पद्म का आकार एवं कर्णिका आदि जिस प्रकार बने, उस प्रकार विद्वान को पद्मकुण्ड निर्मित करना चाहिये । ॥५१॥

अष्टकोण कुण्ड - कुण्ड के क्षेत्र को चौबीस भागों में बाँटना चाहिये । एक भाग बाहर रहे, इस प्रकार एक वृत्त खींचना चाहिये । दोनों कोणों से एवं कोणों के अर्ध भाग से आठ सूत्रों (रेखाओं) से अष्टकोण कुण्ड निर्मित करना चाहिये ॥५२॥

सप्तास्त्रकुण्ड

सप्तकोण कुण्ड - कुण्ड के क्षेत्र को दस भागों में बाँटना चाहिये । उसमें एक वृत्त इस प्रकार खींचना चाहिये, जिससे एक भाग क्षेत्र के बाहर रहे । सात सूत्रों के प्रयोग से सप्तकोण कुण्ड निर्मित होता है, जिसका पट्टदैघ्य (सात कोणों का माप) तैतीस हो एवं क्षेत्र का माप चौसठ हो ॥५३॥

पञ्चास्रकुण्ड

पञ्चकोण कुण्ड - कुण्ड के क्षेत्र को सात भागों में बाँटना चाहिये एवं उसमें एक वृत्त इस प्रकार खींचना चाहिये, जिससे उसका एक भाग बाहर रहे । पाँच सूत्रों के द्वारा पञ्चकोण कुण्ड बनाना चाहिये, जिससे पट्ट का आयाम चतुष्कोण का तीन चौथाई हो ॥५४॥

प्राप्त भागों के उतने भाग करके पहले के समान एक-एक भाग कम या अधिक करते हुये कोणों को परिधि के बराबर निर्मित करना चाहिये । इस प्रकार बुद्धिमान स्थपति को सभी प्रकार के कुण्डों की योजना करनी चाहिये ॥५५॥

पाँच में तीन चतुर्थांशयुक्त एक भाग, सात में दो भाग, सोलह में पाँच भाग, नौ में तीन चतुर्थांशयुक्त एक भाग, ग्यारह में डेढ़ भाग, तेरह में सवा एक भाग कहा गया है । पन्द्रह में एक भाग कम एवं सोलह भाग, सत्रह भाग तथा उन्नीस भाग में क्रमशः आठ भाग कम होना चाहिये ॥५६॥

सिद्ध

सिद्धमण्डप - यदि सिद्ध मण्डप को देवालय के सम्मुख स्थापित किया जाय तो उसमें अधिष्ठान, स्तम्भ, प्रस्तर एवं वर्ग देवालय के अंग के समान होने चाहिये । यह एक, दो या तीन द्वारों से युक्त हो एवं भित्ति पर कुम्भलता का अंकन होना चाहिये ॥५७-५८॥

मण्डप के मध्य में भद्रक (पोर्च) निर्मित करना चाहिये, जिसका व्यास स्तम्भ के व्यास का एक गुना (बराबर), दुगुना या तीन गुना रखना चाहिये । इसे तोरण से युक्त, सभी अंगों एवं देवों की आकृतियो से युक्त निर्मित करना चाहिये ॥५९॥

मण्डप की भित्ति का विष्कम्भ (मोटाई) प्रधान भवन (या देवालय) की मोटाई के बराबर तीन चौथाई अथवा तीन में दो भाग के बराबर होना चाहिये । यह सभी भवनों के सम्मुख अन्तराल (मार्ग) से युक्त एवं वेश (आच्छादित स्थल) से युक्त होना चाहिये ॥६०॥

पद्मक

पद्मक - चौकोर क्षेत्र को चार भक्ति (इकाई माप) एवं चार द्वार से युक्त करना चाहिये । मुखभाग एवं पृष्ठभाग पर दो भक्ति एवं एक भाग से निर्गम का विस्तार रखना चाहिये । मुखभाग एवं पृष्ठभाग पर दो भक्ति एवं एक भाग से निर्गम का विस्तार रखना चाहिये । मध्य भाग में स्तम्भ नही होना चाहिये एवं दो भक्ति से ऊर्ध्वकूट का निर्माण करना चाहिये ॥६१-६२॥

इसमें तिरेसठ स्तम्भ तथा अट्ठाईस अल्पनासिकायें (छोटी सजावटी खिड़कियाँ) होनी चाहिये । चारों दिशाओं में सोपान होने चाहिये एवं लाङ्गल के आकार की भित्ति होनी चाहिये । आठ पञ्जर (सजावटी अंग) होने चाहिये । पद्मक (कमलपुष्प के समान) इस मण्डप की संज्ञा पद्मक है । देवालय के सम्मुख यह मण्डप देवों के अभिषेक के लिये प्रशस्त होता है । यह एक मुख वाला हो तो मध्य में आँगन होना चाहिये । यह यज्ञकार्य के अनुकूल होता है एवं आठों दिशाओं में वारण (किसी भी दिशा में) हो सकता है ॥६३-६५॥

भद्रक

भद्रक - भद्रक मण्डप चौकोर होता है एवं इसका माप पाँच भाग रक्खा जाता है । मध्य भाग में तीन भाग से कूट एवं चारो ओर एक भाग से मण्डप निर्मित होता है । यह बत्ती स्तम्भों एवं चौबीस नासिकाओं से युक्त तथा आठ पञ्जरों से युक्त होता है । भित्ति कुम्भलता से सुसज्जित होती है ॥६६-६७॥

चारो दिशाओं में चार द्वार एवं कोनों पर लाङ्गलभित्ति (हल के आकार की भित्ति) होनी चाहिये । अथवा मध्य भाग में आँगन हो एवं तीन भक्ति (तीन ईकाई) विस्तर वाले स्तम्भों से युक्त रखना चाहिये । मण्डप को भवन के सतह के बराबर, दस या आठ भाग कम रखना चाहिये । यह मण्डप (देवादिकों के) स्नान के लिये एवं नृत्य के लिये अनुकूल होता है ॥६८-६९॥

शिव

शिव-मण्डप - यह छः भक्ति वाला चौकोर मण्डप होता है । इसमें आठ स्तम्भ एवं कूट होते है । यद दो भक्ति विस्तृत होता है एवं भाग से वक्रनिष्क्रान्त निर्मित होता है । इसमे मध्य भाग को छोड़कर साठ स्तम्भ, चौबीस नासियाँ होती है एवं यह सभी अलङ्कारों से सुसज्जित होता है । शिव नामक यह सभी भवनों के लिये सदा उपयुक्त होता है ॥७०-७१॥

वेद

वेद - यह चौकोर एवं सात भाग से युक्त होता है । यह साठ स्तम्भों से युक्त होता है । उसके मध्य में नौ भग से आँगन हो, जो कूट से अलंकृत हो (अथवा खुला हो) सकता है । इसमें बत्तीस नासियाँ एवं चारो दिशाओं में वारण होता है । ॥७२-७३॥

इस मण्डप को तीन भाग के माप वाले मुखभद्रक (सामने पोर्च) से युक्त करना चाहिये, जिसमें एक भाग से निर्गम निर्मित हो । इसे मध्य रङ्ग से युक्त एवं इच्छित दिशा में भित्ति से युक्त होना चाहिये । यह देवों एवं राजाओं का आस्थान मण्डप (जहाँ श्रोता-दर्शक बैठते है) है एवं अभिषेक आदि कार्यों के लिये उपयुक्त होता है । इसे वेद (मण्डप) कहा गया है ॥७४-७५॥

अलङ्कृत

अलंकृत - यह मण्डप चौकोर, आठ भक्तियुक्त एवं अस्सी स्तम्भों से युक्त होता है । इसमें चार भाग से ऊर्ध्वकूट एवं दो भागों से भद्रक निर्मित होना चाहिये । चारो दिशाओं में चार द्वार एवं बगल में सीढ़ी होनी चाहिये । सभी अलंकारो से युक्त इस मण्डप को अलंकृत कहा गया है ॥७६-७७॥

इसके ब्रह्मस्थल (केन्द्रभाग में) जलपाद (जल का स्थान) हो सकता है, जिसके चारो ओर एक भाग से पैदल चलने का मार्ग हो एवं दो भाग से ढँका हुआ मण्डप निर्मित हो । मुखभद्र पूर्व-वर्णित रीति से हो एवं अभीप्सित दिशा में भद्रक निर्मित हो । इसे ग्राम आदि के ब्रह्मस्थान (केन्द्र) में निर्मित करना चाहिये ॥७८-७९॥

दर्भ

दर्भ - यह मण्डप नौ भक्तिप्रमाण का एवं एक सौ स्तम्भों से युक्त होता है । इसका भद्र तीन भाग विस्तृत (तथा एक भाग से निर्गमयुक्त) एवं चार द्वारों से युक्त होता है, जो सोपान से युक्त होते है । उसके कोनों में लाङ्गल के आकार की भित्ति होती है । इसे नौ रंगो से तथा अड़तालीस अल्पनासियों से सुसज्जित करना चाहिये । यह नौ ब्रह्माओं (ब्रह्मा के नौ ऋषिपुत्रों) से पूजित एवं ग्राम तथा भवन आदि के मध्य में होता है । सभी अलंकारों से युक्त दर्भसंज्ञक मण्डप अत्यन्त सुन्दर होता है । ॥८०-८१-८२॥

कौशिक

कौशिक - दस अंशो वाला चौकोर मण्डप एक सौ बारह स्तम्भों से युक्त होता है । यह नौ कूटों से युक्त एवं एक भाग के अन्तराल से युक्त होता है । इसे 'कौशिक' कहते है । चतुष्कोण होने पर यह 'जातिक' होता है । यदि इसमें एक मुख (द्वार) एवं एक भद्र हो तो इसे 'नन्द' कहते है तथा दो मुख होने पर इसकी संज्ञा "भद्रकौशिक' होती है । तीन मुख होने पर 'जयकोश' तथा चार मुख होने पर इसे 'पूर्णकोश' कहते है । यह अधिष्ठान, स्तम्भ एवं कोनों पर लाङ्गल के आकार की भित्ति से युक्त होता है । इसे अड़तालीस अल्पनासिकाओं एवं सभी अलङ्करणों से सुसज्जित करना चाहिये । ॥८३-८४-८५॥

कुलधारण

कुलधारण - इसमें एक समचतुष्कोण क्षेत्र ग्यारह भाग से युक्त होता है । इसके चारो ओर एक भाग से मण्डप निर्मित होता है । चारो कोणों पर दो भाग से चार कूट होते है ॥८६-८७॥

चारो दिशाओं में दो भाग चौड़ा एवं तीन भाग लम्बा कोष्ठ होना चाहिये । तीन भक्तिमाप का चौकोर मध्यरङ्ग एवं उसके ऊपर कूट होना चाहिये । कूट एवं शाला के बीच में क्रकरीकृत (क्रास के आकार में) मार्ग होने चाहिये । जाति आदि को मुखभद्र आदि सभी अंगो से युक्त होना चाहिये ॥८८-८९॥

ऊपरी भाग में सभाङ्ग, नीड, प्रस्तर एवं नौ बोधक होना चाहिये । मण्डप ढका हुआ अथवा खुला हुआ गोपनीय अथवा खुले कार्य की आवश्यकता के अनुसार निर्मित किया जा सकता है । इस सम-चतुष्कोण मण्डप को कुलधारण कहते है । ॥९०॥

सुखाङ्ग

सुखाङ्ग - इस मण्डप में बारह भागों वाला सम चतुष्कोण क्षेत्र होता है, जिसके आठों दिशाओं एवं मध्य भाग में दो ईकाई माप के ऊर्ध्वकूट होते है । उसके बाहर एक भाग माप का अलिन्द्र (गलियारा) चारो ओर होना चाहिये ॥९१-९२॥

इसमें आँगन या सभा-स्थल एवं कोने में लाङ्गल के आकार की भित्ति होनी चाहिये । चारो दिशाओं में चार भाग से विस्तार रक्खा जाय एवं दो भाग से निर्गम निर्मित हो । सोपान पार्श्व में हो तथा आठ पञ्जरों से युक्त हो । मण्डप के प्रारम्भिक अंग (अधिष्ठान) में एक सौ साठ स्तम्भ होने चाहिये । यथोचित स्थान पर नासिकायें होनी चाहिये । इस प्रकार निर्मित मण्डप को सुखाङ्ग कहते है ॥९३-९४॥

सौम्य

सौम्य - सौख्य (सौम्य)मण्डप में तेरह भाग का सम-चतुष्कोण क्षेत्र होता है । इसके चारो ओर दो भाग से मण्डप एवं एक भाग से क्रकरी-पथ होना चाहिये । तीन भाग से मध्य रंग एवं ऊपरी भाग में ऊर्ध्व कूट एवं स्थूपी से युक्त नीव्र होता है । ॥९५-९६॥

मण्डप के मध्य में स्तम्भ नही होना चाहिये । चारो कोणों पर दो भाग से कूट एवं चारो दिशाओं में दो भाग चौड़े एवं तीन भाग लम्बे चार कोष्ठ होने चाहिये । इसका मुखभाग नन्द विधि (श्लोक ८४-८५) के अनुसार भद्र (पोर्च) से युक्त होना चाहिये । भित्ति का निर्माण इच्छित दिशा में करना चाहिये । इसमें एक सौ चारासी स्तम्भ एवं सभी प्रकार के अलंकरण होने चाहिये । यह मण्डप देव, ब्राह्मण एवं राजाओं के लिये उपयुक्त होता है ॥९७-९८॥

गर्भ

गर्भमण्डप - चौदह भाग विस्तार वाला यह मण्डप चौकोर होता है । दो भाग से गर्भकूट (मध्य भाग के ऊपर निर्मित कूट) होना चाहिये, जिसके चारो ओर एक भाग से अलिन्द्र (गलियारा) निर्मित हो । एक भाग से अन्तराल (मार्ग) निर्मित होना चाहिये, जिसके ऊपर छत न निर्मित हो ॥९९-१००॥

चारो कोनों पर दो-दो भाग से आँगन निर्मित होने चाहिये, जिनके ऊपर ऊर्ध्वकूट हो सकते हो (या आँगन खुले रह सकते है) । चारो दिशाओं में दो भाग चौड़े एवं तीन भाग लम्बे आँगन या तो कोष्ठ से युक्त (या विना कोष्ठ के) होने चाहिये । उनके बाहर चारो ओर एक भाग से अलिन्द्र होना चाहिये ॥१०१॥

अभीष्ट दिशा में भित्ति हो एवं आठो दिशाओं में भद्र निर्मित होने चाहिये । अधिष्ठान पर दो सौ आठ स्तम्भ निर्मित होने चाहिये । गर्भसंज्ञक सुन्दर मण्डप देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के अनुकूल होता है ॥१०२-१०३॥

माल्य

माल्य - इस मण्डप में पन्द्रह भाग विस्तृत चौकोर क्षेत्र होता है । इसके मध्य में तीन भाग से ऊर्ध्वकूट-युक्त मध्यरंग अथवा आँगन होना चाहिये । चारो ओर एक भाग से अलिन्द्र तथा एक भाग से अन्तराल होना चाहिये । शेष अंग पूर्ववर्णित होने चाहिये; किन्तु कोष्ट एक भाग अधिक लम्बा होना चाहिये । अधिष्ठान पर दो सौ बत्तीस स्तम्भ होने चाहिये । सभी सज्जाओं से युक्त इस मण्डप की संज्ञा माल्य होती है । ॥१०४-१०६॥

माल्याद्भुत

माल्याद्भुतम् - माल्याद्भुत मण्डप सोलह भागों के सम-चतुष्कोण क्षेत्र से युक्त होता है । दो भाग से ऊर्ध्वकूट होता है एवं एक भाग माप के अलिन्द्र से घिरा होता है । सामने दो भाग एवं एक भाग माप का भद्र होता है एवं कोने में लाङ्गल के आकार की भित्ति होती है । पार्श्व में सीढ़ी निर्मित होती है एवं यह चित्र-प्रस्तर से युक्त होता है ॥१०७-१०८॥

उसके बाहर दो भाग के प्रमाण से चारो ओर जलपाद (जलस्थान) होना चाहिये तथा उसके बाहर चारो ओर चार भाग माप का मण्डप होना चाहिये । दो भाग का चौकोर क्षेत्र हो एवं एक भाग से व्यवधान (अन्तराल) निर्मित हो । उसके मध्य में चारो ओर सोलह भागों वाला आँगन होना चाहिये ॥१०९-११०॥

कोनों पर लाङ्गल के आकार की भित्ति हो एवं ऊर्ध्व भाग पर हारामार्ग से अलंकरण हो । दो भाग विस्तृत क्षेत्र निर्गम से युक्त हो एवं चारो दिशाओं में भद्र निर्मित हो । पार्श्व में सीढ़ी हो एवं सभी प्रकार के आभरणों से युक्त हो । ये सोलह प्रकार के चौकोर मण्डप देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के लिये उपयुक्त होते है ॥१११-११२॥

बुद्धिमान व्यक्ति (स्थपति) को उपर्युक्त चतुष्कोण मण्डपों में प्रत्येक में पार्श्वो में एक-एक भाग बढ़ाते हुये बत्तीस भाग तक विस्तार ले जाना चाहिये । ये मण्डप खुले या बन्द हो सकते है एवं आवश्यकतानुसार भित्ति एवं स्तम्भ निर्मित किये जाने चाहिये । बुद्धिमान व्यक्ति को यथावसर एवं शोभा के अनुकूल मण्डप-निर्माण करना चाहिये । आयताकार मण्डपो का वर्णन इस प्रकार किया गया ॥११३-११४॥

धन

धन - यह मण्डप तीन भाग चौड़ा एवं लम्बाई में दो भाग अधिक होता है । सामने एक भाग से वार (प्रवेश) होता है एवं यह चौबीस स्तम्भों से युक्त होता है । इसमें बीस नासियाँ होती है । धन प्रदान करने वाला यह मण्डप धनसंज्ञक होता है ॥११५-११६॥

सुभूषण

सुभूषणम - इसका विस्तार चार भागों से एवं लम्बाई उससे दो भाग अधिक रक्खा जाता है । एक भाग से चारो ओर मण्डप एवं शेष भाग से आँगन निर्मित करना चाहिये । मुख-भद्रक (सामने बना पोर्च) दो भाग विस्तृत एवं एक भाग (आगे निकला भाग) माप का होना चाहिये । अधिष्ठान पर बाहरी भाग में बत्तीस स्तम्भ होने चाहिये । सभी अलंकरणों से युक्त इस मण्डप का नाम सुभूषण होता है । ॥११७-११८॥

आहल्य

आहल्य - इस मण्डप की चौड़ाई पाँच भाग एवं लम्बाई उससे दो भाग अधिक होती है । चारो ओर मण्डप एक भाग से एवं शेष भाग से कूट निर्मित करे या (खुला) आँगन छोड़ देना चाहिये । तीन भाग विस्तार वाला एक भाग का मुखभद्र निर्मित करना चाहिये । अधिष्ठान चालीस स्तम्भों से युक्त होना चाहिये । विचित्र एवं सभी अलंकारों से युक्त आहत्य संज्ञक मण्डप सभी स्थानों के लिये उपयुक्त होता है ॥११९-१२१॥

स्त्रुगाख्य

स्त्रुग मण्डप - यह मण्डप छः भाग विस्तृत होता है एवं इसकी लम्बाई चौड़ाई से दो भाग अधिक होती है । मध्य भाग में चार भाग लम्बा एवं दो भाग चौड़ा सभागार होता है, जिसके चारो ओर मण्डप होता है । दो भाग से मुखभद्र का निर्माण इच्छानुसार किसी भी दिशा में किया जा सकता है । अधिष्ठान साठ स्तम्भों से युक्त होता है तथा नासियाँ निर्मित होती है । सभी आभरणों से सुसज्जित एव मनोहर इस मण्डप की संज्ञा स्त्रुग है ॥१२२-१२३॥

कोण

कोण - यह मण्डप सात भाग विस्तृत एवं लम्बाई में चौड़ाई से दो भाग अधिक होता है । तीन भाग चौड़ा एवं पाँच भाग लम्बा इसका सभाङ्गण होता है । इसके चारो ओर मण्डप दो भाग से निर्मित होता है एवं इच्छानुसार दिशा में भित्ति निर्मित की जा सकती है । मुखभद्र तीन भाग चौड़ा एवं एक भाग निर्गम से युक्त होता है । यह आवश्यकतानुसार नासियों से युक्त होता है एवं इसका अधिष्ठान बहत्तर स्तम्भों से युक्त होता है । कोणसंज्ञक यह मण्डप सभी अलंकरणों से सुसज्जित होता है । ॥१२४-१२५-१२६॥

खर्वट

खर्वट - इस मण्डप की चौड़ाई आठ भाग एवं लम्बाई उससे दो भाग अधिक होती है । मध्य भाग में दो भाग चौड़ा एवं चार भाग लम्बा जल-स्थान होना चाहिये । चारो ओर एक भाग से अलिन्द्र एवं उसके बाहर दो भाग से मण्डप होना चाहिये । ॥१२७-१२८॥

उसके मध्य भाग में स्तम्भ नहीं होना चाहिये । अभीप्सित दिशा में भित्ति होनी चाहिये । पहले के समान अड़सठ एवं मुख-भद्र होना चाहिये । मुखभाग पर एक भाग से प्रवेश एवं मुखभाग सीढ़ियों से युक्त होना चाहिये । विभिन्न अलंकारो से सुसज्जित खर्वटसंज्ञक यह मण्डप देवों आदि के लिये प्रशस्त होता है । ॥१२९-१३०॥

श्रीरूप

श्रीरूप - यह मन्डप नौ भाग विस्तृत होता है एवं इसकी लम्बाई चौड़ाई से दो भाग अधिक होती है । चारो ओर एक भाग से अलिन्द्र एवं उसके बाहर दो भाग से मण्डप होता है । मध्य भाग में स्तम्भ नही होता है तथा बाहर की ओर एक भाग से मार्ग होता है ॥१३१-१३२॥

इसमें उनहत्तर स्तम्भ होते है तथा इच्छित दिशा में द्वार एवं भित्ति का निर्माण किया जाता है । पूर्ववर्णित रीति से मुखभद्र होता है, जो मार्ग से युक्त या उसके विना होता है । विभिन्न अंगो से युक्त इस मण्डप को श्रीरूप कहते है ॥१३३॥

मङ्गल

मङ्गल - यह मण्डप दस भाग चौड़ा एवं लम्बाई उससे दो भाग अधिक होती है । मध्य भाग में दो भाग चौड़ा एवं चार भाग लम्बा सभागार होता है । चारो ओर एक भाग से अलिन्द्र एवं एक भाग से जल-स्थान होता है ॥१३४-१३५॥

उसके बाहर चारो ओर दो भाग से मण्डप होता है । स्तम्भ, भित्ति, मुखभद्र आदि का निर्माण इच्छानुसार किया जाता है । अथवा मध्यकूट एवं अलिन्द्र पहले के सदृश निर्मित करना चाहिये । सभी मण्डपों को जल-स्थान के विना ही निर्मित करना चाहिये ।॥१३६-१३७॥

दोनों पार्श्वों में दो भाग से चौकोर छः कूटों का निर्माण करना चाहिये । सामने एवं पीछे दो भाग चौड़ा एवं चार भाग लम्बा कोष्ठ निर्मित करना चाहिये । कोनों पर लाङ्गल-भित्ति तथा चारो ओर भित्ति निर्मित करनी चाहिये या भित्ति नही भी हो सकती है । यह खुला अथवा ढँका हो सकता है । वही स्तम्भ का निर्माण करना चाहिये । ॥१३८-१३९॥

सभी अंगो से युक्त इस मण्डप की संज्ञा मङ्गल है । आठ चतुष्कोण से युक्त ये (आयताकार) मण्डप देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के लिये कहे गये है ॥१४०॥

पूर्वोक्त चतुष्कोण (आयताकार) मण्डपों में चौड़ाई में एक-एक भाग बढ़ाते हुये वहाँ तक लम्बाई का माप रखना चाहिये, जब तक लम्बाई चौड़ाई की दुगुनी न हो जाय । बुद्धिमान स्थपति को मण्डप में स्तम्भ एवं भित्ति आदि सबी अलंकरणों का इच्छानुसार एवं जिस प्रकार सुन्दर लगे, उस प्रकार निर्माण करना चाहिये । अब वैश्य एवं शूद्रो के अनुकूल आठ आयताकार मण्डपों का वर्णन किया जा रहा है । ॥१४१-१४२॥

मार्ग

मार्ग - इस मण्डप का विस्तार दो भाग एवं लम्बाई विस्तार की दुगुनी होनी चाहिये । इसमें पन्द्रह स्तम्भ हों एवं दो भाग (चौड़ा) एवं एक भाग (बाहर की ओर निकला) मुखभद्रक (प्रोच) होना चाहिये । इसका सोपान पार्श्व में निर्मित होना चाहिये तथा नासिकाओं से यह सुशोभित होना चाहिये । इसका मुख-भाग इच्छित दिशा में रखना चाहिये । इसे मार्ग संज्ञक मण्डप कहते है ॥१४३-१४४॥

सौभद्र - सौभद्र मण्डप का विस्तार तीन भाग एवं लम्बाई विस्तार की दुगुनी होती है । यह अट्ठाईस स्तम्भों से युक्त होता है एवं सामने एक भाग से वार (मार्ग) से निर्मित होता है । उचित रीति से नासियों एवं स्तम्भों से युक्त यह सुन्दर मण्डप सौभद्र संज्ञक होता है ॥१४५-१४६॥

सुन्दर

सुन्दर - इस मण्डप की चौड़ाई चार भाग एवं लम्बाई उसकी दुगुनी होती है । मध्य भाग दो भाग चौड़ा एवं चार भाग लम्बा होता है, जिस पर कूट निर्मित होता है अथवा वहाँ (खुला हुआ) आँगन होता है ।बत्तीस स्तम्भों से युक्त इस मण्डप में एक भाग से मुख-भद्रक निर्मित होता है । सुन्दर नामक यह मण्डप आवश्यकतानुसार नासियों एवं स्तम्भों से युक्त होता है ॥१४७-१४८॥

साधारण

साधारण - यह मण्डप पाँच भाग विस्तृत एवं लम्बाई में चौड़ाई से चार भाग अधिक होता है । बगल में दो भाग चौड़े एवं तीन भाग लम्बे दो आँगन होते है । इसमें छप्पन खम्भे होते है एवं सामने एक भाग से वार निर्मित होता है । तीन भाग विस्तृत एवं एक भाग (बाहर निकला) माप से मुख-भद्रक का निर्माण करना चाहिये । मुख भाग पर सोपान एवं चारो ओर भित्ति होनी चाहिये । आवश्यकतानुसार नासी आदि अंगो से युक्त इस मण्डप को साधारण कहते है ॥१४९-१५१॥

सौख्य

सौख्य - यह छः भाग चौड़ा एवं चौड़ाई से तीन भाग अधिक लम्बा होता है । मध्य भाग में दो भाग चौड़ा एवं पाँच भाग लम्बा सभागार होता है । चारो ओर दो भाग से मण्डप एवं सामने एक भाग से वार निर्मित होता है । पहले के समान मुख-भद्रक निर्मित होता है एवं नासिकाओं से सुसज्जित होता है । साठ स्तम्भों से एवं सभी अंगो से युक्त इस मण्डप की संज्ञा सौख्य है । यह सभी लोगों के लिये अनुकूल होता है ॥१५२-१५४॥

ईश्वरकान्त

ईश्वरकान्त - इस मण्डप की चौड़ाई सात भाग से एवं लम्बाई उससे चार भाग अधिक होती है । मध्य भाग में तीन भाग का चौकोर क्षेत्र होता है, जिस पर कूट निर्मित होता है अथवा वहाँ (खुला) आँगन होता है । उसके बाहर एक भाग प्रमाण से चारो ओर अलिन्द्र होता है । दोनों पार्श्वों में दो भाग चौड़े एवं पाँच भाग लम्बे दो आँगन होते है । उसके बाहर एक भाग से चारो ओर मण्डप निर्मित होता है, ऐसा विद्वानों का मत है ॥१५५-१५७॥

तीन भाग चौड़ा एवं एक भाग बाहर निकला मुख-भद्रक निर्मित होता है । अधिष्ठान पर चौरासी स्तम्भ निर्मित होते है । मुखभाग पर एक भाग से वार निर्मित होता है । यह ईश्वरकान्त मण्डप विभिन्न अंगों से सुशोभित एवं सभी अलंकरणों से युक्त होता है ॥१५८-१५९॥

श्रीभद्र

श्रीभद्र - यह मण्डप आठ भाग चौड़ा तथा पूर्ववर्णित माप के अनुसार लम्बा होता है । मध्य भाग दो भाग माप का चौकोर क्षेत्र होता है, जिसमें कूट निर्मित होता है या आँगन होता है । उसके बाहर एक भाग के प्रमाण से चारो ओर अलिन्द्र निर्मित होता है । दोनों पार्श्वों में पहले के समान कूट होते है, जिन्हे पूर्ववर्णित मान से दो भाग अधिक लम्बा रक्खा जाता है ॥१६०-१६१॥

उसके बाहर चारो ओर दो भाग से बुद्धिमान स्थपति को मण्डप निर्मित करना चाहिये । चार भाग चौड़ा एवं दो भाग बाहर निकला मुखभद्रक निर्मित करना चाहिये । अधिष्ठान पर एक सौ दस स्तम्भ निर्मित करना चाहिये । सभी अलंकरणों से युक्त यह श्रीभद्र मण्डप सभी के लिये अनुकूल होता है ॥१६२-१६३॥

सर्वतोभद्र

सर्वतोभद्र - इस मण्डप को नौ भाग विस्तृत एवं लम्बाई पहले दिये गये माप के अनुसार होना चाहिये । तीन भाग चौड़ाई वाले मध्य भाग में चौकोर क्षेत्र कूट से युक्त हो सकता है या वहाँ आँगन हो सकता है । उसके बाहर एक भाग प्रमाण से चारो ओर अलिन्द्र होना चाहिये । पार्श्व भाग में दो भाग चौड़ा एवं पाँच भाग लम्बा दो आँगन होना चाहिये । चारो ओर उसके बाहर दो भाग से बुद्धिमान व्यक्ति को मण्डप बनाना चाहिये । सामने एवं पीछे पाँच भाग चौड़े एवं दो भाग लम्बे (गहरे) भद्र (पोर्च) होने चाहिये ॥१६४-१६६॥

दोनो पार्श्वो में तीन भाग चौड़े एवं एक भाग लम्बे दो भद्रक होने चाहिये । कोनों पर लाङ्गल के समान भित्ति एवं स्तम्भ होने चाहिये । अधिष्ठानपर एक सौ अट्ठाईस स्तम्भ निर्मित होने चाहिये । अन्य अवयवों को आवश्यकतानुसार उचित रीति से बुद्धिमान स्थपति को संयुक्त करना चाहिये । सर्वतोभद्र संज्ञक मण्डप सभी अलंकरणों से युक्त होता है । इस प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति को इस मण्डप का निर्माण देवादिकों के भवन में करना चाहिये ॥१६७-१६९॥

मण्डपमुखाय

मण्डप की लम्बाई - मण्डपों की लम्बाई का विधान उनकी चौड़ाई के अनुसार किया जाता है । जातिरूप का वर्णन पहले किया जा चुका है । छन्दरूप में लम्बाई चौड़ा से एक भाग अधिक होती है । विकल्प रीति में दो भाग एवं आभास रीति में तीन भाग अधिक लम्बाई रक्खी जाती है । चौकोर, दण्डक, स्वस्तिभद्र, पद्म, क्रकरभद्रक, षण्मुख, लाङ्गल तथा मौलि मण्डप जातिमान के अनुसार होते है । प्रपा एवं मण्डप जातिमान के अनुसार होते है तथा आवश्यकतानुसार इनमें स्तम्भों का निर्माण किया जाता है ॥१७०-१७२॥

पुनः मण्डपभेद

मण्डपों के अन्य भेद - गृहविन्यास के अंगभूत रङ्गस्थल को गृहमण्डप कहते है । जिस प्रकार प्रासाद में गर्भगृह होता है, उसी प्रकार गृह में मण्डप होता है जो विशेष रूप से अलिन्द्र से युक्त होता है । अधिष्ठान आदि से युक्त यह मण्डप देवालय के आकार का होता है । जिस गृहमण्डप में वो विशिष्ट अंग होते है, जो देवालय के मण्डप के अंग होते है, उसे गृहप्रासादमण्डप कहते है ॥१७३-१७४॥

यदि मण्डप के ऊपर तल निर्मित हो तो उसे मालिकामण्डप कहते है । यह मण्डप ईंटो, शिलाओं, काष्ठ, गजदन्त या धातुओं से निर्मित होता है । यह सभी प्रकार के मिश्रित द्रव्यों से निर्मित होता है ॥१७५॥

जलक्रीडामण्डप

जलक्रीडा-मण्डप - राजा की इच्छा के अनुसार जल-क्रीडा से युक्त मण्डप चौकोर या आयताकार हो सकता है । इसमें एक या अनेक तल हो सकते है ॥१७६॥

यह मण्डप खुला अथवा (भित्ति से) ढँका हो सकता है । यह अंघ्रि-भित्तियों (पंक्ति में निरित स्तम्भों) से घिरा होता है । दिशाओं में भद्र (पोर्च) निर्मित होते है । यह मध्य भाग में रङ्गसहित होता है अथवा वहाँ आँगन होता है । ऊपरी तल स्तम्भों अथवा भित्तियों से घिरा होता है ॥१७७॥

इसकी सीढी गुप्त द्वार के पीछे होती है, जिसके द्वार पर बहुत से यन्त्र निर्मित होते है । ये गज, भूत, हंस, व्याल, कपि एवं शालभञ्जिका (पेड़ की शाख पकड़ कर तोड़ने की मुद्रा में स्त्री आकृति) आदि के रूप में होते है, जिनके भीतर जल भरा होता है ॥१७८॥

मण्डप का शीर्ष भाग हर्म्य के शीर्ष भाग के समान या सभागार के शीर्ष भाग के समान होता है । यह कूट, नीड, गज-तुण्ड (हाथी की सूँड) एवं कोष्ठक से सुसज्जित होता है । यह तोरण आदि, अनेक जालकों (झरोखों) एवं नासिकाओं से अलंकृत होता है । मण्डप के सामने या मध्य भाग में अनेक यन्त्रों से युक्त जलाशय होता है, जो ईंटों या प्रस्तरों से सुसज्जित होता है । जल से युक्त यह जलाशय गुप्त होता है अथवा खुला होता है ॥१७९-१८०॥

इस प्रकार राजाओं के जल-क्रीडा के लिये जिस मण्डप का उल्लेख किया गया है, वह रमणीय स्थान में रहता है । यह अलंकारों से युक्त, विभिन्न प्रकार के चित्रों से युक्त, स्त्री, सौभाग्य, आरोग्य एवं भोग प्रदान करने वाला होता है ॥१८१॥

मण्डपयोग्यवृक्ष

मण्डप के अनुकूल वृख - खदिर, खादिर, वह्नि, निम्ब, साल, सिलिन्द्रक, पिशित, तिन्दुक, राजादन, होम एवं मधूक के वृक्ष (के काष्ठ) स्तम्भ निर्माण के लिये अनुकूल होते है । ये वृक्ष देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के सम्बद्ध सभी कार्यो के लिये प्रशस्त होते है । पूवोक्त सभी वृक्ष (काष्ठ) सभी प्रकार के स्तम्भों के लिये उपयुक्त होते है ॥१८२-१८३॥

पिशित, तिन्दुक, निम्ब, राजादन, मधूक एवं सिलिन्द्र के वृक्ष से निर्मित स्तम्भ वैश्यों एवं शूद्रो के लिये होते है । स्तम्भों की आकृतियाँ वृत्ताकार चौकोर, अष्टकोण या सोलह कोण की हो सकती है एवं त्वक्सार अर्थात् बाँस से निर्मित स्तम्भ सभी के लिये अनुकूल होती है ॥१८४-१८५॥

ताल, नालिकेर (नारियल), क्रमुक, वेणु (बाँस) एवं केतकी वृक्ष सभी के लिये अनुकूल होते है । ईंटो, प्रस्तरों एवं वृक्षों (काष्ठों) से निर्मित भवन देवों, ब्राह्मणों तथा राजाओं (क्षत्रियों) -इन सभी वर्ण के गृहस्वामियों के लिये उपयुक्त होता है; किन्त वैश्यों एवं शूद्रो के भवन में प्रस्तर का प्रयोग कभी भी अनुकूल नही होता है ॥१८६-१८७॥

मुखमन्डप

मुखमण्डप - मन्दिर के मुख-भाग पर निर्मित मण्डप श्रेष्ठ होता है । उनके आद्यङ्ग (अधिष्ठान), स्तम्भ, उत्तर एवं वाजन मन्दिर के समान होते है; किन्तु उनके माप उनसे सात, आठ, नौ या दस भाग कम होते है । अथवा सभी अंगो का माप पूर्व-वर्णित माप के समान रखना चाहिए ॥१८८-१८९॥

मण्डपों की दिशा एवं उनका प्रमाण वही होना चाहिए, जो मन्दिरों का कहा गया है । भित्ति की चौड़ाई स्तम्भ की चौड़ाई से पाँच, चार, तीन अथवा दुगुनी होनी चाहिये । काष्ठस्तम्भ के व्यास से भित्ति की चौड़ाई उससे चतुर्थांश कम तीसरे भाग के बराबर या आधे के बराबर होनी चाहिए । अथवा कुड्यस्तम्भ (भित्ति से संलग्न स्तम्भ) की चौड़ाई भित्ति की चौड़ाई बराबर भी हो सकता है ॥१९०-१९१॥

मण्डपगर्भस्थान

मण्डप का गर्भस्थल - शिलान्यास स्थल - मण्डप के गर्भ-स्थल तीन हो सकते है - मध्य आँगन के दक्षिण भाग में स्तम्भ के मूल में, द्वार के दक्षिण भाग में स्तम्भ के नीचे या कोने में द्वितीय स्तम्भ के नीचे । इन तीन स्थानों के विषय में मुनिजन कहते है ॥१९२॥

अलिन्द्र

अलिन्द - (मण्डप आदि के) सामने, पीछे या चारो ओर अलिन्द्र संज्ञक मार्ग होता है, जिसकी चौड़ाई मण्डप की चौड़ाई से एक भाग या डेढ़ भाग होनी चाहिये । यह देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओ के मण्डपों के लिये विधान किया गया है । लम्बाई मण्डप के अनुसार होती है ॥१९३॥

मालिका - मालिका के अवयवों के प्रासाद के अंगो के अनुसार रखना चाहिये । ऊपरी तल की भित्ति भूतल की मूल भित्ति के ऊपर निर्मित करनी चाहिये एवं स्तम्भों को स्तम्भों के ऊपर निर्मित करना चाहिये । आवश्यकतानुसार तल एक-दो या तीन हो सकते है ॥१९४॥

कुछ विद्वानों के अनुसार स्तम्भों के बाहरी भाग के अनुसार उनकी लम्बाई एवं चौड़ाई का मान लेना चाहिये; जबकि अन्य विद्वानों के मतानुसास्र मान का ग्रहण भित्ति के मध्य से करना चाहिये । निवास-योग्य मण्डप के शीर्ष का निर्माण शाला के आकार का या सभा के आकार का करना चाहिये ॥१९५-१९६॥

मण्डप के एक, दो, तीन या चार मुखभाग हो सकते है । ये भद्र से युक्त या भद्ररहित हो सकते है । मध्य भाग में ऊपर कूट हो सकता है, रङ्गस्थल या आँगन हो सकता है । ये मण्डप चौकोर या आयताकार हो सकते है । ये सभी देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के अनुकूल होते है । आयताकार मण्डप वैश्यों एवं शूद्रों के अनुकूल होते है ॥१९७॥

सभाविधानम्

तत्र सभाभेद

सभागार का विधान एवं भेद - अब नौ प्रकार के सभागारों के लक्षण का वर्णन किया जा रहा है । इनमें प्रथम मल्लवसन्तक संज्ञक है । इसके पश्चात् पञ्चवसन्तक, एकवसन्तक, सर्वभोभद्र, पार्वतकूर्मक, माहेन्द्र, सोमवृत्त, शुकविमान एवं श्रीप्रतिष्ठित होते है । इन नौ सभाओं में सें पाँच आयताकार होती है तथा शेष चौकोर होती है ॥१९८-२००॥

देवों एवं मनुष्यों के सभागृह लम्बाई में चौड़ाई से एक, दो, तीन या चार भाग अधिक होते है । इनकी लम्बाई, चौड़ाई, भित्ति एवं स्तम्भों का मान पहले के सदृश होता है । सभी दण्डिका पर्यन्त अलंकार विमान (मन्दिर) के सदृश होते है । लुपा आदि का विधान उसी प्रकार होता है, जैसा शिखर-लक्षण में वर्णित है । ॥२०१-२०२॥

कूटलक्षण

कूट का लक्षण - जिस चौकोर सभा के कोनों में रश्मियाँ (लुपा) हो, उसकी कूट संज्ञा होती है । कूट एवं कोष्ठक (लम्बा सभागार) दोनों सभागार कोणों में वलक्षितस्वस्ति से रहित होना चाहिये ॥२०३॥

मल्लवसन्त

मल्लवसन्तक - मल्लवसन्त संज्ञक सभागृह एक भाग माप का, चार स्तम्भों, लुपाओं, कोटियों (कोटि लुपाओं, कोने की लुपाओं) तथा एक कूट वाला होता है । इसमें आठ पुच्छवलक्ष होते है ॥२०४॥

पञ्चवसन्तक

पञ्चवसन्तक - दो भाग माप की, आठ स्तम्भों एवं आठ लम्बी लुपाओं से युक्त सभा पञ्चवसन्तक संज्ञक होती है । इसमें आठ स्वस्तिकवलक्ष, मध्य मे मूलकूट एवं चारो कोणों पर चार कूट होते है ॥२०५॥

एकवसन्तक

एकवसन्तक - एकवसन्तक संज्ञक सभागार तीन भाग माप का, चौकोर एवं बारह स्तम्भ से युक्त होता है । इसमें सोलह स्वस्तिपुच्छ, तेरह कूट एवं चौबीस वलक्ष होते है ॥२०६-२०७॥

सर्वतोभद्र

सर्वतोभद्र - यह सभागार चार कोणों वाला, चार भाग माप का, बाहर सोलह स्तम्भों से युक्त, भीतरी भाग में आठ स्तम्भ एवं आठ लम्बी लुपाओं से युक्त, सोलह कूट, चौबीस स्वस्तिपुच्छ तथा अड़तालीस वलक्षों से युक्त होता है । मध्य में कूट होता है । सर्वतोभद्र संज्ञक सभागार चार चौकोर (कक्षों) से युक्त होता है । ॥२०८-२०९॥

पार्वतकूर्मक

पार्वतकूर्मक - पार्वतकूर्मक सभागार आयताकार, चार भाग चौड़ा तथा पाँच भाग लम्बा होता है । बाहरी भाग में अट्ठारह स्तम्भ एवं भीतरी भाग में दस स्तम्भ होते है तथा अट्ठारह रश्मियाँ (लुपायें) होती है । सोलह एवं चौदह कूट होते है । छः (या सोलह) बाहर एवं चौदह भीतर होते है । इसमें चौसठ वलक्ष तथा सोलह चतुष्कोष्ठ होते है ॥२१०-२११॥

माहेन्द्र

माहेन्द्र सभागृह चार भाग चौड़ा एवं छः भाग लम्बा होता है । इसमें बीस स्तम्भ एवं भीतर स्तम्भ होते है । इसके भीतरी भाग में आठ कूट एवं बाहरी भाग में सोलह कूट होते है तथा सोलह लम्बी रश्मियाँ (लुपाये) होती है ॥२१२-२१३॥

इसमें चौबीस स्वस्तिक एवं मध्य में तीन कूट होते है तथा इसमें अस्सी वलक्ष एवं उन्तालीस कूट होते है । भीतरी भाग में स्तम्भ नही होते है एवं भाग के अनुसार वही योजना करनी चाहिये । मुनियों ने माहेन्द्र सभागार को राजाओं के अनुकूल बताया है ॥२१४-२१५॥

सोमवृत्त

सोमवृत्त - इसकी चौड़ाई चार भाग एवं लम्बाई सात भाग होती है । भीतरी भाग में चौदह एवं बाहर बाईस स्तम्भ होते है तथा चौबीस स्वस्तिपुच्छ होते है । सोलह लम्बी रश्मियाँ एवं छियानबे वलक्ष होते है । मध्य भाग में चार कूट, भीतरी भाग में दस एवं बाहर अट्ठारह कूट होते है । इसमें चार कोटियाँ (कोटिलुपायें) एवं सात कर्णधारायें होती है तथा मध्य भाग में स्तम्भ नही होते है । इस सभागृह की संज्ञा सोमवृत्त होती है ॥२१६-२१८॥

शुकविमान

शुकविमान - यह सभागार पाँच भाग चौड़ा एवं आठ भाग लम्बा होता है । इसमें छब्बीस स्तम्भ होते है । अट्ठारह स्तम्भ भीतर होते हैं एवं चार कोटियों (कोने की लुपाओं) से युक्त होते है । यह बत्तीस स्वस्तिक एवं बहत्तर वलक्षों से युक्त, शिरोभाग पर चार कूटों से युक्त तथा सोलह रश्मियों (लुपाओं) से युक्त होता है । यह चौबीस अन्तःकूटों एवं बाईस बहिःकूटों से युक्त होता है । आठ कर्णधाराओं से समन्वित यह सभागार शुकविमान संज्ञक होता है ॥२१९-२२१॥

श्रीप्रतिष्ठित

श्रीप्रतिष्ठित - इस सभागृह की चौड़ाई पाँच भाग एवं लम्बाई नौ भाग होती है । इसमें अट्ठाईस गात्र (स्तम्भ, पाद) बत्तीस स्वस्तिपुच्छ, बत्तीस भीतरी भाग के स्तम्भ एवं उसी प्रकार मध्य रश्मियाँ (मध्य में स्थित लुपाये), शिरोभाग पर पाँच कूट एवं चार कोटियों (कोटि-लुपाओं) से यह युक्त होता है । इसमें एक सौ साठ वलक्ष होते है । इसमेम दस कूट होते है एवं इस सभागृह की संज्ञा श्रीप्रतिष्ठित होती है । ॥२२२-२२३-२२४॥

उसी लम्बाई एवं चौड़ाई के माप में तीन-तीन भाग बढ़ाने से चार आयताकार भवन बनते है, जिनमें बारह भीतरी भाग में एवं सोलह बाहरी भाग में स्तम्भ बनते है । इसमें एक भाग से वार (मार्ग या पोर्च) तथा दो भाग से शाला निर्मित होती है । बाहरी एवं भीतरी भाग में चार वार (चार स्थानों पर) बहत्तर स्तम्भ बनते है । मन्दिर के सदृश अलंकृत कर इसमें चार द्वार एवं दो चूलिकायें निर्मित होती है । यह श्रीप्रतिष्ठित संज्ञक सभागार राजा के लिये श्रीप्रतिष्ठा वाला (प्रतिष्ठकाकारक) होता है ॥२२५-२२७॥

उपर्युक्त माप मे एक-एक भाग बढ़ाने पर सभाओं के अन्य प्रकार प्राप्त होते है । उनके नाम छन्द, विकल्प एवं आभास है । उनमें स्तम्भ, रश्मि (लुपा), वलक्ष एवं कूट का आवश्यकतानुसार निर्माण करना चाहिये । लम्बाई एवं चौड़ाई के भाग (माप की ईकाई) इच्छानुसार एवं जिससे सभी सुन्दर लगे, उस प्रकार रखना चाहिये । ॥२२८-२२९॥

कूट को लम्बी रश्मियों से युक्त निर्मित करना चाहिये अथवा कूट को चौकोर बनाना चाहिये । स्तम्भों के ऊपर उत्तर का उद्गम (ऊँचाई) दण्डिका के निर्गम के बराबर रखना चाहिये । चूलिका का लम्बिक (ऊपर लटकता भाग) तुला एवं प्रस्तर के भाग के अनुसार होना चाहिये । ऋजु अथवा स्वस्तिक वलक्ष में प्रविष्ट होना चाहिये ।॥२३०-२३१॥

शिखावर्ग (शिरोभाग) तथा सभी कचग्रह विना कूट के होते है । दो चूलिकाओं के मध्य में स्थित संरचना वर्णपट्टिका संज्ञक होती है । वलय व्यास (चौड़ाई) से तीन गुना होना चाहिये एवं बाहुल्या को माप में लुपा के समान होना चाहिये । लुपा के दोनो पार्श्वो में वलयनालिका होनी चाहिये ॥२३२-२३३॥

प्रतिचूलिक का विन्यास एवं मुद्गर का आलम्बन स्थिर होता है । आँगन के वलक्ष अनुलोम (नीचे से ऊपर सीधे) एवं प्रतिलोम (विपरीत विधि) से निर्मित होते है । दो कोटियों (कोटि-लुपाओं) का संयोग गर्भगृह के दाहिने छिद्र में होता है । शिल्पी को सर्वप्रथम स्तम्भ का विधान करना चाहिये ॥२३४-२३५॥

पादबन्ध अधिष्ठान स्तम्भ के माप का आधा होना चाहिये । यदि किसी अंग आदि का वर्णन नही किया गया हो तो उसका प्रयोग आवश्यकतानुसार करना चाहिये । सभा हल के लाङ्गल के समान भित्ति से युक्त, मध्य भाग रङ्ग से युक्त या रङ्ग से रहित हो सकता है । सभा सभा के अनुरूप (सभ्य) लोगों से बनती है - ऐसा प्राचीन विद्वानों ने कहा है । सभ्यजनों के मार्ग निर्धारित होते है ॥२३६-२३७॥

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Last Updated : January 20, 2012

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