स्वार्थसिद्धि परम लक्ष्य !

वरुण पर्वत के पास एक जङगल में मन्दविष नाम का बूढ़ा साँप रहता था । उसे बहुत दिनों से कुछ खाने को नहीं मिला था । बहुत भाग-दौड़ किये बिना खाने का उसने यह उपाय किया कि वह एक तालाब के पास चला गया । उसमें सैंकड़ों मेंढक रहते थे । तालाब के किनारे जाकर वह बहुत उदास और विरक्त-सा मुख बना कर बैठ गया । कुछ देर बाद एक मेंढक ने तालाब से निकल कर पूछा----"मामा ! क्या बात है, आज कुछ खाते-पीते नहीं हो । इतने उदास से क्यों हो ?"

साँप ने उत्तर दिया----"मित्र ! मेरे उदास होने का विशेष कारण है । मेरे यहाँ आने का भी वही कारण है ।"

मेंढक ने जब कारण पूछा तो साँप ने झूठमूठ एक कहानी बना ली । वह बोला----"बात यह है कि आज सुबह मैं एक मेंढक को मारने के लिए जब आगे बढ़ा तो मेंढक वहाँ से उछल कर कुछ ब्राह्मणों के बीच में चला गया । मैं भी उसके पीछे-पीछे वहाँ गया । वहाँ जाकर एक ब्राह्मण-पुत्र का पैर मेरे शरीर पर पड़ गया । तब मैंने उसे डस लिया । वह ब्राह्मण-पुत्र वहीं मर गया । उसके पिता ब्राह्मण ने मुझे क्रोध से जलते हुए यह शाप दिया कि तुझे मेंढकों का वाहक बन कर उन्हें सैर कराना होगा । तेरी सेवा से प्रसन्न होकर जो कुछ वे तुझे देंगे, वही तेरा आहार होगा । स्वतन्त्र रुप से तू कुछ भी खा नहीं सकेगा । यहाँ पर मैं तुम्हारा वाहक बनकर ही आया हूँ ।"

उस मेंढक ने यह बात अपने साथी मेंढकों को भी कह दी । सब मेंढक बड़े खुश हुए । उन्होंने इसका वृत्तान्त अपने राजा ’जलपाद’ को भी सुनाया । जलपाद ने अपने मन्त्रियों से सलाह करके यही निश्चय किया कि साँप को वाहक बनाकर उसकी सेवा से लाभ उठाया जाय । जलपाद के साथ सभी मेंढक साँप की पीठ पर सवार हो गए । जिनको उसकी पीठ पर स्थान नहीं मिला उन्होंने साँप के पीछे गाड़ी लगा कर उसकी सवारी की ।

सांप पहले तो बड़ी तेजी से दौड़ा, बाद में उसकी चाल धीमी पड़ गई । जलपाद के पूछने पर इसका कारण यह बतलाया "आज भोजन न मिलने से मेरी शक्ति क्षीन हो गई है, कदम नहीं उठते ।" यह सुन कर जलपाद ने उसे छोटे-छोटे मेंढकों को खाने की आज्ञा दे दी ।

सांप ने कहा----"मेंढक महाराज ! आपकी सेवा से पाये पुरस्कार को भोग कर ही मेरी तृप्ति होगी, यही ब्राह्मण का अभिशाप है । इसलिये आपकी आज्ञा से मैं बहुत उपकृत हुआ हूँ ।" जलपाद सांप की बात से बहुत प्रसन्न हुआ ।

थोड़ी देर बाद एक और काला सांप उधर से गुजरा । उसने मेंढकों को सांप की सवारी करते देखा तो आश्चर्य में डूब गया । आश्चर्यान्वित होकर वह मन्दविष से बोला----"भाई ! जो हमारा भोजन है, उसे ही तुम पीठ पर सवारी कर रहे हो । यह तो स्वभाव-विरुद्ध है । मन्दविष ने उत्तर दिया----"मित्र ! यह बात मैं भी जानता हूँ, किन्तु समय की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।"

मन्दविष ने अनुकूल अवसर पाकर धीरे-धीरे सब मेंढकों को खा लिया । मेंढकों का वंशनाश ही हो गया ।

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वायसराज मेघवर्ण ने स्थिरजीवी को धन्यवाद देते हुए कहा----"मित्र, आप बड़े पुरुषार्थी और दूरदर्शी हैं । एक कार्य को प्रारंभ करके उसे अन्त तक निभाने की आपकी क्षमता अनुपम है । संसारे में कई तरह के लोग हैं । नीचतम प्रवृत्ति के वे हैं जो विघ्न-भय से किसी भी कार्य का आरंभ नहीं करते, मध्यम वे हैं जो विघ्न-भय से हर काम को बीच में छोड़ देते हैं, किन्तु उत्कृष्ट वही हैं जो सैंकड़ों विघ्नों के होते हुए भी आरंभ किये गये काम को बीच में नहीं छोड़ते । आपने मेरे शत्रुओं का समूल नाश करके उत्तम कार्य किया है ।"

स्थिरजीवी ने उत्तर दिया----"महाराज ! मैंने अपना धर्म पालन किया । दैव ने आपका साथ दिया । पुरुषार्थ बहुत बड़ी वस्तु है, किन्तु दैव अनुकूल न हो तो पुरुषार्थ भी फलित नहीं होता । आपको अपना राज्य मिल गया । किन्तु स्मरण रखिये, राज्य क्षणस्थायी होते हैं । बड़े-बड़े विशाल राज्य क्षणों में बनते और मिटते रहते हैं । शाम के रंगीन बादलों की तरह उनकी आभा भी क्षणजीवी होती है । इसलिये राज्य के मद में आकर अन्याय नहीं करना, और न्याय से प्रजा का पालन करना । राजा प्रजा का स्वामी नहीं, सेवक होता है ।"
इसके बाद स्थिरजीवी की सहायता से मेघवर्ण बहुत वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य करता रहा ।

॥तृतीय तन्त्र समाप्त॥

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Last Updated : February 21, 2008

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