मयमतम् - अध्याय ३३

मयमतम्‌ नामक ग्रंथमे संपूर्ण वास्तुशास्त्रकी चर्चा की गयी है। संपूर्ण वास्तु निर्माणमे इस ग्रंथको प्रमाण माना गया है।

निष्कलादिलिङ्गभेद

निष्कल आदि लिङ्ग के भेद - लिङ्ग (देव-प्रतीक) के निष्कल, सकल एवं मिश्र- ये तीन भेद होते है । निष्कल (प्रतीक) को लिङ्ग एवं सकल (आकृतियुक्त) को बेर (प्रतिमा) कहते है । मुखलिङ्ग इन दोनो का मिश्रित स्वरूप होता है । इसकी ऊँचाई एवं आकृति लिङ्ग के समान होती है ॥१॥

बिम्बमूर्ति (प्रतिमा) (मानव) शरीर के समान तथा विश्वमूर्तिस्वरूप (मूर्ति के सामान्य लक्षण एवं मानक) होती है । यह देवता के चिह्न, शरीर, प्रतिछन्द, प्रतिमा के प्रतीकों तथा नाम से होती है । इस प्रकार दृश्य देव (देवता की प्रतिमा) का वर्णन किया गया । अब निष्कल (प्रतीक, लिङ्गादि) का वर्णन किया जा रहा है ॥२-३॥

शिलालक्षण

ब्राह्मण आदि (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के लिये अनुकूल शिला (प्रतिमा निर्माण हेतु क्रमशः) श्वेत, लाल, पीली एवं काली होती है । शिला को एक रंग की, ठोस, स्पर्श में कोमल एवं भूमि के भीतर अच्छी तरह गड़ी होनी चाहिये । इसकी उचित लम्बाई एवं चौड़ाई होनी चाहिये । यह देखने में सुन्दर एवं युगा (बहुत पुरानी न हो) होनी चाहिये ॥४॥विद्वानों ने इन शिलाओं को गर्हित कहा है - वायु, धूप एवं अग्नि से क्षतिग्रस्त, अत्याधिक मृदु (जल्दी टूटने वाली) खारे जल के सम्पर्क वाली, निन्दनीय स्थान से प्राप्त, रूखी, किसी अन्य कार्य में प्रयुक्त, रेखा, बिन्दु या अन्य चिह्न से युक्त, वृद्धा (अत्यन्त पुरानी) टेढी, शर्करा (कंकड-बालु आदि से युक्त) जिसका रंग ठीक न हो, त्रास (चिटकी हुई), गृह में प्रयुक्त, (ठोकने पर) स्वरहीन, टूटी हुई एवं गर्भयुक्त ॥५-७॥

एक रंग की, घन (ठोस), कोमल, मूल से अग्र भाग तक सीधी, गजघण्टा के समान स्वर वाली शिला को 'पुंशिला' (पुरुषशिला) कहते है । मूल भाग में मोटी एवं अग्र भाग में पतली, कांस्यताल के समान स्वर वाली शिला को 'स्त्रीशिला' तथा मूल एवं अग्र भाग में पतली एवं (मध्य भाग में) मोटी शिला को 'षण्डा' (नपुंसक) शिला कहते है ॥८-९॥

विद्वान व्यक्ति को सकल, निष्कल एवं मिश्र (प्रतिमा) को पुंशिला से निर्मित करना चाहिये । नारी-प्रतिमा एवं पिण्डिका (मूर्ति की पिण्डका, आधार) के निर्माण में स्त्रीशिला का प्रयोग करना चाहिये । षण्डशिला से ब्रह्मशिला या कूर्मशिला का अथवा नन्द्यावर्त शिला का निर्माण करना चाहिये । इसी प्रकार बुद्धिमान मनुष्य को देवालय के तल एवं भित्ति आदि का भी निर्माण करना चाहिये ॥१०-११॥

यह शिला (अवस्था की दृष्टि से) बाला, मध्यमा तथा स्थविरा होती है । बाला शिला कम पकी हुई ईट के समान मृदु एवं टंक (टाँकी, छेनी) के आघात से टूटने वाली होती है । यह शिला सभी कार्यो के लिये त्याज्य होती है, ऐसा विद्वानों का मत है ॥१२-१३॥

यौवना (मध्यमा) शिला स्पर्स में कोमल, गम्भीर स्वर वाली, सुगन्धित, शीतल,मृदु, सघन अंगो वाली (ठोस) एवं तेजयुक्त (चमकदार) होती है । यह मध्यमा शिला सभी कार्यो मे प्रयोग करने योग्य होती है एवं सभी कार्यों में सिद्धि प्रदान करने वाली होती है॥१४॥

वृद्धा (स्थविरा) शिला मछली या मेढक के खाल के समान रूखी होने के कारण अप्रशस्त होती है । यह रेखा, बिन्दु एवं कलंक (दाग-धब्बो) से युक्त होती है । इस शिला का प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिये ॥१५॥

काटते-छीलते समय यदि शिला में मण्डल दिखाई पडे तो उसे 'गर्भिणी' शिला कहते है । विद्वान व्यक्ति को उसका प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिये ॥१६॥

(भूमि से बाहर निकालते समय) शिला का मुख नीचे की ओर एवं शिर ऊपर होता है । शिला का मूल भाग दक्षिण दिशा या पश्चिम दिशा एवं अग्र भाग उत्तर या पूर्व की ओर होता है । (भूमि में) जब शिला स्थित (खड़ी) हो तो अग्र भाग ऊपर एवं मूल भाग नीचे होता है । (दक्षिण-पश्चिम एवं उत्तर-पूर्व मे लेटी स्थिति मे) नैऋत्य कोण में अग्र भाग एवं ईशान में (मूल) तथा (उत्तर-पश्चिम एवं दक्षिण-पूर्व मे लेटी स्थिति की शिला का ) अग्र भाग आग्नेय कोण में तथा (मूल भाग) वायव्य कोण में होता है ॥१७-१८॥

शिलासंग्रहन

शिला-संग्रह - (सूर्य के) उत्तरायण मास मे, शुक्ल पक्ष मे, शुभ उदय काल में, शुभ पक्ष, नक्षत्र एवं करण से युक्त मुहूर्त में लिंग-निर्माण (हेतु प्रस्तर लेने के लिये) वन, उपवन, पर्वत अथवा शुद्ध स्थान पर जाना चाहिये, जहाँ भूमि में प्रस्तर प्राप्त होता हो । यह क्षेत्र विशेष रूप से पूर्व, उत्तर या ईशान दिशा में होना चाहिये । ॥१९-२०-२१॥

स्थापक, स्थपति एवं कर्ता तीनों को मंगल कृत्य करने के पश्चात शुभ शकुनो एवं मंगलध्वनि के साथ (प्रस्थान करना चाहिये), स्थापक एवं स्थपति श्वेत को वस्त्र धारण कर, श्वेत सुगन्ध एवं लेप धारण कर तथा श्वेत वस्त्र का उत्तरीय (ऊपर ओढने का चादर) ओढकर, सिर पर श्वेत पुष्प धारण कर एवं पाँच अंगो में आभूषण धारण कर (शिला प्राप्त करनी चाहिये ) ॥२२-२३॥

गन्ध, पुष्प, धूप, मांस, रक्त, दुध, भात, मछली एवं विविध प्रकार के भोज्य पदार्थों से अभीष्ट वृक्षों, प्रस्तरो तथा वनदेवता की पूजा करनी चाहिये । भूतो एवं क्रूर देवो को बलि प्रदान कर कार्य के अनुकूल श्रेष्ठ शिला का चयन करना चाहिये । श्रेष्ठ स्थपति उचित वेष धारण कर पूर्वाभिमुख होकर मन्त्र-पाठ करे ॥२४-२६॥

अयं मन्त्र-

मन्त्र इस प्रकार है - भूत एवं गुह्यको के साथ देवगण तथा क्रूर वनदेवता यहाँ से दूर चले जायँ । आप सबको बलि प्राप्त हो । मै इस कार्य को करूँगा । आप निवासस्थान बदल दे ॥२७॥

इस प्रकार कहने के पश्चात प्रणाम कर शिला-छेदन प्रारम्भ करे । उसी समय स्थापक उसके (शिला) के उत्तर दिशा में नियमपूर्वक हवन करे । तत्पश्चात सोने की सूई एवं अष्ठील (गोल पत्थर) से पहले शोधन करना चाहिये । (अर्थात शिला पर निशान बनाना चाहिये) । तदनन्तर तीक्ष्ण शस्त्र से तथा बड़े पत्थर से उसपर प्रहार करना चाहिये ॥२८-२९॥

वाञ्चित लम्बाई एवं चौड़ाई से प्रयत्नपूर्वक अधिक शिला (का माप) लेकर उसे चौकोर बनाकर उसके मुखभाग का निर्णय करना चाहिये ॥३०॥

इसे शुद्ध कर एवं गन्ध आदि से विधिपूर्वक पूजा करके लिङ्ग, पिण्डका (लिङ्ग का आधार) या मूर्ति के लिये प्रस्तर या काष्ठ को वस्त्र से लपेट कर रथ पर सावधानी से रखकर सभी मङ्गल (कृत्यों एवं पदार्थो) के साथ कर्ममण्डप (जहाँ निर्माण करना हो) में लाना चाहिये । वहाँ छिपे रूप से (सबकी आँखो से बचाकर ) वर्णित विधि से भली-भाँति कार्य करना चाहिये ॥३१-३३॥

यदि विद्वान को कही गई विधि से (शिलादी) न प्राप्त हो तो अन्य स्थान से शिलादि ग्रहण करना चाहिये । उसके उत्तर दिशा में पुर्वोक्त विधि से (हवन आदि करके) वहाँ उत्खनन कर, प्रशस्त नक्षत्र एवं मुहूर्त मे लाकर, विधिपूर्वक हवन कर एवं जल से शुद्ध करके गन्ध आदि से पूजन कर सभी प्रकार की मंगलध्वनियों के साथ पूर्ववर्णित विधि से (कर्ममण्डप तक) लाना चाहिये । इससे उचित दिशा न होने का दोष समाप्त हो जाता है ॥३४-३६॥

लिङ्गप्रमाण

लिङ्ग का स्थान - लिङ्ग के मान से विमान (देवालय) का प्रमाण अथवा देवालय के प्रमाण से लिङ्ग के मान का निर्धारण करना चाहिये । विद्वान व्यक्ति को गर्भ के मध्यसूत्र से वाम भाग मे कुछ ईशान कोण का आश्रय लेते हुये पूजा किये जाने वाले लिङ्ग को स्थापित करना चाहिये ॥३७॥

द्वार की चौड़ाई के इक्कीस भाग करने चाहिये । ब्रह्मा के भाग में इसका मध्य भाग होता है । मध्यम भाग के छः भाग करने चाहिये । इसके वाम भाग में दो भाग छोड़कर उस भाग से सूत्र को पूर्व-उत्तर की ओर ले जाना चाहिये । इस सूत्र को ब्रह्मसूत्र कहते है तथा वह सूत्र शिव के मध्य भाग को निर्दिष्ट करता है ॥३८-३९॥

नागरलिङ्ग

नागर शिवलिङ्ग - नागर मन्दिर में नागरप्रमाण से लिङ्ग का मान कहा गया है । गर्भ-गृह के (चौड़ाई के प्रमाण से) आधे प्रमाण से सबसे छोटा शिवलिङ्ग होता है । श्रेष्ठ (बड़ा) शिवलिङ्ग (गर्भगृह की चौड़ाई के) पाँच भाग करने पर तीन भाग के बराबर होता है । इन दोनों के मध्य में आठ भाग करने पर नौ शिवलिङ्ग निर्मित होते है । शिवलिङ्ग के श्रेष्ठ, मध्यम एवं कनिष्ठ भेद होते है तथा इनके भी (प्रत्येक के) तीन-तीन भेद होते है । इन लिङ्गो की चौड़ाई उनकी ऊँचाई के सोलह भाग में पाँच, चार या तीसरे भाग के बराबर होती है । इन्हे नागरभेद में जयद, पौष्टिक एवं सार्वकामिक कहा जाता है ॥४०-४२॥

द्राविडलिङ्ग

द्राविड शिवलिङ्ग - द्राविड गर्भगृह के इक्कीस भाग करने पर दसवें भाग के बराबर छोटे द्राविड लिङ्ग की ऊँचाई होती है एवं श्रेष्ठ लिङ्ग की ऊँचाई तेरह भाग के बराबर होती है । इन दोनों के मध्य के अन्तर को उपयुक्त प्रकार से बाँटना चाहिये । द्रविड वर्ग के जयद आदि की ऊँचाई इक्कीस भाग में छः, पाँच एवं चार भाग के बराबर रक्खी जाती है ॥४३-४४॥

वेसरलिङ्गम्

वेसर शिवलिङ्ग - वेसर देवालय के पच्चीस भाग करने पर तेरह भाग से सबसे छोटा लिङ्ग निर्मित होता है । सबसे बड़ा लिङ्ग सोलह भाग के बराबर ऊँचा होता है । उनके मध्य भाग के आठ भाग करने पर पहले के समान नौ लिङ्ग निर्मित होते है । वेसर लिङ्ग के जयद आदि भेदों की ऊँचाई आठ, सात, छः (पच्चीस भाग में से) भाग के बराबर रक्खी जाती है ॥४५-४७॥

सभी प्रकार के लिङ्गों की चौड़ाई की परिधि सोलह में पाँच भाग के बराबर रक्खी जाती है । ये प्रमाण गर्भगृह के अनुसार कहे गये है । अब उनके हस्तप्रमाण को कहता हूँ ॥४८॥

हस्ततो लिङ्गमानानि

लिङ्गों का हस्तप्रमाण - एक हाथ से प्रारम्भ कर छः- छः अंगुल बढ़ाते हुये नौ हाथ पर्यन्त लिङ्ग के तैतीस भेद होते है । यदि देवालय बारह या उससे अधिक तल से युक्त हो तो ये तैतीस भेद पाँच हाथ से प्रारम्भ कर पूर्वोक्त (छः-छः अंगुल) वृद्धि करते हुये निर्मित करना चाहिये । कुछ विद्वानों के मतानुसार एक हाथ से प्रारम्भ कर तीन-तीन अंगुल बढ़ाना चाहिये ॥४९-५०॥

यदि लिङ्ग के प्रमाण में ऊपर दिये मान से एक अंगुल कम या अधिक हो और ऐसा आयादि की दृष्टि से किया गया हो तो वह दोषपूर्ण नही होता है । छोटे, मध्यम एवं बड़े देवालय के लिये लिङ्ग के नौ मान होते है । ये पच्चीस अंगुल से प्रारम्भ होकर आठ या सोलह अंगुल बढ़ाते हुये होते है ॥५१-५३॥

द्वारादितो मानानि

द्वार आदि के अनुसार प्रमाण - श्रेष्ठ लिङ्ग की ऊँचाई द्वार की ऊँचाई के बराबर तथा कनिष्ठ लिङ्ग की ऊँचाई उससे तीन भाग कम होती है । (अथवा) श्रेष्ठ लिङ्ग की ऊँचाइ स्तम्भ की ऊँचाई के नौ भाग करने पर सात भाग के बराबर होती है । कनिष्ठ लिङ्ग नौ भाग में से पाँच भाग के बराबर होता है । उनके (ज्येष्ठ एवं कनिष्ठ के) मध्य के अन्तर को आठ भाग बाँटना चाहिये । इससे नौ प्रकार के लिङ्गो की ऊँचाई बनती है । नागर आदि देवालय के लिङ्गो का व्यास पूर्ववर्णित मान के अनुसार रखना चाहिये ॥५४-५५॥

कुछ श्रेष्ठ ऋषियों के अनुसार कुम्भयोनि के बारे में कहा गया है कि देवालय की ऊँचाई अधिष्ठान से शिखर, ग्रीवा या स्तूपिकापर्यन्त मान को अंगुल-प्रमाण से विभाजित करना चाहिये (एवं उसके अनुसार लिङ्ग का मान निर्धारित करना चाहिये) । एक बार ऊँचाई का निर्णय कर लेने के पश्चात् उसमे अंगुल की वृद्धि या हानि नही होनी चाहिये ॥५६-५७॥

आयादि

आयादि - ऊँचाई में आठ का गुणा करना चाहिये एवं उसमें सत्ताईस का भाग देना चाहिये । शेष एक के सत्ताईस तक नक्षत्र का ज्ञान होता है । एक से अश्वयुज नक्षत्र होता है । ऊँचाई में चार का गुणा करना चाहिये । गुणनफल में नौ का भाग देना चाहिये । शेष से तस्कर आदि 'अंशक' प्राप्त होते है । इनमें (प्रथम तस्कर) अन्य भुक्ति, शक्ति, धन, राज, षण्ड, अभय, विपत् एवं समृद्धि - ये नौ क्रमशः अंशक होते है । इनमें तस्कर, विपत् एवं षण्ड वास्तुविदों द्वारा निन्दनीय है ॥५८-६०॥

ऊँचाई को आठ, नौ एवं तीन से गुणा करे एवं (प्राप्तांक) में बारह, दस एवं आठ से (क्रमशः) भाग देना चाहिए । शेष से धन, ऋण एवं योनि का ज्ञान होता है । यदि धन अधिक हो एवं ऋण कम हो तो चयन किया गया प्रमाण सम्पत्तिकारक होता है । योनियों में ध्वज, सिंह, वृष एव गज शुभ होते है

॥६१-६२॥

ऊँचाई को नौ सो गुणा करना चाहिये । गुणन-फल में सात से भाग देना चाहिये । शेष से सूर्य आदि सात दिन का ज्ञान होता है । इनमें क्रूर दिनों को छोड़ देना चाहिये । ॥६३॥

लिङ्ग के नक्षत्र का विरोध ग्राम या कर्ता के नक्षत्र से नही होना चाहिये । वह लिङ्ग देश, देश के स्वामी एवं उस देश की जनता के लिये शुभ होता है ॥६४॥

लिङ्गतक्षणम्

लिङ्ग का तक्षण = छेदन, कटाई- अभीप्सित लम्बाई एवं चौड़ाई से (शिला को) चौकोर बनाना चाहिये । इसके पश्चात् यथोचित देवता की आकृति उत्कीर्ण करनी चाहिये । इसे 'जाति' रूप कहते है । 'छन्द' रूप अष्टकोण या षोडशकोण होता है । वृत्ताकार लिङ्ग 'आभास' होता है । इस प्रकार लिङ्ग का छेदन तीन प्रकार का होता है ॥६५-६६॥

लिङ्ग की ऊँचाई के तीन भाग करना चाहिये । मूल में ब्रह्मा का भाग होता है, जो चौकोर होता है । मध्य का अष्टकोण भाग वैष्णव होता है । ऊर्ध्व भाग वृत्ताकार होता है तथा यह ईशभाग होता है ॥६७॥

अष्टकोण बनाने की तीन विधियाँ है । अभीष्ट मान (लिङ्गमान) से एक सम चतुरस्त्र (चौकोर) निर्मित करना चाहिये । अर्धकर्णों से दो रेखायें (कोण तक) खींचनी चाहिये तथा चतुरस्त्र के मध्य से रेखायें खीचनी चाहिये । इस प्रकार अष्टकोण निर्मित होगा । (द्रष्टव्य २५.५२) । चतुरस्त्र के एक चतुर्थांश एवं तीन भाग के बीच में मध्य पट्ट होता है । चौकोर की चौड़ाई के सात भाग करने पर तीसरे भाग में मध्य पट्ट होता है । इस प्रकार (अष्टकोण) तीन प्रकार से कहा गया है ॥६८-६९॥

अब षोडशास्त्र का लक्षण कहते है । कोण के अन्त से पट्टसूत्र-रेखा में तिलछे मिले सूत्र का पट्टार्ध से जो अंकित हो तो उसे षोडशास्त्र कहते है । इस प्रकार षोडशास्त्र के मध्य में कोटि छेदन से बुद्धिमान को वृत्त बनाना चाहिये, जो न ही ऊँचा होता है और न ही नीचा होता है । ॥७०-७१॥

सर्वतोभद्रादिलिङ्गप्रमाणम्

सर्वतोभद्र आदि लिंगो का प्रमाण - प्रथम प्रकार का लिङ्ग 'सर्वतोभद्र' दूसरा वर्धमान', तीसरा 'शिवाधिक' एवं चौथा 'स्वस्तिक' होता है । 'सर्वतोभद्र' लिङ्ग ब्राह्मण के लिये प्रशस्त होता है । 'वर्धमान' राजाओं को सुख एवं वृद्धि प्रदान करता है । 'शम्भुभागाधिक' वैश्यों को धन प्रदान करता है एवं 'स्वस्तिक' चतुर्थ वर्ण के लिये प्रशस्त होता है ॥७२-७३॥

सर्वतोभद्र लिङ्ग को तीस भागों में बाँटना चाहिये । दस भाग निचले भाग के लिये तथा उतना ही भाग मध्य एवं ऊर्ध्व भाग के लिये होना चाहिये । शम्भूभाग पूर्णतः गोल होता है । यह ब्राह्मणों एवं राजाओ के लिये प्रशस्त होता है ॥७४॥

वर्धमान लिङ्ग चार प्रकार के होते है । इसका निर्धारण ब्रह्मा, विष्णु एवं शिवभाग की ऊँचाई से होता है । निचले भाग से प्रारम्भ करते हुये चार भाग (ब्रह्मा का), पाँच भाग (विष्णु का) एवं छः भाग शिवतत्त्व का होता है । (अथवा) पाँच, छः एवं सात भाग होता है । (अथवा) छः, सात या आठ भाग होता है । (अथवा अनृतः) सात, आठ एव नौ भाग होता है । यह लिङ्ग राजाओं को सभी प्रकार की सम्पतियाँ, विजय एवं पुत्रों की वृद्धि प्रदान करता है ॥७५-७६॥

शिवधिक लिङ्ग चार प्रकार का होता है । ब्रह्मा से प्रारम्भ कर तीन तत्त्व सात-सात एवं आठ भाग (या) पाँच, पाँच, छः भाग (अथवा) चार, चार, पाँच भाग एवं (अन्ततः) तीन, तीन, चार भाग होते है । यह लिङ्ग वैश्यों को सभी प्रकार की समृद्धी प्रदान करता है, जो संयमी है । ऐसा (विद्वानों द्वारा) कहा गया है । ॥७७-७८॥

स्वस्तिक लिङ्ग की ऊँचाई के नौ भाग करने चाहिये । इनमे दो भाग मूल के लिये, तीन भाग मध्य के लिये एवं चार भाग पूजा के लिये (उर्ध्व भाग ) होता है । यह शूद्रो के लिये सभीकामनाओं को प्रदान करने वाला होता है ॥७९॥

सुरार्चितादिलिङ्गभेदाः

सुरार्चित आदि लिङ्गो के भेद - सुरार्चित लिङ्ग, धारालिङ्ग,साहस्त्रलिङ्ग एवं त्रैराशिक लिङ्ग सभी के कामनाओं को पूर्ण करता है ॥८०॥

(सुरगणार्चित) लिङ्ग की चौड़ाई उसकी लम्बाई के चौथे भाग के बराबर होती है एवं शेष पहले के समान होता है । इस लिङ्ग को सुरार्चित कहते है ॥८१॥

धारालिङ्ग सभी लिङ्गो के समान होता है । इसका मूल भाग आठ, सोलह या चार कोणों वाला होता है । इसका ऊपरी भाग दुगुना होता है । यह धारायुक्त धारालिङ्ग सभी वर्णो के लिये प्रशस्त होता है ॥८२॥

सर्वतोभद्र लिङ्ग में पूजाभाग में पच्चीस धारायें क्रमशः निर्मित की जायँ तथा प्रत्येक पर चालीस (लिङ्ग) निर्मित किये जायँ तो इस प्रकार सहस्त्र लिङ्ग निर्मित होते है एवं इसे साहस्त्रलिङ्ग कहते है ॥८३॥

त्रैराशिक लिङ्ग में वृत्ताकार भाग की परिधि सम्पूर्ण ऊँचाई के नौ भाग में छः भाग के बराबर होती है । अष्टास्त्र भाग की परिधि नौ मे सात भाग के बराबर एवं चौकोर भाग की परिधि नौ में आठ भाग के बराबर होती है । अज (ब्रह्म) के भाग की ऊँचाई नौ मे तीन भाग के बराबर, हरि (विष्णु) भाग की ऊँचाई नौ में तीन भाग तथा हर (शिव) भाग की ऊँचाई नौ में तीन भाग के बराबर होती है ॥८४॥

आर्षलिङ्गम्

आर्ष = ऋषि के अनुकूल लिङ्ग - ऋषियों के अनुकूल चार प्रकार के लिङ्ग होते है - सस्थूलमूल (तल में अधिक चौड़ा) लिङ्ग, यवमध्य (मध्य भाग में यव के समान) लिङ्ग, पिपीलिकामध्य (मध्य भाग में चींटी के समान) लिङ्ग तथा शिरः स्थूल (ऊपरी भाग में स्थूल) लिङ्ग । आवश्यकतानुसार तल, मध्य या ऊपरी भाग का विस्तार वाञ्छित विस्तार से आठ भाग कम होता है । आर्ष लिङ्ग में ब्रह्मा एवं विष्णु का भाग भली-भाँति चौकोर होता है ॥८५-८६॥

स्वयं प्रकट शिवलिङ्ग - स्वयम्भु लिङ्ग का आकार फलक के समान, द्विकोण, पञ्चकोण, त्रिकोण, ग्यारह, नौ, छः, सात तथा बारह कोण अथवा पूर्वोक्त से पृथक्‌ कोण हो सकते है । इसका अग्र भाग शूल के समान एवं श्रृङ्ग के समान शिर हो सकता है । इसके शिरोभाग अन्य प्रकार के भी हो सकते है । ये मानयुक्त नही होते एवं प्रमाणसूत्र से पृथक्‌ होते है (अर्थात् इनका कोई निर्धारित प्रमाण नही होता है) । ये ऊँचे-नीचे, झर्झर के समान छिद्रयुक्त, विवर्ण (अस्पष्ट वर्ण के) तथा पूजाभाग ऊँचा-नीचा हो सकता है । ये टेढ़े या सीधे, बालूयुक्त (प्रस्तर के), रेखा, चिह्न तथा बिन्दु से युक्त या एक रेखा से युक्त होते है । ये ही स्वयम्भु लिङ्ग कहलाते है । बुद्धिमान व्यक्ति को इन लिङ्गो के मूल स्वरूप का शोधन नही करना चाहिये । अज्ञानता से अथवा मोहवश मूल लिङ्गो का संशोधन दोषकारी होता है ॥८७-९०॥

शिरोवर्तनम्

शिरोभाग कि गोलाकार कटाई - स्थापना के समय लिङ्ग का (निचला) पूजा भाग पीठ के बराबर होना चाहिये । पूजाभाग वृत्ताकार या धारायुक्त हो सकता है । यह पूजक को मुक्ति प्रदान करने वाला होता है । अब क्रमानुसार लिङ्गो के शिरोभाग की गोलाकृति (निर्माण, कटाई) के विषय में कहा जा रहा है ॥९१-९२॥

मुनियों के अनुसार (लिङ्ग के शिरोभाग की) गोलाई पाँच प्रकार की होती है- छत्र के समान, त्रपुष (ककड़ी) के समान, कुक्कुट (मुर्गी के) अण्डे के समान, अर्धचन्द्र के समान या बुद्बुद के समान ॥९३॥

छत्राभ शिरोभाग की (गोलाई की ऊँचाई) चौड़ाई के सोलह भाग के बराबर या दो, तीन या चार भाग के बराबर होनी चाहिये । शीर्ष भाग से प्रारम्भ कर नीचे तक गोलाई दोनो पार्श्वो में उचित अनुपात में होनी चाहिये । प्रथम दो माप लिङ्गो के लिये सामान्य होते है । शैवाधिक लिङ्ग के लिये तिसरा माप होता है । वर्धमान लिङ्ग के लिये चार भाग का माप कहा गया है । मापों को एक-दूसरे में मिलाकर गोलाई का निर्माण अशुभ होता है ॥९४-९६॥

त्रपुषाकार लिङ्ग के गोलाई की ऊँचाई लिङ्ग की चौड़ाई के छः भाग में ढाई भाग के बराबर रक्खी जाती है । कुकुटाण्ड की ऊँचाई आधे माप से, अर्धचन्द्र की ऊँचाई तीसरे भाग के बराबर एवं बुदबुद की ऊँचाई आठ भाग में साढ़े तीन भाग माप से रक्खी जाती है ॥९७॥

सभी प्रकार के लिङ्गो का सामान्य नियम इस प्रकार है । लिङ्गो की गोलाई का माप लिङ्ग के ऊपरी भाग का तीसरा भाग होता है । यह शिरोमाप क्रमशः कनिष्ठ, मध्यम एवं श्रेष्ठ लिङ्ग का होता है ॥९८-९९॥

लिङ्ग के शिरोभाग के अभीष्ट भाग को दोनो पार्श्वो मे (बराबर) रखना चाहिये । उसपर चार मत्स्याकृति निर्मित करनी चाहिये । प्रत्येक आकृति के मुख एवं पूँछ तक दो रेखाये खींचनी चाहिये । जहाँ उनका संयोग हो, वहाँ तीन बिन्दु लगाना चाहिये । इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक शिवलिङ्ग की वर्तना करनी चाहिये ॥१००॥

लक्षणोद्धरणम्

लक्षणों का उद्धरण - अब मै सभी लिङ्गो का लक्षणोद्धरण कहता हूँ । लिङ्गो की घिसाई चिकने पत्थर, महीन बालू के साथ गाय के बाल की रस्सी आदि से एक बार में करनी चाहिये एवं सावधानीपूर्वक लिङ्ग के चिह्नो की परीक्षा करनी चाहिये । इसके पश्चात शुभ लक्षणो का उद्धरण प्रारम्भ करना चाहिये । ॥१०१-१०२॥

मन्दिर के निकट रंग-बिरंगे वस्त्रों से अलंकृत मण्डप में शालि आदि धान्यों से युक्त सुन्दर स्थण्डिल पर आसन के ऊपर प्रस्तर-शयन पर, जो कि श्वेत वस्त्र से सज्जित हो, लिङ्ग की स्थापना करनी चाहिये । आचार्य एवं स्थपति नवीन वस्त्र, सुवर्ण एवं पुष्पादि से तथा पाँचो अंगो मे अलंकारो से सुसज्जित होकर तथा श्वेत पुष्प, लेप आदि से एवं उष्णीष (पगडी) आदि धारण कर सुन्दर बने ॥१०३-१०५॥

आचार्य नेत्र-मन्त्र का स्मरण करते हुये सोने की सूई से अजसूत्र, पार्श्वसूत्र तथा रेखा का लेखन करे ॥१०६॥

सुवर्ण अस्त्र से रेखाङ्कन प्रारम्भ कर स्थपति पुनः छोटे शस्त्र से हाथ में घी, दूध एवं मधु के साथ उचित रेखा बनाये, जिससे सुन्दर झरने का रूप बने ॥१०७॥

श्वेत वस्त्र से सभी अन्नों को ढँककर गाय, ब्राह्मण, गोवत्स तथा कन्या आदि को दिखाये तथा शेष को उचित रीति से बुद्धिमान को करना चाहिये ॥१०८॥

नागरलिङ्गलक्षणोद्धरणम्

नागर शिवलिङ्ग का लक्षणोद्धरण - प्रथम प्रकार के नागर लिङ्ग मे शिव-भाग की ऊँचाई के सोलह भाग करने चाहिये । छोटे लिङ्ग में छः भाग (मध्यम लिङ्ग में) चार भाग एवं (बड़े लिङ्ग में) तीन भाग ऊपरी भाग में एवं निचले भाग में तीन भाग छोड देना चाहिये । इस प्रकार सभी लिङ्गो की तीन प्रकार की ऊँचाई होती है । विष्णूभाग में पार्श्व में दो रेखाये खीचनी चाहिये । छोटे लिङ्गो में ये रेखायें चार, तीन एवं दो भाग से होती हुई पृष्ठ भाग में मिलती है । मध्यम लिङ्ग में ये रेखायें पाँच, चार, तीन एवं दो भाग से होती हुई पीछे मिलती है । श्रेष्ठ लिङ्ग में ये रेखाये छः, पाँच, चार, तीन एवं दो भाग से होती हुई पीछे मिलती है । श्रेष्ठ लिङ्ग मे ये रेखायें छः, पाँच, चार, तीन एवं दो भाग से होती हुई पीछे मिलती है । लिङ्ग की चौड़ाई (लम्बाई की) दो तिहाई होती है । या लिङ्ग की चौड़ाई पुरी लम्बाई तक समान एवं एक कृष्णल भाग (विशेष माप) कम होती है । इस प्रकार मय ने नागरलिङ्ग के सूत्र का भली-भाँति वर्णन किया ॥१०९-११३॥

द्राविडलिङ्गलक्षणोद्धरणम्

द्राविडलिङ्ग का लक्षणोद्धरण - द्राविड लिङ्ग के शिवतत्त्व की ऊँचाइ को पन्द्रह भाग में बाँटना चाहिये । सूत्र की लम्बाई हीन (छोटे) आदि क्रम से (मध्यम एवं श्रेष्ठ) नौ, दस या ग्यारह होनी चाहिये । आठ, नौ या दसवें भाग से सूत्र लटकाना चाहिये । इनका पृष्ठ भाग में संयोग, चार, तीन या दो पर (गोलाई बनाते हुये) होता है । यह माप छोटे लिङ्ग के लिये कहा गया है । पाँच, चार, तीन एवं दो मध्यम लिङ्ग के लिये तथा छः, पाँच, चार, तीन एवं दो भाग श्रेष्ठ लिङ्ग के कहा गया है । द्राविड लिङ्ग के सूत्र की चौड़ाई (शिवभाग की ऊँचाई की) आधी होती है ॥११४-११६॥

वेसरलिङ्गलक्षणोद्धरणम्

वेसरलिङ्ग का लक्षणोद्धरण - वेसर लिङ्ग के पूजाभाग की ऊँचाई को पन्द्रह भागों में बाँटना चाहिये । सूत्र की ऊँचाई को आठवें भाग से प्रारम्भ कर दस भाग तक रखना चाहिये । सूत्रों का संयोग पाँच, चार एवं तीन भाग पर (गोलाई बनाते हुये) होना चाहिये । सूत्र की चौड़ाई लिङ्ग की परिधि के सोलहवे भाग के बराबर होनी चाहिये । यह श्रेष्ठ वेसर-लिङ्ग का प्रमाण है ॥११७-११८॥

मध्यम लिङ्ग के (शिवतत्त्व) की ऊँचाई को आठ भागों में बाँटना चाहिये । सूत्र की ऊँचाई चार भाग होनी चाहिये । सूत्र तीन भाग से प्रारम्भ होकर दो या एक भाग पर संयुक्त होता है । सूत्र की चौड़ाई पौन भाग के बराबर होती है । छोटे वेसर लिङ्ग की (शिवभाग की) ऊँचाई को बारह भागों में बाँटना चाहिये । शेष प्रक्रिया पहले के समान होती है । सुत्र की चौड़ाई (शिवभाग के) दो भाग के बराबर होती है ॥११९-१२१॥

सूत्रयासगाम्भीर्ये

रेखाओं की चौड़ाई एवं गहराई - सभी प्रकार के लिङ्गो में प्राप्त भाग (निश्चित किये गये भाग) मे नौ भाग करने पर एक भाग से रेखाओं की चौड़ाई एवं गहराई निर्मित करनी चाहिये । ये रेखायें स्पष्ट एवं नियमानुसार होती है । दृढमति व्यक्ति को आठ यवों को लेकर (आठ यव के माप से) नौ भागों में बाँटना चाहिये । एक हाथ ऊँचे लिङ्ग में एक भाग से रेखा बनानी चाहिये । एक-एक भाग बढ़ाते हुये नौ हाथपर्यन्त लिङ्ग में आठ यव के माप से गहरी एवं लम्बी रेखा बनती है । ॥१२२-१२४॥

(अथवा एक हाथ से लिङ्ग में) आधे यव के माप से रेखाये निर्मित होनी चाहिये तथा श्रेष्ठ लिङ्ग मे साढ़े चार यवमाप से रेखाओं की चौड़ाई एवं गहराई रखनी चाहिये । (इसके मध्य प्रत्येक हाथ माप पर) आधे यव के माप को जोडते जाना चाहिये । मध्य सूत्र (रेखा) की चौड़ाई की आधी पार्श्व सूत्रों की चौड़ाई होती है । अन्य सभी रेखायें समान चौड़ाई एवं माप की होती है ॥१२५-१२६॥

सामान्यविधिः

सामान्य नियम - अब मै (मय) नागर आदि लिङ्गो के लक्षणोद्धरण के सामान्य नियमों का वर्णन करता हूँ । पूजा भाग की ऊँचाई के सोलह भाग करने चाहिये । इसमें नीचे दो भाग तथा ऊपर चार भाग छोड़ देना चाहिये । अग्र भागसहित सूत्र के दस भाग होते है । मणि रेखा दो भाग छोड़कर (पूजाभाग के) नीचे से प्रारम्भ करनी चाहिये । मुकुल को एक भाग छोड़कर वे रेखायें पृष्ठ भाग में जुड़ती है । मुकुल की चौडाई एक भाग के बराबर होनी चाहिये ॥१२७-१२९॥

अथवा लिङ्ग (के शिवभाग) की ऊँचाई के सोलह भाग करने चाहिये । नीचे एक भाग छोड़कर दस भाग नाल के लिये ग्रहण करना चाहिये । शेष कार्य पूर्व-वर्णित होना चाहिये । यह नियम सभी लिङ्गो के लिये सामान्य होता है ॥१३०॥

अथवा शिवभाग के बारह भाग करने चाहिये । दो भाग ऊपर एवं एक भाग नीचे छोड़ना चाहिये तथा नौ भाग (सूत्र तथा) अग्र भाग (मुकुल) के लिये ग्रहण करना चाहिये । शेष पूर्ववर्णित रीति से करना चाहिये ॥१३१॥

अथवा शिवभाग के अट्ठारह भाग करने चाहिये । दो भाग नीचे एवं पाँच भाग ऊपर छोड़ देना चाहिये । ग्यारह भाग अजसूत्र के लिये लेना चाहिये, जिसमें एक भाग मुकुल के लिये होता है । शेष पूर्ववत् होता है ॥१३२॥

अथवा शिवभाग के सोलह भाग करने चाहिये । दो भाग नीचे एवं चार भाग ऊपर छोड़कर दस भाग से सूत्र की ऊँचाई रखनी चाहिये । दो सूत्र आठवे भाग से प्रारम्भ कर पाँच, छः एवं आठ भाग से ले जाते हुये पृष्ठ भाग में एक भाग पर संयुक्त करना चाहिये । शेष सभी पहले के समान होता है ॥१३३-१३४॥

सूत्र को पहले भस्म लगे सूत्र के साथ लपेटना चाहिये । इसके घटिकाग्र (सूत्र का अग्र भाग) से चिह्न बनाकर पार्श्व भाग मे सूत्र से लक्षण अङ्कित करना चाहिये ॥१३५॥

सूत्राग्रलक्षणम्

सूत्र के अग्र भाग का लक्षण - सभी सूत्र के अग्र भाग पर गोला बनाना चाहिये । इसे लिङ्ग की आकृति के अनुसार या सामान्य नियम के अनुसार बनाना चाहिये । गोल आकृति सभी लिङ्गो में सामान्य है । यह पीपल के पत्ते के सदृश, कदली (केला) के मुकुल (कली) के समान, जौ के समान या कमलपुष्प की कली के समान होती है ।

सूत्र के अग्र-भाग की चौड़ाई (शिवतत्त्व के) भाग एक भाग के बराबर एवं ऊँचाई चौड़ाई के बराबर होती है ॥१३६-१३७॥

सूत्र के अग्रभाग का आकार लिङ्ग (के आकार) के अनुसार कहा जा रहा है । लिङ्ग के अग्रभाग की आकृति छत्र के समान होने पर सूत्राग्र गज-नेत्र के समान होता है । लिङ्ग का अग्र भाग अर्धचन्द्र के समान एवं बुदबुद के समान होने पर सूत्र का अग्र भाग शूल के अग्र भाग के समान होता है । लिङ्ग का अग्र भाग त्रपुषाभ (ककड़ी) होने पर सूत्राग्र कुक्कुट (मुर्गी) के अण्डे के समान होता है । कुक्कुट के अण्डे के समान लिङ्ग के अग्र-भाग के होने पर सूत्राग्र छत्र के समान होता है ॥१३८-१४०॥

मध्यम सूत्र की चौड़ाई लिङ्ग की परिधि के सत्रह भाग करने पर दो-तिहाई के बराबर होती है तथा पार्श्वसूत्र चौड़ाई मे उसके आधे होते है । लिङ्ग की लम्बाई मे सामान्य सभी नियम उसी प्रकार होते है ॥१४१-१४२॥

लिङ्गो की लम्बाई एवं चौड़ाई उनके नाम एवं भेदो के साथ, उष्णीष (शिरोभाग) का मान, छत्र के समान आदि (अन्य आकृतियाँ) एवं उष्णीषसूत्र का वर्णन मैने (मय ने ) यहाँ नागर आदि क्रम से आवश्यकतानुसार किया ॥१४३॥

स्फाटिकलिङ्गम्

स्फटिक शिवलिङ्ग - अब मै (मय) छोटे, मध्यम एवं उत्तम स्फटिकलिङ्ग का क्रमशः वर्णन कर रहा हूँ । छोटे लिङ्ग के पूजा-भाग की ऊँचाई एक अंगुल से प्रारम्भ होकर एक-एक अंगुल बढ़ाते हुये छः अंगुल तक जाती है । मध्यम लिङ्ग के पूजा भाग की ऊँचाई सात अंगुल से प्रारम्भ होकर बारह अंगुल तक जाती है । उत्तम लिङ्ग के पूजा भाग की ऊँचाई छः प्रकार की होती है । यह तेरह भाग से प्रारम्भ होकर एक-एक अंगुल बढ़ाते हुये अट्ठारह भाग तक जाती है । (अथवा) ऊँचाई में डेढ़-डेढ़ अंगुल की वृद्धि करनी चाहिये । इस प्रकार (सभी लिङ्गो में) ग्यारह संख्याभेद प्राप्त होते है । श्रेष्ठ, मध्यम एवं कनिष्ठ लिङ्गों के तैतीस ऊँचाई-मान (इस प्रकार) प्राप्त होते है ॥१४४-१४७॥

(पीठिका में स्थापित होने वाला) स्फटिकलिङ्ग के (अधोभाग के) पूजा भाग की ऊँचाई के आधे भाग या तीसरे भाग के बराबर होती है । पूजाभाग की चौड़ाई इसकी ऊँचाई के बराबर, तीन चौथाई या आधी होती है । स्फटिकलिङ्गो की आकृति धारा वाली या गोल होती है । इसके शिर की गोलाई नागर आदि लिङ्गो के सदृश होती है । मध्यम एवं श्रेष्ठ लिङ्ग में ब्रह्मसूत्र पूर्ववर्णन के अनुसार होना चाहिये । विना ब्रह्मसूत्र के यह वर-प्रदाता होता है

॥१४८-१५०॥

(लिङ्ग के पीठ की) चौड़ाई (लिङ्ग की) दुगुनी, ढाई गुनी या तीन गुनी होती है । पीठ का मण्डन (किनारा, घेरा) एवं नाल उचित रीति से निर्मित होना चाहिये । पिण्डिका (पीठ) की ऊँचाई पूजाभाग के बराबर या उसके तीन-चौथाई होनी चाहिये । ॥१५१-१५२॥

मृत्तिका-निर्मित एवं अन्य शिवलिङ्ग - लिङ्ग का निर्माण मृत्तिका, काष्ठ, रत्न एवं लौह (धाड) से स्फटिक के समान दृढ करना चाहिये । मृत्तिकानिर्मित लिङ्ग इच्छानुसार पक्का या कच्चा हो सकता है । काष्ठलिङ्ग दोषरहित (काष्ठ से) निर्मित होना चाहिये । धातु-निर्मित लिङ्ग घना (ठोस) होना चाहिये । लोहलिङ्ग घना होना चाहिये । लोहनिर्मित लिङ्ग अङ्गसहित मूर्ति अथवा अङ्गरहित (लिङ्गरूप) होता है । धातुनिर्मित लिङ्ग पूजित होने पर भोग एवं मुक्ति प्रदान करता है । शिला से भिन्न लिङ्ग को मणिलिङ्ग कहते है ॥१५३-१५५॥

अपनी जाति की वस्तु से अथवा लोहे से अथवा स्फटिक आदि धातु या रत्न से तत्तत लिङ्गो की रचना करनी चाहिये । स्फटिक से भिन्न वस्तु में पीठस्थान बनाना चाहिये । इस प्रकार लौहपीठ में रत्ननिर्मित प्रतिमा की स्थापना की जाती है । संकल्प के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर के लिङ्ग की युक्तिपूर्वक स्थिति भोग एवं मोक्ष प्रादान करने वाली होती है ॥१५६-१५७॥

बाणलिङ्ग (स्वयम्भूलिङ्ग) को पीठिका में जिस प्रकार स्थित हो, उस प्रकार स्थापित करना चाहिये । इसका पूजाभाग पाँच में से तीन भाग, आधा या इसकी ऊँचाई का दो तिहाई होता है । शेष भाग बाणलिङ्ग में पीठबन्ध (पीठ से सम्बद्ध) होता है ॥१५८-१५९॥

(मणिलिङ्ग के लिये) पूर्णतः त्याज्य मणियाँ इस प्रकार है- रेखा, बिन्दु एवं कलङ्क आदि से युक्त, विवर्ण (रङ्ग का साफ न होना), मक्षिका (चिह्न) से युक्त (काक) पद के चिह्न से युक्त, दरार-युक्त एवं शर्करा (बालुका) युक्त मणियाँ ॥१६०॥

लिङ्गस्थापनम्

लिङ्ग की स्थापना - बुद्धिमान व्यक्ति को बडे लिङ्ग की स्थापना अधिष्ठाननिर्मित होने पर, मध्यम लिङ्ग की स्थापनादेवालय के आधा निर्मित होने पर तथा छोटे लिङ्ग की स्थापना देवालय के पूर्ण होने पर करनी चाहिये ॥१६१॥

लिङ्गस्थापनफलम्

लिङ्ग-स्थापना का फल - वर्णित विधि से स्थापित लिङ्ग श्री, सौभाग्य, आरोग्य एवं भोग प्रदान करता है । कही गई विधि से स्थापना न करने पर स्वामी (स्थापक) के लिये विपत्तिकारक तथा नित्य रोग एवं शोक प्रदान करने वाला होता है ॥१६२॥

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Last Updated : January 20, 2012

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