स्वर्णगौरीव्रत
( स्कन्दपुराण ) -
यह श्रावण कृष्ण तृतीयाको किया जाता है । उस दिन प्रातःस्त्रानादि करके शुद्ध भूमिकी मृत्तिकासे गौरीकी मूर्ति बनावे । उसके समीप सूत या रेशमके १६ तारका डोरा बनाकर उसमें पूजन करके डोंरेको दाहिने हाथमें बाँढे और व्रत करे । इस प्रकार १६ वर्ष करनेके बाद उद्यापन करे । उद्यापनमें एक वेदीपर अष्टदल बनाकर उसपर कलश स्थापित करे और कलशपर शिवगौरीकी सुवर्णमयी मूर्ति प्रतिष्ठित ग्रीन्थयुक्त डोरेका पूजन करे । ' ॐ शिवाय नमः स्वाहा ।', ' ॐ शिवाय नमः स्वाहा ।' से हवन करके बाँसके १६ पात्रोमें १६ फल और १६ प्रकारकी मिठाई भरकर १६ ब्राह्मणोंको दे और गोदान, अन्नदान, शय्यादान और भूयसी देकर १६ जोड़ा - जोड़ी जिमावे और फिर स्वयं भोजन करके व्रत समाप्त करे । इस व्रतके सम्बन्धमें एक महत्वपुर्ण कथा है - प्राचीन कालमें सरस्वतीके किनारेकी विमलापुरीके राजा चन्द्रप्रभने अप्सराओंके आदेशानुसार अपनी छोटी रानी विशालाक्षीसे यह व्रत करवाया था; किंतु मदान्विता महादेवी ( बड़ी रानी ) ने उक्त डोरा तोड़ डाला । फल यह हुआ कि वह विक्षिप्त हो गयी और आम्र, सरोवर एवं ऋषिगणोंसे ' गौरी कहाँ है ? ' यह पूछने लगी । अन्तमें गौरीकी सानुकूलता होनेपर वह फिर पूर्वावस्थामेम प्राप्त होकर सुखसे रही ।