त्रिशंकु II. n. (सू.इ.) अयोध्या का राजा । यह निबंधन राजा का ज्येष्ठ पुत्र था । कई ग्रंथो में इसके पिता का नाम त्रय्यारुण या अरुण दिया है
[ब्रह्म.८.९७] ;
[ह.वं.१. १२] ;
[पद्म. सृ.८] ;
[दे. भा.७.१०] । इसका मूल नाम सत्यव्रत था । परंतु वसिष्ठ के शाप के कारण, इसे त्रिशंकु नाम प्राप्त हुआ । सका तथा इसका पिता त्र्यय्यारुण, एवं पुत्र हरिश्चंद्र का कुलोपाध्याय ‘देवराज’ वसिष्ठ था । वसिष्ठ से त्रिशंकु का पहले से ही शत्रुत्व था । कान्यकुब्ज का राजा विश्वरथ, जो आगे तपसाधना से विश्वामित्र ऋषि बना, त्रिंशकु का मित्र एवं हितैषी था । वसिष्ठ एवं विश्वामित्र इन दो ऋषियों के बीच, त्रिशंकु के कारण जो झगडा हुआ, उससे त्रिशंकु का जीवनचरित्र नाटयपूर्ण बना दिया है । वसिष्ठ एवं त्रिशंकु के शत्रुत्व की कारणपरंपरा, ‘देवी भागवत’ में दी गयीं है । यह शुरु से दुर्वर्तनी था । इस कारण इसके बारे में किसी का भी अनुकूल मत न था । एक बार, इसके बारे में किसी का भी अनुकूल मत न था । एक बार, इसने एक विवाहित ब्राह्मण स्त्री का अपहार किया । ‘उस स्त्री की सप्तपदी होने के पहले मैंने उसे उठा लिया हैं, अतः मैं दोषरहित हूँ, ’ ऐसा इसका कहना था । किंतु इसकी एक न सुन कर, इसे राज्य के बाहर निकालने की सलाह, वसिष्ठ ने इसके पिता को दी । पिता ने इसे राज्य के बाहर निकाल दिया । वह स्वयं, दूसरा अच्छा पुत्र हो, इस इच्छा से राज्य छोड कर, तप्स्या करने चला गया । अयोध्या में कोई भी राजा न रहने के कारण, वसिष्ठ राज्य का कारोबार देखने लगा । किंतु राज्य की आमदानी दिन ब दिन बिगडती गई । लगातार नौ वर्षो तक राज्य में अकाल पड गया । इस समय त्रिशंकु अरण्य में गुजारा करता था । जिस अरण्य में यह रहता था, उसी अरण्य में विश्वामित्र का आश्रम था । परंतु तपस्या के कारण, विश्वामित्र कही दूर चला गया था । इसलिये आश्रम में केवल उसकी पत्नी तथा तीन पुत्र ही थे । त्रिशंकु, रोज थोडा मांस, आश्रम के बाहर पेड मे बॉंध देता था । उससे विश्वामित्र की पत्नी तथा एक पुत्र का गुजारा चलता था । एक बार अन्य पशु न मिलने के कारण, इसने वसिष्ठ के गाय कामधेनु को मार डाला । तब वसिष्ठ ने उसे शाप दिया कि, ‘तुम्हारे सिर पर तीन शंकु निर्माण होगे । गोवध, स्त्रीहरण तथा पिता के क्रोध के कारण तुम पिशाच बनोगे, तथा तुम्हें लोग त्रिशंकु के नाम से पहचानेंगे’। वसिष्ठ के इस शाप के कारण, त्रिशंकु तथा वसिष्ठ का वैर अधिक ही बढ गया । प्रथम इसे दुर्वर्तनी कह कर, वसिष्ठ ने इसे राज्य के बाहर निकल दिया । पश्चात्, कामधेनु वध के निमित्त से इसे पिशाच बनने का शाप दिया । बाद में देवी की कृपा से इसका पिशाचत्त्व नष्ट हो गया । पश्चात् पिता ने भी इसे राजगद्दी पर बिठाया
[दे. भा.७.१२] । तपश्चर्या से वापस आने पर विश्वामित्र को पता चला कि, उसके कुटुंब का पालनपोषण त्रिशंकु ने किया । तब त्रिशंकु के प्रति उसे कृतज्ञता महसूस हुई तथा उसने इसे वर मॉंगने के लिये कहा । तब सदेह स्वर्ग जाने की इच्छा त्रिशंकु ने विश्वामित्र के पास प्रकट की । बाद में विश्वामित्र ने इसे राज्य पर बैठाया, इससे यज्ञ करवाया, तथा सब देवता एवं वसिष्ठ के विरोध के बावजूद उसने त्रिशंकु को स्वर्ग पहुँचा दिया
[ह.वं.१.१३] । वाल्मीकि रामायण में, त्रिशंकु की संदेह स्वर्गारोहण की कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है । सदेह स्वर्ग जाने की इच्छा त्रिशंकु ने वसिष्ट के सामने रखी । वसिष्ठ ने इसे साफ उत्तर दिया कि, यह असंभव है । तब यह वसिष्ठ के पुत्रों के पास गया । उन्हों ने यह कह कर इसका निषेध किया कि, जब हमारे पिता ने तुम्हें ना कह दिया है, तब तुम हमारे पास क्यों आये? त्रिशंकु ने उन्हें जवाब दिया कि, ‘दूसरी जगह जा कर, कुछ मार्ग मै अवश्य ढूंढ लाऊँगा’ तब उन पुत्रों ने इसे शाप दिया कि ‘तुम चांडाल बनोगे’। बाद में यह विश्वामित्र की शरण में गया । विश्वामित्र ने उसे संदेह स्वर्ग ले जाने का आश्वासन दिया, एवं सब को यज्ञ के लिये निमंत्रण दिया । वसिष्ठ को छोड कर, अन्य सारे ऋषियों ने विश्वामित्र के इस निमंत्रण का स्वीकार किया । किंतु वसिष्ठ ने स्पष्ट शब्दों में संदेश भेजा कि, ‘जहॉं यज्ञ करनेवाला चांडल हो, उपाध्याय क्षत्रिय हो, वहॉं कौन आवेगा? इस यज्ञ के द्वारा स्वर्ग में भी भला कौन जावेगा? यह संदेश सुन कर विश्वामित्र अत्यंत क्रोधित हुआ । उसने सारा वसिष्ठकुल भस्मसात् कर दिया, एवं वसिष्ठ को शाप दिया कि, ‘अगला जन्म तुम्हें डोम के घर में मिलेगा’। विश्वामित्र का यज्ञ शुरु हुआ । विश्वामित्र अध्वर्यु के स्थान में था । निमंत्रित करने पर भी देवता यज्ञ में नहीं आयें । तब अपना तपःसामर्थ्य खर्च कर विश्वामित्र ने त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग ले जाना प्रारंभ किया । देखते देखते त्रिशंकु स्वर्ग चला गया । किंतु इन्द्रसहित सब देवताओं ने इसे नीचे ढकेल दिया । यह ‘त्राहि त्राहि’ करते हुए नीचे सिर, तथा ऊपर पैर कर के नीचे आने लगा । यह देख कर विश्वामित्र अत्यंत क्रोधित हुआ । वह ‘रुको, रुको’ ऐसा चिल्लाने लगा । पश्चात् उसने दक्षिण की ओर नये सप्तर्षि एवं नक्षत्रमाला निर्माण किये ।‘अन्य मिन्द्रं करिष्यामि, लोको वा स्यादनिन्द्रकः’(या तो दूसरा इन्द्र निर्माण मैं करुँगा, या मेरा स्वर्ग ही इंद्ररहित होगा), ऐसा निश्चय कर विश्वामित्र ने नया स्वर्ग निर्माण करना प्रारंभ किया । उससे देव चिंताक्रान्त हुएँ । उन्होंने कहा कि जिस व्यक्ति को गुरुशाप मिला है, वह स्वर्ग के लिये योग्य नहीं हैं। विश्वामित्र ने कहा, ‘मैं अपनी प्रतिज्ञा असत्य नहीं कर सकता । तब देवताओं ने उसे मान्यता दी । ‘सद्यःस्थित ज्योतिष्चक्र के बाजू में दक्षिण की ओर तुम्हारे नक्षत्र रहेंगे, तथा उनमें त्रिशंकु रहेगा, ऐसा आश्वासन दे कर, विश्वामित्र की प्रतिज्ञा देवों ने पूर्ण की
[वा.रा.बा.५७-६१] । पश्चात् अपने तपःसाधना में त्रिशंकुआख्यान के कारण, बहुत भारी विघ्न आया है यह सोच कर, विश्वामित्र ने अपनी तपश्चर्या का स्थान दक्षिण की ओर पुष्करतीर्थ पर बदल दिया
[वा.रा.बा.६२] । त्रिशंकुआख्यान की यही कथा स्कंदपुराण में काफी अलग तरीके से दी गई है । संदेह स्वर्ग जाने के लिये यज्ञ करने की त्रिशंकु की कल्पना, वसिष्ठ ने अमान्य कर दी, एवं इसे नया गुरु ढूँढने के लिये कहा । पश्चात् वसिष्ठ के पुत्रों से इसने यज्ञ करने की विज्ञापना की, जिससे उनसे इसे चांडाल होने का शाप मिला । तत्काल इसका शरीर काला एवं दुर्गधयुक्त हो गया । तब अपने दुराग्रह के प्रति स्वयं इसीके मन में घृणा उत्पन्न हुई । घर लौटने के बाद, द्वार से ही इसने अपने पुत्र का राज्यभिषेक करने के लिये कहा । पश्चात् यह स्वयं सदेह स्वर्गारोहण के प्रयत्न में लगा । जगन्मित्र विश्वामित्र के सिवा इसे अन्य कोई भी मित्र नही था । विश्वामित्र के यहॉं जाने पर, पहले तो इसे किसीने भीतर ही न जाने दिया । परन्तु बाद में विश्वामित्र से मुलाकात होने पर, उसने वसिष्ठपुत्रों के शाप की हकीकत इसे पूछ ली । वसिष्ठ से स्पर्धा होने के कारण, त्रिशंकु को संदेह स्वर्ग के जाने की प्रतिज्ञा विश्वामित्र ने की । इसका चांडालत्त्व दूर करने के लिये, विश्वामित्र ने इसे साथ ले कर तीर्थयात्रा प्रारंभ की । परंतु इसका चांडालत्व नष्ट न हो सका । बाद में अर्बुदाचल पर मार्कडेय ऋषि इनसे मिले । उन्हें विश्वामित्र ने सारा वृत्तांत्त, अपनी प्रतिज्ञा के सहित बताया । इसका चांडाल्त्व दूर होने की तरकीब भी मार्कडेय ऋषि से पूछी । मार्कडेय इसेने हाटकेश्वरक्षेत्र में जा कर, पातालगंगा में स्नान, तथा हाटकेश्वरा का दर्शन लेने के लिये कहा । हाटकेश्वर के दर्शन के पश्चात् इसका चांडालत्व दूर हुआ । पश्चात् यज्ञ की सामग्री एकत्रित करने के लिये, विश्वामित्र ने इसे कहा । त्रिशंकु के यज्ञ की तैयारी पुरी होते ही, विश्वामित्र स्वयं ब्रह्मदेव के पास गया । ब्रह्माजी से विश्वामित्र ने कहा कि, ‘त्रिशंकु को सदेह तुम्हारे लोक में लाने के लिये, मैं उससे यज्ञ करवा रहा हूँ । इसलिये आप सब देवों के साथ यहॉं आ कर, यज्ञभाग का स्वीकार करे’। तब ब्रह्मदेव ने कहा, ‘देहान्तर के बिना स्वर्गप्राप्ति असंभव है । इसलिये यज्ञ करने के बाद त्रिशंकु को देहांतर (मृत) करना ही पडेगा । वरना उसका स्वर्गप्रवेश असंभव है’ । यह सुन कर विश्वामित्र संतप्त हुआ, तथा उसने कहा, ‘मैं अपनी तपश्चर्या के सामर्थ्य से, त्रिशंकु को संदेह स्वर्गप्राप्ति दे कर ही रहूँगा’। इतना कह कर, विश्वामित्र त्रिशंकु के पास वापस आया । स्वयं अध्वर्यु बन कर, विश्वामित्र ने यज्ञ शुरु किया । शांडिल्य आदि ऋषियों को उसने होता आदि ऋत्विजों के काम दिये । बारह वर्षो तक विश्वामित्र का यज्ञ चालू रहा । पश्चात् अवभृतस्नान भी हुआ । किंतु त्रिशंकु को स्वर्गप्रवेश नही हुआ । वसिष्ठ के सामने अपना उपहास होगा, यह सोच कर इसे अत्यंत दुःख हुआ । विश्वामित्र ने इसे सांत्वना दी, एवं कहा की, ‘समय पाते ही मैं प्रतिसृष्टि निर्माण करुँगा’। प्रतिसृष्टि निर्माण करने की शक्ति प्राप्त हो, इस हेतु से विश्वामित्र ने शंकर की आराधना शुरु की । पश्चात् वैसा वर भी शंकर से उसने प्राप्त किया, एवं प्रतिसृष्टि निर्माण करने का काम शुरु किया । ब्रह्मदेव ने विश्वामित्र के पास आ कर उससे कहा, ‘इंद्रादि देवों का नाश होने के पहले, प्रतिसृष्टि निर्माण करना बंद करो’। विश्वामित्र ने जवाब में कहा, ‘अगर त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग प्राप्त हो जाये, तो मैं प्रतिसृष्टि निर्माण करना बंद कर दूँगा’। ब्रह्मदेव के द्वारा अनुमति दी जाने पर, निर्माण की गई प्रतिसृष्टि अक्षय होने के लिये, विश्वामित्र ने ब्रह्मदेव से प्रार्थना की । तब ब्रह्मदेव ने कहा, ‘तुम्हारी सृष्टि अक्षय होगी, परंतु यज्ञार्ह नहीं बन सकती ’। इतना कह कर, ब्रह्मदेव त्रिशंकु के साथ सत्यलोक गया
[स्कंद. ५.६.२.७] । भविष्य के मतानुसार, त्रिशंकु ने दस हजार वर्षो तक राज्य किया । इसकी पत्नी का नाम सत्यरथा था । उससे इसे हरिश्चन्द नामक सुविख्यात पुत्र हुआ
[ह.वं. १.१३.२४] । त्रिशंकु की धार्मिकता का वर्णन, विश्वामित्र के मुख में काफी बार आया है
[वा.रा.बा.५८] । इसने सौ यज्ञ किये थे । क्षत्रियधर्म की शपथ ले कर इसने कहा है, ‘मैने कभी भी असत्य कथन नहीं किया, तथा नहीं करुँगा । गुरु को भी मैंने शील तथा वर्तन से संतुष्ट किया है, प्रजा का धर्मपालन किया है । इतना धर्मनिष्ठ होते हुए भी, मुझे यश नहीं मिलता, यह मेरा दुर्भाग्य है । मेरे सब उद्योग निरर्थक हैं, ऐसा प्रतीत होता हैं’। विश्वामित्र को भी इसके बारे में विश्वास था
[वा.रा.बा.५९] । वसिष्ठ को भी त्रिशंकु के वर्तन के बारे में आदर था । ‘यह कुछ उच्छुंखल है, परंतु बाद में यह सुधर जाएगा’ ऐसी उसकी भावना थी
[ह.वं.१.१३] । वनवास के समय इसका वर्तन आदर्श था । वहॉं इसने विश्वामित्र के बालकों का संरक्षण किया, इससे इसकी दयालुवृत्ति जाहीर होती है । ब्राहण की कन्या के अपहरण के संबंध में जो उल्लेख आयें है, उसका दूसरा पक्ष हरिवंश तथा देवी भागवत में दिया गया है । उस मॉंमले में इसकी विचारपद्धति उस काल के अनुरुप ही प्रतीत होती है । वसिष्ठ की गाय इसने जानबूझ कर मारी, यह एक आक्षेप है । किंतु वसिष्ठ के साथ इसका शत्रुत्व था । गोहत्या का यही एक समर्थनीय कारण हो सकता है । सदेह स्वर्ग जाने की इच्छा, इसके विचित्र स्वभाव का एक भाग है । संदेह स्वर्ग जाना असंभव है, यों वसिष्ठ ने कहा था । तथापि वसिष्ठ विश्वामित्रादि ऋषि स्वर्ग में जा कर वापस आते थे, यह हरिश्चन्द्र की कथा से प्रतीत होता है । त्रिशंकु की कथा में भी वैसा उल्लेख आया है । कुछ दिन स्वर्ग में जा कर, अर्जुन ने इन्द्र के आतिथ्य का उपभोग किया था, ऐसा उल्लेख भी महाभारत में प्राप्त है । इस दृष्टि से त्रिशंकु को भी स्वर्ग जाने में कुछ हर्ज नही था । परंतु वसिष्ठ के द्वारा अमान्य किये जाने पर, इसे ऐसा लगा, ‘अपना तथा वसिष्ठ का शत्रुत्व है, इसीलिये वह अपनी इच्छा अमान्य कर रहा हैं’ इन्द्रादि देवों, ने भे इसे स्वर्ग में न लेने का कारण, ‘गुरु का शाप’ यही कहा है । स्वर्गप्राप्ति के लिये देहान्तर अनिवार्य है, यह नहीं कहा । इससे प्रतीत होता है कि, सदेह स्वर्ग जाना उस काल में असंभव नहीं था । स्वर्ग के मार्ग पर, त्रिशंकु को इंद्र विरोध से रुकना पडा । अभी वहॉं त्रिशंकु नाम का एक तारा है । पृथ्वी से उस तारें का अन्तर तीन शंकु(=तीस महापद्म मील) त्रिशंकु इतना ही हैं, ऐसा खगोलज्ञ कहते हैं ।