अरुंधती n. स्वायंभुव मन्वन्तर में, कर्दम प्रजापति को देवहूति से उत्पन्न कन्या । यह वसिष्ठ को ब्याही गयी थी ३.२३,२४;
[मत्स्य.२०१.३०] ।
अरुंधती II. n. कश्यप की कन्या । इसे नारद तथा पर्वत नामक दो भाई थे । नारद द्वारा यह वसिष्ठ को ब्याहि गयी थी
[वायु.७१.७९.८३] ;
[ब्रह्मांड. ३.८.८६] ;
[लिंग.१.६३.७८-८०] ;
[कूर्म.१.१९.२०] ;
[विष्णुधर्म.१.११७] । इसने वसिष्ठ की प्राप्ति के लिये, गौरी-व्रत किया था । इस कारण, इस विवाहसुख प्राप्त हुआ
[भ.वि ब्राह्म.२१] ।
अरुंधती III. n. मेधातिथि मुनि की कन्या । मेधाथिति ने ज्योतिष्टोम नामक यज्ञ किया । उस समय यह यज्ञकुंड से उत्पन्न हुई । पूर्वजन्म में यह ब्रह्मदेव की संध्या नामक मानस कन्या थी । चंद्रभागा नदी के तट पर तपोरण्य में, मेधातिथि के घर यह बडी होने लगी। पॉंच साल के उपरान्त, जब यह एक बार चंद्रभागा नदी पर गयी थी, तब ब्रह्मदेव ने विमान में से इसे देखा तथा तत्काल मेधातिथि से मिल कर, इसे साध्वी स्त्रियों के संपर्क में रखने के लिये कहा । ब्रह्मदेव के कथनानुसार,मेधातिथि ने सावित्री के पास जा कर कहा, ‘मॉं! मेरी इस कन्या को उत्तम शिक्षा दो।’ सावित्री ने उसकी यह प्रार्थना मान्य की । इस प्रकार सात वर्षे बीत गये । बारह वर्श की आयु पूर्ण होने के पश्चात् एक बार यह, सावित्री तथा बहुला के साथ मानसपर्वत के उद्यान में गई । वहॉं तपस्या करते हुए वसिष्ठ ऋषि दृष्टिगोचर हुए । वसिष्ठ एवं अरुंधती का परस्पर दृष्टि मिलन होते ही दोनो को कामवासना उत्पन्न हुई । तथापि मनोनिग्रह से दोनो अपने अपने आश्रम में गये । सावित्री को यह ज्ञान होते ही, उसने इन दोनों का विवाह करा दिया
[कालि.२३] । वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के मैत्रावरुणी वसिष्ठ की पत्नी
[म.स.११.१३२] ;
[म.व. १३०.१४] इसका दूसरा नाम अक्षमाला भी था
[म. उ.११५.११] अरुंधती ने स्वयं, ‘अरुंधती’शब्द की व्युत्पत्ति, निम्न प्रकार बताई है । यह वसिष्ठ को छोड, अन्य कहीं भी नहीं रहती तथा उसका विरोध नहीं करती
[म.अनु.१४२.३९ कुं.] । कमल चुराने के लिये शपथ लेने के प्रसंग में, कमल न चुराने के लिये इसने प्रतिज्ञा की है
[म.अनु.१४३.३८ कुं.] । ऋषियों द्वारा धर्मरहस्य पूछे जाने पर, श्रद्धा, आतिथ्य तथा गोशृंगस्नान का माहात्म्य, इसके द्वारा वर्णन किये जाने की पुरानी कथा, भीष्म ने धर्म को कथन की है
[म. अनु.१९३.१-११ कुं.] यह अत्यंत तपस्वी तथा पतिसेवापरायण थी । इसे कारण, अग्निपत्नी स्वाहा अन्य छः ऋषीपत्नीओं का रुप धारण कर सकी, पर इसका रुप धारण न कर सकी
[म.व.२७७.१६ कुं.] । एकबार, इसे बदरपाचनतीर्थ पर रख कर, सप्तर्षी हिमालय में फलमूल लाने गये । तब बारह वर्षों तक अवर्षण हुआ । तब सब ऋषि वहीं बस गये । इधर अरुंधती के कठिन तप की परीक्षा लेने, शंकर ब्राह्मण का वेश ले कर भिक्षा मागने पधारे । पास में कुछ न होने के कारण, इसने कुछ (लोहे के) वे उसे दिये । ब्राह्मण ने उसे पकाने केलिये कहा, तब इसने उन्हें पकने के लिये अग्नि पर रखा तथा अनेक विषयों पर उस ब्राह्मण के साथ चर्चा प्रारंभ की । चर्चा होते होते बारह वर्ष कब व्यतीत हो गये, इसका पता तक नहीं चला । हिमालय गये सप्तर्षि फलमूल ले कर वापस लौट आये, तब शंकर ने प्रगट हो कर, अरुंधती की कडी तपश्चर्या का वर्णन उनके पास किया तथा उसकी इच्छानुसार, वह तीर्थ पवित्र स्थान हो कर प्रसिद्ध होने का वरदान दिया
[म. श. ४८] । आकाश में सप्तर्षिओं में वसिष्ठ के पास इसका उदय होता है । इसका पुत्र शक्ति
[ब्रह्मांड. ३.८.८६.८७] ।
अरुंधती IV. n. दक्ष एवं असिक्नी की कन्या तथा धर्म की दस पत्नीओं में से एक (दक्ष तथा धर्म देखिये) ।