मित्रभेद - कथा १६

पंचतंत्र मतलब उच्चस्तरीय तात्पर्य कथा संग्रह।


किसी स्थान पर धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्र रहते थे । एक दिन पापबुद्धि ने सोचा कि धर्मबुद्धि की सहायता से विदेश में जाकर धन पैदा किया जाय । दोनों ने देश-देशान्तरों में घूमकर प्रचुर धन पैदा किया । जब वे वापिस आ रहे थे तो गाँव में घूमकर प्रचुर धन पैदा किया । जब वे वापिस आ रहे थे तो गाँव के पास आकर पापबुद्धि ने सलाह दी कि इतने धन को बन्धु-बान्धवों के बीच नहीं ले जाना चाहिये । इसे देखकर उन्हें ईर्ष्या होगी, लोभ होगा । किसी न किसी बहाने वे बाँटकर खाने का यत्‍न करेंगे । इसलिये इस धन का बड़ा भाग जमीन में गाड़ देते हैं । जब जरुरत होगी, लेते रहेंगे ।

धर्मबुद्धि यह बात मान गया । जमीन में गड्‍ढ़ा खोद कर दोनों ने अपना सन्चित धन वहाँ रख दिया और गाँव में चले आए ।

कुछ दिन बाद पापबुद्धि आधी रात को उसी स्थान पर जाकर सारा धन खोद लाया और ऊपर से मिट्टी डालकर गड्‌ढा भरकर घर चला आया ।

दूसरे दिन वह धर्मबुद्धि के पास गया और कहा----"मित्र ! मेरा परिवार बड़ा है । मुझे फिर कुछ धन की जरुरत पड़ गई है । चलो, चलकर थोड़ा-थोड़ा और ले आवें ।"

धर्मबुद्धि मान गया । दोनों ने जाकर जब जमीन खोदी और वह वर्तन निकाला, जिस में धन रखा था , तो देखा कि वह खाली है । पापबुद्धि सिर पीटकर रोने लगा----"मैं लुट गया, धर्मबुद्धि ने मेरा धन चुरा लिया, मैं मर गया, लुट गया....।"

दोनों अदालत में धर्माधिकारी के सामने पेश हुए । पापबुद्धि ने कहा ----"मैं गड्‌ढे के पास वाले वृक्षों को साक्षी मानने को तैयार हूँ । वे जिसे चोर कहेंगे, वह चोर माना जाएगा ।"

अदालत ने यह बात मान ली, और निश्चय किया कि कल वृक्षों की साक्षी ली जायगी और उस साक्षी पर ही निर्णय सुनाया जायगा ।

रात को पापबुद्धि ने अपने पिता से कहा----"तुम अभी गड्‌ढे के पास वाले वृक्ष की खोखली जड़ में बैठ जाओ । जब धर्माधिकारी पूछे तो कह देना कि चोर धर्मबुद्धि है ।"

उसके पिता ने यही किया । वह सुबह होने से पहले ही वहाँ जाकर बैठ गया ।

धर्माधिकारी ने जब ऊँचे स्वर से पुकारा----"हे वनदेवता ! तुम्ही साक्षी दो कि इन दोनों में चोर कौन है ?"

तब वृक्ष की जड़ में बैठे हुए पापबुद्धि के पिता ने कहा----"धर्मबुद्धि चोर है, उसने ही धन चुराया है ।"

धर्माधिकारी तथा राजपुरुषों को बड़ा आश्चर्य हुआ । वे अभी अपने धर्मग्रन्थों को देखकर निर्णय देने की तैयारी ही कर रहे थे कि धर्मबुद्धि ने उस वृक्ष को आग लगा दी, जहाँ से वह आवाज आई थी ।

थोड़ी देर में पापबुद्धि का पिता आग से झुलसा हुआ उस वृक्ष की जड़ में से निकला । उसने वनदेवता की साक्षी का सच्चा भेद प्रकट कर दिया ।

तब राजपुरुषों ने पापबुद्धि को उसी वृक्ष की शाखाओं पर लटकाते हुए कहा कि मनुष्य का यह धर्म है कि वह उपाय की चिन्ता के साथ अपाय की भी चिन्ता करे । अन्यथा उसकी वही दशा होती है जो उन बगलों की हुई थी, जिन्हें नेवले ने मार दिया था ।

धर्मबुद्धि ने पूछा----"कैसे ?"

राजपुरुषों ने कहा----"सुनो----

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Last Updated : February 20, 2008

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