एक स्थान पर मित्रशर्मा नाम का धार्मिक ब्राह्मण रहता था । एक दिन माघ महीने में, जब आकाश पर थोडे़-थोडे़ बादल मंडरा रहे थे, वह अपने गाँव से चला और दूर के गाँव में जाकर अपने यजमान से बोला----"यजमाज जी ! मैं अगली अमावस के दिन यज्ञ कर रहा हूँ । उसके लिये एक पशु दे दो ।"
यजमान ने एक हृष्ट-पुष्ट उसे दान दे दिया । ब्राह्मण ने भी पशु को अपने कन्धों पर उठाकर जल्दी-जल्दी अपने घर की राह ली । ब्राह्मण के पास मोटा-ताजा पशु देखकर तीन ठगों के मुख में लोभवश पानी आ गया । वे कई दिनों से भूखे थे । उन्होंने उस पशु को हस्तगत करने की एक योजना बनाई । उसके अनुसार उनमें से एक वेष बदलकर ब्राह्मण के सामने आ गया और बोला---
"ब्राह्मण ! तुम्हारी बुद्धि को क्या हो गया है ? इस अस्पृश्य अपवित्र कुत्ते को कन्धों पर उठाकर क्यों लेजा रहे हो ? लोग तुम पर हँसेंगे ।"
ब्राह्मण ने क्रोध में आकर उसका उत्तर दिया----"मूर्ख ! कहीं तू अन्धा तो नहीं है, जो इस पशु को कुत्ता कहता है ।"
कुछ रास्ता पार करने के बाद दूसरा धूर्त्त भी वेष बदलकर ब्राह्मण के सामने आकर कहने लगा----
"ब्राह्मण ! यह क्या अनर्थ कर रहे हो ? इस मरे पशु को कन्धों पर उठाकर क्यों ले जा रहे हो ?"
उसे भी ब्राह्मण ने क्रोध से फटकारते हुए कहा----"अन्धा तो नहीं हो गया तू, जो इसे मृत पशु बतला रहा है !"
ब्राह्मण थोड़ी दूर ही और गया होगा कि तीसरा धूर्त्त भी वेष बदलकर सामने से आ गया । ब्राह्मण को देखकर वह भी कहने लगा---"छिः-छिः ब्राह्मण ! यह क्या कर रहे हो ? गधे को कन्धों पर उठाकर ले जाते हो । गधे को तो छूकर भी स्नान करना पड़ता है । इसे छोड़ दो । कहीं कोई देख लेगा तो गाँव भर में तुम्हारा अपयश हो जायगा ।"
यह सुनकर ब्राह्मण ने उस पशु को भी गधा मानकर रास्ते में छोड़ दिया । वह पशु छूटकर घर की ओर भागा, लेकिन ठगों ने मिलकर उसे पकड़ लिया और खा डाला ।
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इसीलिये मैं कहता हूँ कि बुद्धिमान् व्यक्ति भी छल-बल से पराजित हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त बहुत से दुर्बलों के साथ भी विरोध करना अच्छा नहीं होता । सांप ने चींटियों से विरोध किया था; बहुत होने से चींटियों ने सांप को मार डाला ।
मेघवर्ण ने पूछा---"यह कैसे ?"
स्थिरजीवी ने तब सांप-चींटियों की यह कथा सुनाई---