एक जंगल में भासुरक नाम का शेर रहता था । बहुत बलशाली होने के कारण वह प्रतिदिन जंगल के अनेक मृग-खरगोश-हिरण-रीछ-चीता आदि पशुओं को मारा करता था ।
एक दिन जंगल के सभी जानवरों ने मिलकर सभा की और निश्चय किया कि भासुरक शेर से प्रार्थना की जाय कि वह अपने भोजन के लिये प्रतिदिन एक पशु से अधिक की हत्या न किया करे । इस निश्चय को शेर तक पहुँचाने के लिये पशुओं के प्रतिनिधि शेर से मिले । उन्होंने शेर से निवेदन किया कि उसे रोज एक पशु बिना शिकार के मिल जाया करेगा, इसलिए वह अनगिनत पशुओं का शिकार न किया करे । शेर यह बात मान गया । दोनों ने प्रतिज्ञा की कि वे अपने वचनों का पालन करेंगे ।
उस दिन के बाद से वन के अन्य पशु वन में निर्भय घूमने लगे । उन्हें शेर का भय नहीं रहा । शेर को भी घर बैठे एक पशु मिलता रहा । शेर ने यह धमकी दे दी थी कि जिस दिन उसे कोई पशु नहीं मिलेगा उस दिन वह फिर अपने शिकार पर निकल जायगा और मनमाने पशुओं की हत्या कर देगा । इस डर से भी सब पशु यथाक्रम एक-एक पशु को शेर के पास भेजते रहे ।
इसी क्रम से एक दिन खरगोश की बारी आगई । खरगोश शेर की मांद की ओर चल पड़ा । किन्तु, मृत्यु के भय से, उसके पैर नहीं उठते थे । मौत की घड़ियों को कुछ देर और टालने के लिये वह जंगल में इधर-उधर भटकता रहा । एक स्थान पर उसे एक कुआँ दिखाई दिया । कुएँ में झांक कर देखा तो उसे अपनी परछांई दिखाई दी । उसे देखकर उसके मन में एक विचार उठा---- "क्यों न भासुरक को उसके वन में दूसरे शेर के नाम से उसकी परछांई दिखाकर इस कुएँ में गिरा दिया जाय ?"
यही उपाय सोचता-सोचता वह भासुरक शेर के पास बहुत समय बीते पहुँचा । शेर उस समय तक भूखा-प्यासा होंठ चाटता बैठा था । उसके भोजन की घड़ियां बीत रही थीं । वह सोच ही रहा था कि कुछ देर और कोई पशु न आया तो वह अपने शिकार पर चल पड़ेगा और पशुओं के खून से सारे जंगल को सींच देगा । इसी बीच वह खरगोश उसके पास पहुँच गया और प्रणाम करके बैठ गया ।
खरगोश को देखकर शेर ने कोध से लाल-लाल आंखे करते हुए गरजकर कहा---"नीच खरगोश ! एक तो तू इतना छोटा है, और फिर इतनी देर लगाकर आया है; आज तुझे मार कर कल मैं जंगल के सारे पशुओं की जान ले लूंगा, वंश नाश कर दूंगा ।"
खरगोश ने विनय से सिर झुकाकर उत्तर दिया ---
"स्वामी ! आप व्यर्थ क्रोध करते हैं । इसमें न मेरा अपराध है, और न ही अन्य पशुओं का । कुछ भी फैसला करने से पहले देरी का कारण तो सुन लीजिये ।"
शेर---"जो कुछ कहना है, जल्दी कह । मैं बहुत भूखा हूँ, कहीं तेरे कुछ कहने से पहले ही तुझे अपनी दाढ़ों में न चबा जाऊँ ।"
खरगोश---"स्वामी ! बात यह है कि सभी पशुओं ने आज सभा करके और यह सोचकर कि मैं बहुत छोटा हूँ, मुझे तथा अन्य चार खरगोशों को आपके भोजन के लिए भेजा था । हम पाँचों आपके पास आ रहे थे कि मार्ग में कोई दूसरा शेर अपनी गुफा से निकल कर आया और बोला ---"अरे ! किधर जा रहे हो तुम सब ? अपने देवता का अन्तिम स्मरण कर को, मैं तुम्हें मारने आया हूँ ।" मैंने उसे कहा कि "हम सब अपने स्वामी भासुरक शेर के अपस आहार के लिए जा रहे हैं ।" तब वह बोला, "भासुरक कौन होता है ? यह जंगल तो मेरा है । मैं ही तुम्हारा राजा हूँ । तुम्हें जो बात कहनी हो मुझ से कहो । भासुरक चोर है । तुम में से चार खरगोश यहीं रह जायें, एक खरगोश भासुरक के पास जाकर उसे बुला लाए । मैं उससे स्वयं निपट लूंगा । हममें जो शेर अधिक बली होगा वही इस जंगल का राजा होगा ।" अब मैं किसी तरह उससे जान छुड़कार आप के पास आया हूँ । इसीलिये मुझे देर हो गई । आगे स्वामी की जो इच्छा हो, करें ।"
यह सुनकर भासुरक बोला--"ऐसा ही है तो जल्दी से मुझे उस दूसरे शेर के पास ले चल । आज मैं उसका रक्त पीकर ही अपनी भूख मिटाऊँगा । इस जंगल में मैं किसी दूसरे का हस्तक्षेप पसन्द नहीं करता ।"
खरगोश----"स्वामी ! यह तो सच है कि अपने स्वत्व के लिये युद्ध करना आप जैसे शूरवीरों का धर्म है, किन्तु दूसरा शेर अपने दुर्ग में बैठा है । दुर्ग से बाहिर आकर ही उसने हमारा रास्ता रोका था । दुर्ग में रहने वाले शत्रु पर विजय पाना बड़ा कठिन होता है । दुर्ग में बैठा एक शत्रु सौ शत्रु के बराबर माना जाता है । दुर्गहीन राजा दन्तहीन साँप और मदहीन हाथी की तरह कमजोर हो जाता है ।"
भासुरक----"तेरी बात ठीक है, किन्तु मैं उस दुर्गस्थ शेर को भी मार डालूँगा । शत्रु को जितनी जल्दी हो नष्ट कर देना चाहिये । मुझे अपने बल पर पूरा भरोसा है । शीघ्र ही उसका नाश न किया गया तो वह बाद में असाध्य रोग की तरह प्रबल हो जायगा ।"
खरगोश----"यदि स्वामी का यही निर्णय है तो आप मेरे साथ चलिये ।"
यह कहकर खरगोश भासुरक शेर को उसी कुएँ के पास ले गया, जहाँ झुककर उसने अपनी परछाई देखी थी । वहाँ जाकर वह बोला---
"स्वामी ! मैंने जो कहा था वही हुआ । आप को दूर से ही देखकर वह अपने दुर्ग में घुस गया है । आप आइये, मैं आप को उसकी सूरत तो दिखा दूं ।"
भासुरक---"जरुर ! उस नीच को देखकर मैं उसके दुर्ग में ही उससे लडूगाँ ।"
खरगोश शेर को कुएँ की मेढ़ पर ले गया । भासुरक ने झुककर कुएँ में अपनी परछाईं देखी तो समझा कि यही दूसरा शेर है । तब, वह जोर से गरज । उसकी गर्ज के उत्तर मेम कुएँ से दुगनी गूंज पैदा हुई । उस गूंज को प्रतिपक्षी शेर की ललकार समझ कर भासुरक उसी क्षण कुएँ में कूद पड़ा, और वहीं पानी में डूबकर प्राण दे दिये ।
खरगोश ने अपनी बुद्धिमत्ता से शेर को हरा दिया । वहाँ से लौटकर वह पशुओं की सभा में गया । उसकी चतुराई सुनकर और शेर की मौत का समाचार सुनकर सब जानवर खुशी से नाच उठे ।
इसीलिये मैं कहता हूँ कि "बली वही है जिसके पास बुद्धि का बल है ।"
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दमनक ने कहानी सुनाने के बाद करटक से कहा कि---"तेरी सलाह हो तो मैं भी अपनी बुद्धि से उनमें फूट डलवा दूं । अपनी प्रभुता बनाने का यही एक मार्ग है । मैत्री भेद किये बिना काम नहीं चलेगा ।"
करटक----"मेरि भी यही राय है । तू उनमें भेद कराने का यत्न कर । ईश्वर कर तुझे सफलता मिले ।"
वहाँ से चलकर दमनक पिंगलक के पास गया । उस समय पिंगलक के पास संजीवक नहीं बैठा था । पिंगलक ने दमनक को बैठने का इशारा करते हुए कहा----"कहो दमनक ! बहुत दिन बाद दर्शन दिये ।"
दमनक----"स्वामी ! आप को अब हम से कुछ प्रयोजन ही नहीं रहा तो आने का क्या लाभ ? फिर भी आप के हित की बात कहने को आप के पास आ जाता हूँ । हित की बात बिना पूछे भी कह देनी चाहिये ।"
पिंगलक----"जो कहना हो, निर्भय होकर कहो । मैं अभय वचन देता हूँ ।"
दमनक ----"स्वामी ! संजीवक आप का मित्र नहीं, वैरी है । एक दिन उसने मुझे एकान्त में कहा था कि, "पिंगलक का बल मैंने देख लिया; उसमें विशेष सार नहीं है, उसको मारकर मैं तुझे मन्त्री बनाकर सब पशुओं पर राज्य करुँगा ।"
दमनक के मुख से इन वज्र की तरह कठोर शब्दों को सुनकर पिङगलक ऐसा चुप रहा गया मानो मूर्छना आ गई
हो । दमनक ने जब पिङगलक की यह अवस्था देखी तो सोचा---’पिङगलक का संजीवक से प्रगाढ़ स्नेह है, संजीवक ने इसे वश में कर रखा है, जो राजा इस तरह मन्त्री के वश में हो जाता है वह नष्ट हो जाता है ।’ यह सोचकर उसने पिङगलक के मन से संजीवक का जादू मिटाने का निश्चय और भी पक्का कर लिया ।
पिङगलक ने थोड़ा होश में आकर किसी तरह धैर्य धारण करते हुए कहा----"दमनक ! संजीवक तो हमारा बहुत ही विश्वासपात्र नौकर है । उसके मन में मेरे लिये वैर भावना नहीं हो सकती ।"
दमनक----"स्वामी ! आज जो विश्वास-पात्र है, वही कल विश्वास-घातक बन जाता है । राज्य का लोभ किसी के भी मन को चंचल बना सकता है । इसमें अनहोनी कोई बात नहीं ।"
पिङगलक ----"दमनक ! फिर भी मेरे मन में संजीवक के लिये द्वेष-भावना नहीं उठती । अनेक दोष होने पर भी प्रियजनों को छोड़ा नहीं जाता । जो प्रिय है, वह प्रिय ही रहता है ।"
दमनक--- तो राज्य-संचालन के लिए बुरा है । जिसे भी आप स्नेह का पात्र बनायेंगे वही आपका प्रिय हो जाएगा । इसमें संजीवक की कोई विशेषता नहीं । विशेषता तो आपकी है । आपने उसे अपना प्रिय बना लिया तो वह बन गया । अन्यथा उसमें गुण ही कौन-सा है ? यदि आप यह समझते हैं कि उसका शरीर बहुत भारी है, और वह शत्रु-संहार में सहायक होगा, तो यह आपकी भूल है । वह तो घास-पात खाने वाला जीव है । आपके शत्रु तो सभी मांसाहारी हैं । अतः उसकी सहायता से शत्रु-नाश नहीं हो सकता । आज वह आपको धोखे से मारकर राज्य करना चाहता है । अच्छा है कि उसका षड्यन्त्र पकने से पहले ही उसको मार दिया जाए ।"
पिङगलकः---"दमनक ! जिसे हम ने पहले गुणी मानकर अपनाया है उसे राज-सभा में आज निर्गुण कैसे कह सकते
हैं ? फिर तेरे कहने से ही तो मैंने उसे अभयवचन दिया था । मेरा मन कहता है कि संजीवक मेरा मित्र है, मुझे उसके प्रति कोई क्रोध नहीं है । यदि उसके मन में वैर आ गया हिअ तो भी मैं उसके प्रति वैर-भावना नहीं रखता । अपने हाथों लगाया विष-वृक्ष भी अपने हाथों नहीं काटा जाता ।"
दमनक----"स्वामी ! यह आपकी भावुकता है । राज-धर्म इसका आदेश नहीं देता । वैर बुद्धि रखने वाले को क्षमा करना राजनीति की दृष्टि से मूर्खता है । आपने उसकी मित्रता के वश में आकर सारा राज-धर्म भुला दिया है । आपके राज-धर्म से च्युत होने के कारण ही जङगल के अन्य पशु आपसे विरक्त हो गए हैं । सच तो यह है कि आप में और संजीवक में मैत्री होना स्वाभाविक ही नहीं है । आप मांसाहारी हैं, वह निरामिषभोजी । यदि आप उस घासपात खाने वाले को अपना मित्र बनायेंगे तो अन्य पशु आप से सहयोग करना बन्द कर देंगे । यह भी आपके राज्य के लिए बुरा होगा । उसके संग से आपकी प्रकृति में भी वे दुर्गुण आ जायेंगे जो शाकाहारियों में होते हैं । शिकार से आपको अरुचि हो जाएगी । आपका सहवास अपनी प्रकृति के पशुओं से ही होना चाहिए ।
इसीलिए साधु लोग नीच का संग छोड़ देते हैं । संग-दोष से ही खटमल की मन्दगति के कारण वेगवती जू को भी मरना पड़ा था ।"
पिङगलक ने पूछा ----"यह कथा कैसे है ?"
दमनक ने कहा---"सुनिये---