मित्रभेद - कथा १२

पंचतंत्र मतलब उच्चस्तरीय तात्पर्य कथा संग्रह।


जंगल में वृक्ष की एक शाखा पर चिड़ा-चिड़ी का जोड़ा रहता था । उनके अंडे भी उसी शाखा पर बने घोंसले में थे । एक दिन एक मतवाला हाथी वृक्ष की छाया में विश्राम करने आया । वहां उसने अपनी सूंड में पकड़कर वही शाखा तोड़ दी जिस पर चिड़ियों का घोंसला था । अंडे जमीन पर गिर कर टूट गये ।

चिड़िया अपने अंडों के टूटने से बहुत दुःखी हो गई । उसका विलाप सुनकर उसका मित्र कठफोड़ा भी वहां आ गया । उसने शोकातुर चिड़ा-चिड़ी को धीरज बंधाने का बहुत यत्‍न किया, किन्तु उनका विलाप शान्त नहीं हुआ । चिड़िया ने कहा----"यदि तू हमारा सच्चा मित्र है तो मतवाले हाथी से बदला लेने में हमारी सहायता कर । उसको मार कर ही हमारे मन को शान्ति मिलेगी ।"

कठफोड़े ने कुछ सोचने के बाद कहा---"यह काम हम दोनों का ही नहीं है । इसमें दूसरों से भी सहायता लेनी पड़ेगी । एक मक्खी मेरी मित्र है; उसकी आवाज बड़ी सुरीली है । उसे भी बुला लेता हूँ ।"

मक्खी ने भी जब कठफोड़े और चिड़िया की बात सुनी तो वह मतवाले हाथी के मारने में उनका सहयोग देने को तैयार हो गई । किन्तु उसने भी कहा कि "यह काम हम तीन का ही नहीं, हमें औरों की भी सहायता ले लेनी चाहिए । मेरा मित्र एक मेंढक है, उसे भी बुला लाऊँ ।"

तीनों ने जाकर मेघनाद नाम के मेंढक को अपनी दुःखभरी कहानी सुनाई । मेंढक उनकी बात सुनकर मतवाले हाथी के विरुद्ध षड़्यन्त्र में शामिल हो गया । उसने कहा---"जो उपाय मैं बतलाता हूँ, वैसा ही करो तो हाथी अवश्य मर जायगा । पहले मक्खी हाथी के कान में वीणा सदृश मीठे स्वर का आलाप करे । हाथी उसे सुनकर इतना मस्त हो जायगा कि आंखें बन्द करलेगा । कठफोड़ा उसी समय हाथी की आंखों को चोंचें खुभो-खुभो कर फोड़ दे । अन्धा होकर हाथी जब पानी की खोज में इधर-उधर भागेगा तो मैं एक गहरे गड्‍ढे के किनारे बैठकर आवाज करुँगा । मेरी आवाज से वह वहां तालाब होने का अनुमान करेगा और उधर ही आयेगा । वहां आकर वह गड्‌ढे को तालाब समझकर उसमें उतर जायगा। उस गड्‌ढे से निकलना उसकी शक्ति से बाहिर होगा । देर तक भूखा-प्यासा रहकर वह वहीं मर जायगा ।"

अनत में, मेंढक की बात मानकर सब ने मिल-जुल कर हाथी को मार ही डाला ।

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टिटिहरी ने कहा---"तभी तो मैं कहती हूँ कि छोटे और निर्बल भी मिलजुल कर बड़े-बड़े जानवरों को मार सकते हैं ।"

टिटिहरा ---"अच्छी बात है । मैं भी दूसरे पक्षियों की सहायता से समुद्र को सुखाने का यत्‍न करुँगा ।"

यह कहकर उसने बगुले, सारस, मोर आदि अनेक पक्षियों को बुलाकर अपनी दुःख-कथा सुनाई । उन्होंने कहा---"हम तो अशक्त हैं, किन्तु हमारा मित्र गरुड़ अवश्‍य इस संबन्ध में हमारी सहायता कर सकता है ।’ तब सब पक्षी मिलकर गरुड़ के पस जाकर रोने और चिल्लाने लगे ----"गरुड़ महाराज ! आप के रहते हमारे पक्षिकुल पर समुद्र ने यह अत्याचार कर दिया । हम इसका बदला चाहते हैं । आज उसने टिटिहरी के अंडे नष्ट किये हैं, कल वह दूसरे पक्षियों के अंडों को बहा ले जायगा । इस अत्याचार की रोक-थाम होनी चाहिये । अन्यथा संपूर्ण पक्षिकुल नष्ट हो जायगा ।"
गरुड़ ने पक्षियों का रोना सुनकर उनकी सहायता करने का निश्चय किया । उसी समय उसके पास भगवान्‌ विष्णु का दूत आया । उस दूत द्वारा भगवान विष्णु ने उसे सवारी के लिये बुलाया था । गरुड़ ने दूत से क्रोधपूर्वक कहा कि वह विष्णु भगवान को कह दे कि वह दूसरी सवारी का प्रबन्ध कर लें । दूत ने गरुड़ के क्रोध का कारण पूछा तो गरुड़ ने समुद्र के अत्याचार की कथा सुनाई ।

दूत के मुख से गरुड़ के क्रोध की कहानी सुनकर भगवान विष्णु स्वयं गरुड़ के घर गये । वहाँ पहुँचने पर गरुड़ ने प्रणामपूर्वक विनम्र शब्दों में कहा---

"भगवन् ! आप के आश्रम का अभिमान करके समुद्र ने मेरे साथी पक्षियों के अंडों का अपहरण कर लिया है । इस तरह मुझे भी अपमानित किया है । मैं समुद्र से इस अपमान का बदला लेना चाहता हूँ ।"

भगवान विष्णु बोले ---"गरुड़ ! तुम्हारा क्रोध युक्तियुक्त है । समुद्र को ऐसा काम नहीं करना चाहिये था । चलो, मैं अभी समुद्र से उन अंडों को वापिस लेकर टिटिहरी को दिलवा देता हूँ । उसके बाद हमें अमरावती जाना है ।"

तब भगवान ने अपने धनुष पर ’आग्नेय" बाण को चढ़ाकर समुद्र से कहा---"दुष्ट ! अभी उन सब अंडों को वापिस देदे, नहीं तो तुझे क्षण भर में सुखा दूंगा ।"

भगवान विष्णु के भय से समुद्र ने उसी क्षण अंडे वापिस दे दिये ।

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दमनक ने इन कथाओं को सुनाने के बाद संजीवक से कहा---"इसीलिये मैं कहता हूँ कि शत्रु-पक्ष का बल जानकर ही युद्ध के लिये तैयार होना चाहिये ।"

संजीवक---"दमनक ! यह बात तो सच है, किन्तु मुझे यह कैसे पता लगेगा कि पिंगलक के मन में मेरे लिये हिंसा के भाव हैं । आज तक वह मुझे सदा स्नेह की दृष्टि से देखता रहा है । उसकी वक्रदृष्टि का मुझे कोई ज्ञान नहीं है । मुझे उसके लक्षण बतला दो तो मैं उन्हें जानकर आत्म-रक्षा के लिये तैयार हो जाऊँगा ।"

दमनक---"उन्हें जानना कुछ भी कठिन नहीं है । यदि उसके मन में तुम्हें मारने का पाप होगा तो उसकी आँखें लाल हो जायँगी, भवें चढ़ जाएँगी और वह होठों को चाटता हुआ तुम्हारी ओर क्रूर दृष्टि से देखेगा । अच्छा तो यह है कि तुम रातों-रात चुपके से चले जाओ । आगे तुम्हारी इच्छा ।"

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यह कहकर दमनक अपने साथी करटक के पास आया । करटक ने उससे भेंट करते हुए पूछा---"कहो दमनक ! कुछ सफलता मिली तुम्हें अपनी योजना में ?"

दमनक---"मैनें तो नीतिपूर्वक जो कुछ भी करना उचित था कर दिया, आगे सफलता दैव के अधीन है । पुरुषार्थ करने के बाद भी यदि कार्यसिद्धि न हो तो हमारा दोष नहीं ।"

करटक---"तेरी क्या योजना है ? किस तरह नीतियुक्त काम किया है तूने ? मुझे भी बता ।"

दमनक----"मैंने झूठ बोलकर दोनों को एक दूसरे का ऐसा बैरी बना दिया है कि वे भविष्य में कभी एक दूसरे का विश्वास नही करेंगे ।"

करटक---"यह तूने अच्छा नहीं किया मित्र ! दो स्नेही हृदयों में द्वेष का बीज बोना बुरा काम है ।"

दमनक ---"करटक ! तू नीति की बातें नहीं जानता, तभी ऐसा कहता है । संजीवक ने हमारे मन्त्री पद को हथिया लिया था । वह हमारा शत्रु था । शत्रु को परास्त करने में धर्म-अधर्म नहीं देखा जाता । आत्मरक्षा सब से बडा़ धर्म है । स्वार्थसाधन ही सब से महान् कार्य है । स्वार्थ-साधन करते हुए कपट-नीति से ही काम लेना चाहिये---जैसे चतुरक ने लिया था ।"

करटक ने पूछा---"कैसे ?"

दमनक ने तब चतुरक गीदड़ और शेर की यह कहानी सुनाई---

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Last Updated : February 20, 2008

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